विश्रामदिन

परिचय

तू विश्रामदिन को पवित्र मानने के लिये स्मरण रखना। छ: दिन तो तू परिश्रम कर के अपना सब काम काज करना; परन्तु सातवां दिन तेरे परमेश्वर यहोवा के लिये विश्रामदिन है। उस में न तो तू किसी भांति का काम काज करना, और न तेरा बेटा, न तेरी बेटी, न तेरा दास, न तेरी दासी, न तेरे पशु, न कोई परदेशी जो तेरे फाटकों के भीतर हो। क्योंकि छ: दिन में यहोवा ने आकाश, और पृथ्वी, और समुद्र, और जो कुछ उन में है, सब को बनाया, और सातवें दिन विश्राम किया; इस कारण यहोवा ने विश्रामदिन को आशीष दी और उसको पवित्र ठहराया (निर्ग २०:८-११)।

चौथी आज्ञा यही कहती है, और अधिकांश बाइबल के पाठक इस सम्बन्ध में क्या करना चाहिये, असमंजस में हैं।

कुछ लोग इस विषय पर निश्चित हैं। यरुशलेम शहर में ऐसे क्षेत्र हैं जहां यदि आप विश्रामदिन (शनिवार) के दिन अपनी कार लेकर जायेंगे तो आपकी कार पर पत्थर वर्षाये जायेंगे। विश्रामदिन के दिन बहुमन्जिली इमारतों में हरेक मन्जील पर लिफ़्ट अपने आप रुकती है क्योंकि हाथ उठाकर स्वीच बन्द करना भी काम करना है (जो वर्जित है)।

अन्य देशों में बहुत से लोग अपने बगीचे में काम नही़ं करेंगे, सुबह की सैर पर नहीं निकलेंगे, या अपने बच्चों को रविवार के दिन फ़ूटबौल खेलने की इजाजत नहीं देंगे, क्योंकि वे विस्रामदिन (रविवार) को अपवित्र करना नहीं चाहते। कुछलोग तो इसके लिये एक अभियान ही चलाते हैं ताकि और लोगों को रविवार के दिन काम करने से रोका जा सके, चाहे वे मसिही हों, अन्य धर्मावलम्बी हों या किसी भी धर्म को नहीं मानते हों।

अधिकांस मसीही इस हद तक नहीं जाते हैं। फिर भी अपने मनमें एक तरह की अशान्ती महसूस करते हैं कि मुझे जिस प्रकार व्यवहार करना चाहिये, वैसा नहीं कर रहा हूं कि? रविवार के दिन बाजार करना चाहिये या नहीं? रविवार को विशेष दिन के रूपमें पवित्र रखने के अभियान में इन्हें भी साथ देना चाहिये या नहीं?

धर्मशास्त्र में विश्रामदिन के सम्बन्ध में १५० हवाला दिये गये हैं। मूसा के समय में विश्रामदिन का उल्लंघन करने पर मृत्युदण्ड दिया जाता था (निर्ग ३१:१५) और विश्रामदिन के दिन जलावन इकठ्ठा करने के अपराध में एक व्यक्ति को पत्थरवाह कर मृत्युदण्ड दिया गया था (गिन्ती १५:३२-३६)।

दूसरी ओर यशायाह ने विश्रामदिन के पालन करने वालों के लिये महान् आशिषों की प्रतिज्ञा की है। ‘यदि तू विश्रामदिन को अशुद्ध न करे अर्थात मेरे उस पवित्र दिन में अपनी इच्छा पूरी करने का यत्न न करे, और विश्रामदिन को आनन्द का दिन और यहोवा का पवित्र किया हुआ दिन समझ कर माने; यदि तू उसका सन्मान कर के उस दिन अपने मार्ग पर न चले, अपनी इच्छा पूरी न करे, और अपनी ही बातें न बोले, तो तू यहोवा के कारण सुखी होगा, और मैं तुझे देश के ऊंचे स्थानों पर चलने दूंगा; मैं तेरे मूलपुरूष याकूब के भाग की उपज में से तुझे खिलाऊंगा, क्योंकि यहोवा ही के मुख से यह वचन निकला है’ (५८:१३-१४)।

विश्रामदिन में काम करने के खिलाफ यिर्मयाह ने भी कडी चेतावनी दी है और इसे पवित्र रखने पर समृद्ध राष्ट्रीय आशिषों की प्रतिज्ञायें कीं हैं।

धर्मशास्त्र के इस वाक्यांश का क्या अर्थ है, जैसा कि लिखा है, ‘सो जान लो कि परमेश्वर के लोगों के लिये सब्त का विश्राम बाकी है’? सभी उलझनों के बीच क्या हम इस बात से चुक गये हैं कि परमेश्वर हमसे क्या कहना चाहते हैं? क्या हम इतने महत्त्वपूर्ण विषय से अनभिज्ञ रहने की भूल कर सकते हैं? (यिर्मयाह १७:१९-२७)।

धर्मशास्त्र के इस वाक्यांश का क्या अर्थ है, जैसा कि लिखा है, ‘सो जान लो कि परमेश्वर के लोगों के लिये सब्त का विश्राम बाकी है’? सभी उलझनों के बीच क्या हम इस बात से चुक गये हैं कि परमेश्वर हमसे क्या कहना चाहते हैं? क्या हम इतने महत्त्वपूर्ण विषय से अनभिज्ञ रहने की भूल कर सकते हैं?

रविवार

हमारी पहली समस्या यह है कि पुराने नियम में विश्रामदिन स्पष्ट रुप से हफ्ता के सातवें दिन को माना गया है, और हम सब इस पर सहमत हैं कि यह दिन शनिवार है। कलीसिया के आरम्भ में, इतिहास बताती है कि, रविवार को विशेष दिन के रुप में माना जाने लगा और अधिकांश देशों में आज तक यही प्रचलन है।

इसके पक्ष में दो कारण दिये जाते हैं। पहली दलील जो लोग देते हैं वह यह है कि आरम्भिक कलीसिया हमेशा हफ्ता के पहले दिन इकठ्ठा हुआ करती थी। लेकिन क्या ऐसा ही था? प्रेरितों के काम के २० अध्याय और ७वें पद में हफ्ता के पहले दिन इकठ्ठा होने की बात कही गयी है, और दूसरा सन्दर्भ १ कोरिन्थी १६ के २रे पद में हफ्ता के पहले दिन अपने आय के अनुसार दान एकत्रित करने की सल्लाह दी गयी है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि विश्वव्यापी कलीसिया में रविवार को विश्रामदिन या आराधना के दिन के रुप में उपयोग किया गया हो।

फिर, हफ्ता के पहले दिन का यूनानी भाषा में अक्षरस: अनुवाद ‘विश्रामदिन का पहला (दिन)’ होता है। यह निश्चीत रुपसे नहीं कहा जा सकता कि इस वाक्यांश का अर्थ रविवार ही है। अब, रविवार को विशेष दिन के रुप में मानने का दूसरा कारण, वह यह है कि परम्परागत रूप से यह विश्वास करना कि यीशु का पुनरुत्थान रविवार की सुबह हुआ था।

कुछ लोगों का कथन है कि हमें रविवार के दिन को यीशु के पुनरुत्थान के दिन के रुप में मनाना चाहिये। लेकिन क्या उनका पुनरुत्थान रविवार के दिन हुआ था? सुसमाचार की पुस्तकों में हम पुनरुत्थान के दिन के विषय में तीन समयावधी का उल्लेख पाते हैं। यीशु ने मत्ती रचित सुसमाचार में तीन बार और लुका की पुस्तक में भी तीन बार अपने पुनरुत्थान का जिक्र किया है। इन पदों के अनुसार शुक्रवार से रविवार तक तीन दिन का समय माना जा सकता है, परन्तु समस्या यह है कि मत्ती और मर्कुस में ‘तीन दिन के बाद’ उल्लेख किया गया है। मत्ती १२ का ४० पद इस बात को और कठीन बना देता है, जहां स्पष्ट लिखा है, ‘यूनुस तीन रात दिन जल-जन्तु के पेट में रहा, वैसे ही मनुष्य का पुत्र तीन रात दिन पृथ्वी के भीतर रहेगा।’ ऐसा कोई गणित, प्राचीन या आधुनिक, नहीं है जिसके अनुसार शुक्रवार अपराह्न से रविवार सुबह तक के समय को तीन दिन और तीन रात में गणना कर सकें।

यदि यीशु की मृत्यु शुक्रवार के अपराह्न में हुई, जैसा कि अधिकांश व्यक्ति मानते हैं, तब उनका पुनरुत्थान अवश्य ही रविवार की रात में हुआ होगा, क्योंकि तब वह तीनों दिन और तीनों रात के कुछ अंश कब्र में बिताये होंगे। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि रविवार की आधी रात में उनका पुनरुत्थान हुआ था जिसके आधार पर सोमवार की सुबह पुनरुत्थान की सुबह स्थापित होता है।

प्रभु का दिन

‘क्या रविवार प्रभु का दिन नहीं है?’ कुछ लोग प्रश्न कर सकते हैं। पुन: यह विचार भी विशुद्ध रुप से कलीसिया के परम्परा पर आधारित है। इस बात के समर्थन में कोई बाइबलीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है, न हीं कोई तर्क संगत दलील। पुराने नियम के भविष्यवक्ता समय समय पर प्रभु के दिन के विषय में भविष्यवाणी किया करते थे। कभी भी उनका संकेत सप्ताह के किसी एक दिन की ओर नहीं होता था। हर समय उनका इसारा अधर्मी लोगों के लिये आने वाला न्याय और प्रभु के लोगों के लिये छुटकारा का दिन ही होता था। नये नियम में इसी के समान बहुत से सन्दर्भ मिलते हैं, विशेषकर पौलुस की चिट्ठियों में, जिनमें यीशु के आगमन और उपस्थिति की बात की गयी है।

‘प्रभु का दिन’ वाक्यांश का सिर्फ एक बार प्रकाशित वाक्य १:10 में उल्लेख किया गया है, ‘प्रभु के दिन में मैं आत्मा में था’। इसे मैं इस प्रकार लेता हूं – ‘आत्मा में मैं समय में प्रभु के दिन में पहुंच गया’। (धर्मशास्त्र में समय या स्थान में परिवर्तीत हो जाना कोई नयी बात नहीं है। प्रकाशित वाक्य के २१:10 में यूहन्ना आत्मा में बहुत उंचे पर्वत पर पहुंच गया था। इस पद के शब्दों को अनुवादकों ने आगे पिच्छे कर के इसका अर्थ परीवर्तन कर दिया है - प्रभु के दिन में मैं आत्मा में था। इस परीवर्तन से इस पद का अर्थ बदल जाता है और पाठक यह समझते हैं कि एक शनिवार या रविवार की सुबह यूहन्ना आत्मा में लीन थे। इसमें सिर्फ कलीसिया की परम्परा ही इस तरह के अनुवाद को उचित ठहरा सकती है। इसके अलावा प्रभु के दिन को रविवार से जोडने वाला अन्य कोई भी पद कहीं भी नहीं मिलता।

इसलिये इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता कि आरम्भिक कलीसिया रविवार के दिन आराधना के लिये एकत्रित होती थी। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरे नये नियम में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि शनिवार के बदले रविवार को विश्राम या आराधना के लिये उपयोग किया जाय।

नये नियम के समय में अन्य जाति द्वारा उपयोग किये गये विधियों के साथ साथ पडोसी देशों के धर्मों की रीतियों और रविवार के दिन का उपयोग भी अपना लिया गया। बडा दिन (ख्रिष्टमस) बुनियादी रुप से अविजीत सूर्य का उत्सव था और सूर्य की पूजा से सम्बन्धित था। रविवार का पालन भी इसी कडी का एक भाग हो सकता है।

प्रतिबिम्ब और यथार्थ

तो क्या हम शनिवार के दिन को अपने विश्रामदिन के रुप में मनाना आरम्भ कर दें? सेवेन्थ डे एडभेन्टिस्ट और अन्य अल्प ज्ञात सम्प्रदाय ऐसा ही कर रहे हैं।

प्रेरित पावल इसके पक्ष में नहीं था। किसी भी दिन को विशेष स्थान देने का उसने स्पष्ट शब्दों में विरोध किया था। गलातियों को उसने लिखा, ‘तुम दिनों और महीनों और नियत समयों और वर्षों को मानते हो। मैं तुम्हारे विषय में डरता हूं, कहीं ऐसा न हो, कि जो परिश्रम मैं ने तुम्हारे लिये किया है व्यर्थ ठहरे’ (४:१०,११)।

इब्रानियों के लेखक ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं, ‘क्योंकि व्यवस्था जिस में आने वाली अच्छी वस्तुओं का प्रतिबिम्ब है, पर उन का असली स्वरूप नहीं’ (इब्रा १०:१)।

अन्तिम दोनों उद्धरण एक ही मुख्य मुद्दे की ओर संकेत करते हैं। अन्य सभी यहूदी अनुष्ठानात्मक विधियों की तरह ही विश्रामदिन भी आने वाले महान यथार्थों का सिर्फ प्रतिबिम्ब ही था। हमें यथार्थ और प्रतिबिम्ब के बीच के अन्तर को समझना पडेगा। प्राकृतिक मनुष्य के लिये जिन चीजों को वह देख सकता है, सुन सकता है और स्पर्श कर सकता है, वे चीजें ही यथार्थ हैं। आत्मिक चीजें बहुत दूर की हैं, और उनका अस्तित्व प्रतिबिम्ब और छायावी अवास्तविक संसार में है। परमेश्वर और आत्मिक व्यक्ति के लिये ठीक इसके विपरीत है। जिन चीजों को हम देखते हैं, सुनते हैं और छूते हैं, वे सब आत्मिक क्षेत्र की चीजों के प्रतिबिम्ब हैं। आत्मिक क्षेत्र (अवस्था) यथार्थ है, सदा के लिये है जबकि प्राकृतिक अवस्था क्षणिक है।

बाइबल की पुरानी वाचा दृस्टीगोचर होने वाले बलिदानों, अनुष्ठानों और रसम रिवाज पर आधारित थी जो क्षणिक प्रतिबिम्ब थे। यीशु ने नयी वाचा की शुरुआत की, जो आत्मिक यथार्थ है। उन्होंने सम्पूर्णत: व्यवस्था को पूरा किया। प्रतिबिम्ब किसी वस्तु की छाया होती है, जिसमें कोई पदार्थ नहीं होता। आकार में समान होने के बावजूद भी इसे उस वस्तु से तुलना नहीं की जा सकती।

हम इस उदाहरण को परीवर्तन करके यह कह सकते हैं कि पुराने नियम की व्यवस्था और घटनायें एक तश्वीर के समान हैं। तश्वीरें अद्भूत और व्यर्थ की, दोनों होती हैं। वे आपको किसी ऐसे व्यक्ति से परीचय करा सकती हैं, जिन्हें आपने पहले कभी नहीं देखा है, अथवा किसी ऐसे व्यक्ति का स्मरण करा सकती हैं जिसे आप प्रेम करते हैं, या किसी छुट्टी या विशेष उत्सव की याद ताजा कर सकती हैं। लेकिन जिन चीजों को ये तश्वीरें दर्शाती हैं, उन चीजों के बिना इनका कोई मूल्य नहीं है। यथार्थ से तुलना करने पर भी तश्वीर कुछ नहीं लगता। जब आपके प्रिय जन पास बैठे हों तब घण्टों उनकी तश्वीरों को कोई नहीं निहारता।

नये नियम से पुराने नियम का सम्बन्ध ऐसा ही है। पुराने नियम में बलिदान के लिये तैयार मेमने प्रभु यीशु के आने वाले महान बलिदान के चित्र के रुप में बहुमूल्य थे, लेकिन अपने आप में वे मूल्यहीन थे। वे सिर्फ तश्वीर या प्रतिबिम्ब थे।

शरीर प्रतिबिम्ब है, आत्मा यथार्थ है। इजराइल के पुराने लोग प्रतिबिम्ब हैं। जो लोग परमेश्वर की आत्मा से जन्मे हैं, वे यथार्थ हैं। सांसारिक राज्य प्रतिबिम्ब हैं, परमेश्वर का राज्य यथार्थ है। निकुदेमुस शरीर में आश्चर्यकर्म होते हुए देख सकता था, लेकिन वह स्वर्ग का राज्य नहीं देख सकता था। यीशु ने उससे कहा कि यदि वह स्वर्ग के राज्य को देख सकने योग्य बनना चाहता है तो उसे परमेश्वर के आत्मा द्वारा जन्म लेना आवश्यक है।

परमेश्वर ने मूसा के द्वारा जो अनुष्ठानात्मक व्यवस्था यहूदियों को दी थी, उनका अपना कोई यथार्थ मूल्य नहीं था। जिस बात की ओर यह संकेत करता था इसका महत्व सिर्फ उतना ही था। परमेश्वर ने विभीन्न पशुओ की बलि की आज्ञा दी थी। इब्रानियों १०:४ में हम पढते हैं, ‘क्योंकि अनहोना है, कि बैलों और बकरों का लोहू पापों को दूर करे’। पशु बलि भविष्य के उस महान बलिदान की ओर संकेत कर रहे थे जिसे स्वयम् यीशु ने पूरा किया। पशु बलि प्रतिबिम्ब था, यीशु का बलिदान यथार्थ था। इसीलिये आजकल हम पशु बलि नहीं देते हैं।

विश्रामदिन के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है। यह एक करार था और परमेश्वर एवम् यहूदियों के बीच एक चिन्ह भी। निर्गमन ३१:१६ और १७ कहता है, ‘सो इस्त्राएली विश्रामदिन को माना करें, वरन पीढ़ी पीढ़ी में उसको सदा की वाचा का विषय जानकर माना करें। वह मेरे और इस्त्राएलियों के बीच सदा एक चिन्ह रहेगा, क्योंकि छ: दिन में यहोवा ने आकाश और पृथ्वी को बनाया, और सातवें दिन विश्राम कर के अपना जी ठण्डा किया।’

इब्रानियों ४:९-१२ (इसका एक भाग पहले उद्ध्रित किया जा चुका है) में ऐसा लिखा है, ‘सो जान लो कि परमेश्वर के लोगों के लिये सब्त का विश्राम बाकी है। क्योंकि जिसने उसके विश्राम में प्रवेश किया है, उसने भी परमेश्वर की नाईं अपने कामों को पूरा कर के विश्राम किया है। सो हम उस विश्राम में प्रवेश करने का प्रयत्न करें, ऐसा न हो, कि कोई जन उन की नाईं आज्ञा न मान कर गिर पड़े। क्योंकि परमेश्वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है, और जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग कर के, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है’।

कृपया इन पदों को सावधानी पूर्वक दोबारा पढें क्योंकि इस पूरे विषय को समझने के लिये यह बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।

एक बात तो स्पष्ट है कि इस विश्रामदिन का साप्ताहिक विश्रामदिन से कोई सम्बन्ध नहीं है। हमारे लिये उस आत्मिक विश्राम में प्रवेश करना और अनुभव करना आवश्यक है जिसका साप्ताहिक विश्रामदिन सिर्फ एक तश्वीर है।

आत्मिक विश्राम

अब हम इस आत्मिक विश्रामदिन के प्रकृती के विषय में विचार करेंगे।

पूरे इतिहास में संसार के सारे लोग परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिये कठीन और लम्बे समय तक परीश्रम किया है। यहूदियों ने पुराने नियम में स्थापित व्यवस्था का बहुत ही सावधानी पूर्वक विस्त्रित रुप से पालन किया है। इन्हें पालन करने के बावजूद भी जब इनके विवेक में शान्ती की अनुभुति नहीं हुई तब यहूदियों ने व्यवस्था में और बातें जोड दीं, इस आशा में कि शायद अब शान्ती उपलब्ध हो जाये। फरिसियों को सिर्फ नगदि में दशांश देने से सन्तुष्टी नहीं थी, वे अपने बगीचे के सभी सब्जियों के दशांस भी देते थे। व्यवस्था के सिर्फ इस आज्ञा का पालन करना पर्याप्त नहीं था, ‘बकरी का बच्चा उसकी माता के दूध में न पकाना’ (निर्ग २३:१९)। कोई भी रुढीवादी यहूदी अपने भोजन में एक साथ मांस और दूध का सेवन नहीं करता, यहां तक कि भोजन के तीन घण्टा तक भी नहीं, ताकि व्यवस्था भंग न हो।

स्वाभाविक है कि अन्य धर्मावलम्बी भी परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिये अथक प्रयास करते हैं।

हिन्दुओ के बहुत सारे देवी देवता हैं और उन्हें प्रसन्न करने के किये वे बहुत से रीति रिवाज का पालन करते हैं और उत्सवों का आयोजन करते हैं। उनके विभीन्न पर्व हैं जहां वे अपने देवी देवताओ को प्रसन्न करने के लिये पशु पक्षियों की बलि देते हैं । वे वाराणसी और ऐसे ही अन्य स्थलों पर तिर्थाटन के लिये जाते हैं, जिन्हें वे पवित्र मानते हैं।

मुस्लीम लोग वर्ष में एक बार पूरा महीना सूर्योदय से सूर्यास्त तक उपवास रखते हैं, और मक्का की लम्बी तिर्थयात्रा पर जाते हैं, जो कि आधुनिक यातायात के पहले महिनों या सम्भवत: वर्षों का समय लेता था। ये सब वे परमेश्वर को खुश करने के लिये करते हैं।

कठोर कैथोलिक दैनिक आराधना में सहभागि होते हैं, पवित्र और धार्मिक स्थलों की लम्बी यात्रा करते हैं, अपनी उंगलियों से अनकिनत मनका फेरते हैं, और अन्तहीन प्रार्थनाओ को दुहराते हैं, ये सब सिर्फ श्रेय पाने और परमेश्वर को खुश करने के लिये करते हैं। तिब्बती बुद्धीष्ट भी ठीक ऐसा ही करते हैं।

मेरे अधिकांश पाठक इस बात से सहमत होंगे कि ऐसे सभी गतिविधी मृत काम हैं, या शरीर के काम हैं, या हमारे अपने काम हैं, जो परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते। परमेश्वर ने अपने सभी कामों से सातवें दिन विश्राम लिया और हमें भी ऐसे सारे शरीर के कामों से विश्राम लेना आवश्यक है। न ही पुराने करार के रुप में स्थापित यहूदी व्यवस्था, या रोमन कैथोलिक रसम रिवाज, या अन्य कोई भी उत्सव ऐसे परमेश्वर को सन्तुष्ट नहीं कर सकते हैं जो हृदय को देखता हो।

तब, आत्मिक विश्रामदिन उन बाइबल आधारीत विश्वासियों के जीवन में किस प्रकार काम करेगा जो ऐसे काम नहीं करते? ऐसे लोगों का आत्मिक जीवन प्रार्थना, बाइबल अध्ययन, साक्षी देने, संगति में सहभागी होने, आर्थिक सहायता करने और सम्भवत: उपवास में व्यस्त रहता है। निश्चय ही इस तरह की गतविधियों को मृत काम नहीं कहा जा सकता है। परमेश्वर के द्वारा आज्ञा की गयी इन गतिविधियों से निश्चय ही हमें विश्राम नहीं लेना है।

यहां हम एक विरोधाभास पाते हैं। यही बाहरी गतिविधी विश्वास से भरा जीवित काम भी हो सकता है या मृत काम भी। चालीस दिन के उपवास के बाद मूसा ने परमेश्वर से बुनियादी तौर पर सम्पूर्ण धर्मशास्त्र का प्रकाश प्राप्त किया। फरिसी हरेक हफ्ता दो बार उपवास रखते थे लेकिन इससे सिर्फ उनके दण्ड में इजाफा हुआ। यीशु ने प्रार्थना की और परमेश्वर के कार्यों का शक्तिशाली प्रदर्शन हुआ। फरिसियों ने लम्बी लम्बी प्रार्थनायें कीं, फिर भी कुछ नहीं हुआ। धर्मशास्त्र पौलुस और उसके द्वारा दी गयी शिक्षा को पढने वालों के लिये आशिष का मूल स्रोत बन गया। फरिसियों के लिये यही धर्मशास्त्र उनके अनुयायियों के शिर का बोझ बन गया।

हमारे लिये भी ऐसा ही है। वही बाहरी गतिविधी जीवित भी हो सकता है और मृत भी। वह कौन सी बात है जो इसका कारण बनती है? साधारण सी बात है, यदि किसी गतिविधी का स्रोत पवित्र आत्मा की अगुवाई है तो इसमें जीवन होगा। लेकिन यही काम यदि हम अपनी शक्ति और प्रयास से आरम्भ करते हैं तो यह मृत होगा।

आप परमेश्वर को जानने की गहरी लगन और आत्मिक भूख की तृप्ती के लिये धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं तो वह आपको आशिष देंगे और आपसे मिलेंगे। लेकिन यदि आप अपना कर्तव्य समझकर पढते हैं या मसीही समाज में आप एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बनना चाहते हैं तब धर्मशास्त्र आपके लिये सिर्फ एक पाठ्यपुस्तक में सिमीत हो जायेगा। (मुझे लगता है पहले की तुलना में आज कल पाठ्यपुस्तक का स्तर बेहतर है।) ये आपके लिये सिर्फ व्यवस्था के मृत अक्षर रह जायेंगे।

आप अन्य व्यक्तियों से यीशु के विषय में बात करना चाहते हैं, क्योंकि पौलुस के समान ही आप भी मसीह के प्रेम के कारण विवश हैं और आपके पास एक बहुमूल्य चीज है जो आप उनसे साझा करना चाहते हैं। तब आप के अन्दर वास कर रहे पवित्र आत्मा अपने स्पर्श से उन्हें छुयेंगे। अथवा, आप अपने आप से जबर्दस्ती करके लोगों के बीच साक्षी देने का प्रयास करेंगे, ताकि वचन में दी गयी आज्ञा का पालन करें और अपने विवेक को सन्तुष्ट करें, और उन्हें परमेश्वर से और अधिक दूर कर दें।

अन्य विश्वासियों के साथ आपकी संगति एक ऐसा समय हो सकता है जब यीशु की उपस्थिति आपके बीच हो, या फिर ऐसा समय जब आप सिर्फ एक दूसरे से भेंट मुलाकात कर रहे हों। वचन में दोनों ही प्रकार से मिलने की बात कही गयी है। यीशु ने चेलों से कहा, ‘क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं वहां मैं उन के बीच में होता हूं’ (मत्ती १८:२०)। पौलुस ने कुरिन्थियों से कहा, ‘परन्तु यह आज्ञा देते हुए, मैं तुम्हें नहीं सराहता, इसलिये कि तुम्हारे इकट्ठे होने से भलाई नहीं, परन्तु हानि होती है (१ कुरि ११:१७)। थिस्सलुनिकियों से पौलुस ने ‘यीशु के पास अपने इकट्ठे होने के विषय में उनसे से बिनती’ की थी (२ थिस्स २:१। मुझे इस बात को कहना आवश्यक नहीं लगता कि कुछ समारोह, छोटे या बडे, परमेश्वर की उपस्थीति के कारण जीवन्त होते हैं। अन्य मृत।

प्रार्थना परमेश्वर के साथ जीवन्त संचार हो सकता है। यह एक रसम का रुप भी ले सकता है, जिसे हरेक दिन निश्चित समय पर एक कर्तव्य के तरह पूरा किया जा सके।

इन सभी बातों की कूंजी इब्रानियों के ४ अध्याय से लिये गये पद में निहीत है। ‘क्योंकि परमेश्वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है, और जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग कर के, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है।’

ऐसे काम जो हमारे प्राण या प्रकृतिक मनुष्य के द्वारा किये जाते हैं, वे हमारे अपने काम हैं, परमेश्वर के काम नहीं। ऐसे काम उच्च विचार जैसे विवेक या कर्तव्य बोध के कारण आरम्भ किये जाते हैं, या निम्न विचार जैसे लोगों को खुश करने के लिये। किसी भी तरह से ये स्वस्फुर्त रुप से ही आरम्भ किये गये होते हैं और अन्त में हमारे अपने मृत काम ही हैं।

ऐसे काम जो हमारे अन्दर की आत्मा के द्वारा आरम्भ किये जाते हैं, वे परमेश्वर के काम हैं। हम किस आधार पर इन्हें एक दूसरे से अलग कर सकते हैं? सिर्फ परमेश्वर का वचन ही इतना चोखा है जो दोनों को अलग अलग कर इनके बीच के अन्तर को स्पष्ट कर सकता है। परमेश्वर का वचन ‘मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है।’ हमें परमेश्वर के ऐसे वचन से लुकने का प्रयास नहीं, बल्कि इसे अपने हृदय में स्वागत करना चाहिये ताकि यह हमारी जांच कर सके। सिर्फ तभी हम अपने कामों से विश्राम लेकर उनके विश्राम में प्रवेश कर सकते हैं।

प्रथम आदम – विश्राम खो दिया

प्रेरित पौलुस दो आदमों की बात करता है, ‘ऐसा ही लिखा भी है, कि प्रथम मनुष्य, अर्थात आदम, जीवित प्राणी बना और अन्तिम आदम, जीवनदायक आत्मा बना’ (१ कुरि १५:४५)। हिब्रू भाषा में आदम का अर्थ मनुष्य होता है। पूरे इतिहास को सिर्फ दो लोगों की कहानी के रुप में भी देखा जा सकता है: पहला मनुष्य आदम जिसने पाप किया और अपने साथ सम्पूर्ण मनुष्य यह जाति को पाप के अधीन कर दिया, और दूसरा मनुष्य यीशु जिसने अपने जी उठने के साथ आदम के द्वारा गंवाई गयी सभी चीजों को पुनर्स्थापित किया।

आदम के द्वारा गंवाई गयी चीजों में एक चीज विश्राम भी था। आदम की अनाज्ञाकारिता के लिये परमेश्वर के द्वारा दिये गये श्राप में यह प्रमुख था। यह बात हम उत्पत्ति ३ में पाते हैं। मैं १७ और १९ पद में देखना चाहता हूं। ‘और आदम से उसने कहा, तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना उसको तू ने खाया है, इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है- - तू उसकी उपज जीवन भर दु:ख के साथ खाया करेगा: और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा; क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है, तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा’।

क्योंकि आदम शरीर की अभिलाषा के आगे झुक गया , जो कि उसकी स्त्री हव्वा और भोजन की चाहत के संकेत थे, इसी लिये उसे परमेश्वर ने श्राप दिया। इस श्राप का केन्द्रीय मुद्दा यह था कि आदम के लिये काम करना अनिवार्य हो गया। दूसरे शब्दों में काम आशिष नहीं परन्तु श्राप है।

पाप करने के पूर्व आदम निठल्ला नहीं था। हम उसे एक ऐसे व्यक्ति के रुप में देख सकते हैं जो विश्राम का उपयोग कर रहा है, सिंहासन पर बैठा है और परमेश्वर की सृष्टी पर शासन कर रहा है। परमेश्वर का काम ही आदम का काम था, सृजनात्मक और कल्पनाशील शासन तन्त्र। शरीर की अभिलाषा के आगे झुकने के कारण ऐसे उच्च पद से उसका पतन हुआ। ‘सो जब स्त्री ने देखा कि उस वृक्ष का फल खाने में अच्छा, और देखने में मनभाऊ, और बुद्धि देने के लिये चाहने योग्य भी है, तब उसने उस में से तोड़कर खाया; और अपने पति को भी दिया, और उसने भी खाया’ (उत्पत्ति ३:६)। जैसा कि हमने देखा है, शरीर और आत्मा के बीच का संघर्ष हमारे विश्राम को नष्ट कर देता है।

निठल्लापन और कठीन परिश्रम, दोनों ही आशिष नहीं हैं। हम खुशी पूर्वक एक ऐसे सृष्टी के आरम्भ को देखते हैं जहां ये दोनों चीजें आवश्यक नहीं थीं। कृषी और उद्योग दोनों ही क्षेत्रों में मशीनरी मजदूरों को विस्थापित कर रहे हैं। पैदल लम्बी यात्राओ में परीश्रम करने के बदले यातायात के साधन उपलब्ध होने से आवागमन आसान हो गये हैं। कम्प्युटर ने लम्बी लम्बी हिसाबों को बार बार दुहराने के झंझट से मुक्ति दिला दी है। इस लेख को लिखते समय भी मेरा कम्प्युटर हाथ से लिखने की थकावट की समस्या से छुटकारा देकर मेरे मस्तिष्क को अन्य सृजनात्मक काम करने में सहायता कर रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हम प्राक्रितिक अवस्था में भी विश्राम की ओर अग्रसर हो रहे हैं – लेकिन इस विषय पर और चर्चा बाद में।

आखिरी आदम – विश्राम वापस पाया

यीशु सभी गुणों और अनुभवों के सर्वश्रेष्ठ प्रगटीकरण और अवतार हैं। यदि हम विश्राम या परमेश्वर के किसी अन्य अनुभव के विषय में देखना और समझना चाहते हैं तो इसके लिये सर्वश्रेष्ठ उपाय है कि हम यीशु की ओर देखें। उनका जीवन परमेश्वर के विश्राम का सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति था।

उनके सभी काम उनके पिता की इच्छा और पूर्वाभासित ज्ञान पर आधारीत होते थे। सभी अवस्थाओ में यीशु ठीक वही काम करते थे जो वे करना चाहते थे, क्योंकि उनकी इच्छा पूर्ण रुपसे परमेश्वर की इच्छा के साथ एक थी।

यीशु शरीर की अभिलाषाओ पर पूर्ण विजय के साथ अपना जीवन जीते थे। उनका शरीर उनका सेवक था। जब पवित्र आत्मा ने ४० दिन उपवास रखने का निर्देश दिया, यीशु ने इसका पालन किया। भोजन के लिये शरीर के अनुरोध को उन्होंने ठुकरा दिया। जब चेलों को नियुक्त करने का महत्वपूर्ण समय आया, उन्होंने रात भर प्रार्थना की। शरीर द्वारा किया गया सोने का अनुरोध अनसुना कर दिया गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यीशु ने भी सहवास की सामान्य आवश्यकता महसूस की थी, लेकिन परमेश्वर के उच्च बुलाहट के कारण उनके लिये इसे पूरा करना आवश्यक नहीं था।

सम्बन्धियों, मित्रों और शत्रुओ को प्रसन्न करने की इच्छा यीशु को कभी भी परमेश्वर की इच्छा से विमुख नहीं कर सकी। परमेश्वर के निर्धारित समय से पूर्व उनकी मां ने पानी को दाखमद्य में परीवर्तन करने को कहा था। उनके भाइयों की इच्छा थी कि वह पर्व के अवसर पर यरुशलेम जायें और अपने आप को मसीह घोषणा करें। पतरस उन्हें कष्ट और मृत्यु के मार्ग से विमुख करना चाहता था। हमेशा उन्हों ने शान्त मन से पिता की इच्छा को प्राथमिकता दी, लोगों की इच्छा या उनके विरोध के भय से कभी भी विचलित नहीं हुए।

पहले से महान् और बेहतर व्यवस्था लाने के लिये बडी आसानी से शरीर उन्हें दूसरा मूसा बन जाने के लिये प्रेरित कर सकता था, या दूसरा दाउद जो अपने देश को रोम के जुवा से छुटकारा दिला सकता था। सिर्फ इजराइल जैसे छोटे क्षेत्र में अपने को सिमीत नहीं रख कर वे पौलुस की तरह ही रोम साम्राज्य की यात्रा कर सकते थे ताकि अपने सन्देश का दूर दूर तक प्रचार कर सकें। बढई के बेंच के अन्धेरे भविष्य से निकलकर वे समय से पूर्व ही अपनी सेवकाई आरम्भ कर सकते थे ताकि बहुतों तक पहुंच सकें। लेकिन ऐसा कोई भी निर्णय लेने के लिये घमण्ड उन्हें बाध्य नहीं कर पाया। वे अपने पिता की इच्छा के अन्तरगत विश्राम कर रहे थे।

आत्मा में जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को, जो शरीर की अभिलाषाओ पर विजय पा चुका है, उसे परमेश्वर को खुश करने के लिये किसी नियम की आवश्यकता नहीं है। एक निश्चीत समय निर्धारित किये बिना ही वह अपने मन की उत्कट इच्छा के कारण किसी भी समय परमेश्वर के साथ प्रार्थना में समय व्यतीत कर सकता है। अपने हृदय के प्रेम और उदारता के कारण वह नियमीत दशांश नहीं देकर आर्थिक सहायता करेगा। पवित्र आत्मा की अगुआई के कारण वह किसी निश्चित समय और स्थान के बिना ही किसी विश्वासी से संगति कर लेगा।

नियम और कानून विश्वास में नवजात् शिशुओ और बच्चों के लिये आवश्यक हैं, लेकिन परमेश्वर में परीपक्वता का एक स्थान है, जहां विश्वासी विश्राम में प्रवेश करते हैं। ‘परमेश्वर के लोगों के लिये इस विश्राम में प्रवेश करना बाकी है’

क्या यीशु सदा पूर्ण विश्राम में जीते थे? क्या उनके ललाट् पर कभी पसीना नहीं आता था? करीब करीब अपने पूरे जीवन भर अपने पिता के साथ उनका अटुट सम्बन्ध था। लेकिन एक समय ऐसा आया जब यह अटुट सम्बन्ध टुट गया। पाप के अन्धेरे बादल – उनके पाप नहीं, वरन हमारे- उन के और परमेश्वर के बीच आ गये थे। जैसे जैसे यह डरावना दिन नजदीक आ रहा था, पिता की इच्छा और उनकी इच्छा के बीच टकराव आरम्भ हो गया। ‘हे पिता यदि तू चाहे तो इस कटोरे को मेरे पास से हटा ले, तौभी मेरी नहीं परन्तु तेरी ही इच्छा पूरी हो। और वह अत्यन्त संकट में व्याकुल हो कर और भी हृदय वेदना से प्रार्थना करने लगा; और उसका पसीना मानो लोहू की बड़ी बड़ी बून्दों की नाईं भूमि पर गिर रहा था’। (लूका २२:42,44)। उसका पसीना पानी नहीं परन्तु लहू था।

इस प्रकार यीशु ने आदम का श्राप (और अन्य सभी श्राप) अपने उपर ले लिया ताकि हम परमेश्वर के विश्राम का आशिष प्राप्त कर सकें और उसके साथ बैठ कर उसके सिंहासन में भागीदार बनें।

हम कब विश्राम में प्रवेश कर सकते हैं?

अब हमें यह प्रश्न करना आवश्यक है कि हम कब इस विश्राम में प्रवेश कर सकते हैं ? आइये हम चौथी आज्ञा को फिर से पढें। तू विश्रामदिन को पवित्र मानने के लिये स्मरण रखनाछ: दिन तो तू परिश्रम कर के अपना सब काम काज करना. ..’ यह एक नहीं, परन्तु दो आज्ञायें हैं! पहली आज्ञा है ‘विश्रामदिन को स्मरण रखना’। दूसरी आज्ञा है ‘छ: दिन तो तू परिश्रम कर के ’। इसके बाद इसकी व्याख्या दी गयी है, क्योंकि ‘छ: दिन में यहोवा ने आकाश, और पृथ्वी, और समुद्र, और जो कुछ उन में है, सब को बनाया, और सातवें दिन विश्राम किया’

परमेश्वर के उद्देश्य के अनुसार सभी चीजों का एक समय निर्धारीत है। विभीन्न व्यक्तियों के लिये समय है, समुदायों के लिये समय है, देशों के लिये समय है और सम्पूर्ण विश्व के लिये भी समय है। दो हजार वर्ष पूर्व जब यीशु इस धरती पर आये, जीवन व्यतीत किया, उनकी मृत्यु हुई, जी उठे और पिता के पास चले गये, वह मुक्ति के सुसमाचार का समय था। उन्हों ने चेलों को आज्ञा दी कि सारे संसार में जाओ और सारी सृष्टी में सुसमाचार प्रचार करो। समपूर्ण विश्व के लिये सुसमाचार के युग का आरम्भ हो चुका था। लेकिन बहुत से देशों, समुदायों और व्यकतियों के लिये वह समय नहीं आया था। धीरे धीरे पिछले दो हजार वर्षों में विश्व के हर कोने में सुसमाचार पहुंच गया है, फिर भी बहुत से व्यक्ति अभी भी यीशु का नाम नहीं सुन पाये हैं।

जिस प्रकार सुसमाचार का युग आरम्भ हुआ था, और हरेक व्यक्ति के लिये उसे व्यक्तिगत रुप से अनुभव करने का अवसर था, ठीक उसी प्रकार विश्राम दिन में प्रवेश करने का समय भी है। सर्वप्रथम हम इस सन्देश के व्यापक घोषणा के समय की चर्चा करेंगे, और तब इसके व्यक्तिगत अनुभव के समय की चर्चा करेंगे।

व्यापक पूर्ति

इब्रानियों ४:९ में स्पष्ट लिखा है, ‘सो जान लो कि परमेश्वर के लोगों के लिये सब्त का विश्राम बाकी है’। लेखक को लगता है यह भविष्य में होने वाली घटना है। रोमियों ८:२०-२३ में, पौलुस भी इस बात की चर्चा करता है कि सारी सृष्टी प्रसव वेदना में दुखी है और भविष्य में एक ऐसे समय की प्रतिक्षा कर रही है जब उसे इस बन्धन से छुटकारा मिलेगा और परमेश्वर के पुत्रों के महिमीत स्वतन्त्रता में सहभागी होंगे। यह कब पूरा होगा? प्रेरित पतरस ने अपने दूसरे पत्र में समय के विषय में एक निश्चीत बात बतायी है। ‘हे प्रियों, यह एक बात तुम से छिपी न रहे, कि प्रभु के यहां एक दिन हजार वर्ष के बराबर है, और हजार वर्ष एक दिन के बराबर हैं’। छ दिन का अर्थ है छ हजार वर्ष। एक दिन का अर्थ है एक हजार वर्ष। आदम के समय से अब तक धर्मशास्त्र में उल्लेखित छ हजार वर्षों का परमेश्वर का गणना पूरा हो चुका है। अभी हम सातवें हजार वर्ष के आरम्भ में हैं। प्रकाशित वाक्य के २० अध्याय में एक ऐसे समय के विषय में लिखा है जब शैतान एक हजार वर्षों के लिये बांधा जायेगा। उत्पत्ति के पुस्तक में उल्लेखित सृष्टी के छ दिन मनुष्य के छ हजार वर्षों के परीश्रम और एक हजार वर्षों के विश्रामदिन का चित्र है। और अधिक जानकारी के लिये Bible Chronology (बाइबल क काल क्रम) पढें।

छ और इसी तरह के और अंक, जैसे ६००, ६०००, और ६६६, धर्मशास्त्र में ये सब मनुष्य और उसके कार्यों से सम्बन्धित हैं। जहाज में प्रवेश करते वक्त नोआ की उम्र ६०० वर्ष थी। तब उसके परीश्रम का लम्बा वक्त समाप्त हो गया और वह जहाज में प्रवेश कर गया जो विश्राम स्थल था। उसके नाम नोआ शब्द का अर्थ ही विश्राम है। जल प्रलय के बाद जहाज से निकलकर उसने परमेश्वर के उद्देश्य और नये समय के नये युग में प्रवेश किया।

इजराइल के तीन महान् राजा, शाउल, दाउद और सुलैमान, तीनों ही कठघरे में खडा हो सकते हैं। तीनों ने ही चालीस चालीस वर्ष तक शासन किया और प्रत्येक एक एक ऐतिहासिक समय को दर्शाते हैं। शाउल अब्राहम के जन्म से लेकर यीशु के जन्म तक के यहूदी काल को प्रतिबिम्बीत करता है। शाउल के तरह ही यहूदियों को भी अस्वीकार कर दिया गया था। दाउद कलीसिया के युग को दर्शाता है जो अपना समय अभी पूरा ही किया है। दाउद ‘प्रभु का प्रिय’ था (उसके नाम का अर्थ यही है), लेकिन वह युद्ध पसन्द व्यक्ति था। सुलैमान उस काल को दर्शाता है, जिसमें हम प्रवेश करने जा रहे हैं। मेरा मानना है कि शान्ती इस युग की विशेषता होगी – जो उसके नाम का अर्थ है – साथ ही बुद्धी, समृद्धी और दिर्घायु – तीन वरदान जो परमेश्वर ने उसे दिये थे। उसके अपने ही शब्दों में , ‘परन्तु अब मेरे परमेश्वर यहोवा ने मुझे चारों ओर से विश्राम दिया है और न तो कोई विरोधी है, और न कुछ विपत्ति देख पड़ती है’। (१ राजा ५:)। हिब्रू भाषा में लिखा है, ‘शैतान नहीं है’, जो प्रकाशित वाक्य की तश्वीर को और स्पष्ट कर देता है जहां शैतान को कैद किया गया है। (शाऊल और दाऊद और दाऊद और सुलैमान देखें।)

मानव जाति के साथ परमेश्वर के वर्ताव के आधार पर धर्मशास्त्र के विद्यार्थियों ने समय को विभीन्न युगों में विभाजीत किया है। व्याख्या के विवरण में अन्तर है लेकिन मुख्य रुप रेखा समान है। आदम से नोआ तक मनुष्य विवेक के आधार पर जीवन व्यतीत करता था। कोई व्यवस्था या शासन पद्धति नहीं थी। नोआ से लेकर मूसा तक पुर्खाओ का शासन था। मूसा ने व्यवस्था युग आरम्भ किया, जो यीशु के आगमन तक रहा, फिर यीशु ने अनुग्रह का युग आरम्भ किया। इसके बाद परमेश्वर के राज्य का युग या विश्राम का युग आरम्भ होता है, जिसकी चर्चा हम अभी कर रहे हैं। हरेक युग मनुष्य के साथ परमेश्वर के वर्ताव और उनके उद्देश्यों में विकाश को दर्शाता है, साथ ही बडे अवसर के दिन को भी।

व्यक्तिगत विश्राम

तो हम विश्रामदिन की पूर्ति के युग में जी रहे हैं। जो लोग हमसे पहले गुजर चुके हैं, उनकी तुलना में हम ऐसे युग में जी रहे हैं, जिसमें हमें बडे प्रकाश और आत्मिक अवसर के विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इससे मेरे कहने का तात्पर्य कदापि ऐसा नहीं है वर्तमान विश्वासी विगत के विश्वासियों से बेहतर हैं। क्या हम ऐसा कह सकते हैं कि हम मूसा, दाउद, यशाउआह, पतरस, पौलुस और यूहन्ना से बेहतर हैं क्योंकि हमारा जन्म उनके बाद हुआ है? कभी नहीं। सभी जानते हैं कि ऐसा नहीं है। केवल हम ऐसे युग में जी रहे हैं जिसमें बडे प्रकाश और अवसर उपलब्ध हैं। परमेश्वर और पवित्र आत्मा से भरे लोग अपने समय के प्रकाश से आगे जीते थे, जबकि शरीर के अभिलाषा में जीने वाले लोग, वे जो भी दाबी करें, परमेश्वर के बुनियादी बर्तावों से भी अनभिज्ञ हैं। हरेक युग और स्थान में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो दिये गये आत्मिक अवसर को स्वीकार करते हैं। दूसरे ऐसे लोग होते हैं जो अपने समय और परिवेश से बहुत आगे और बहुत उंचाई तक पहुंच जाते हैं। और कुछ लोग प्राप्त अवसरों की अनदेखी कर देते हैं और आंख बन्द करके इस बात पर भरोसा कर लेते हैं कि वे अब्राहम के सन्तान हैं अन्त में सब भला ही होगा।

हनोक इतिहास के आरम्भ में पैदा हुआ, फिर भी वह परमेश्वर का एक अद्भूत दास था। वह एक ऐसा व्यक्ति था, ‘जो परमेश्वर के साथ साथ चलता था; फिर वह लोप हो गया क्योंकि परमेश्वर ने उसे उठा लिया’। मूसा शारीरिक रुप से व्यवस्था के युग के आरम्भ में पैदा हुआ था। आत्मा में क्या हम इस बात पर शंका कर सकते हैं कि जो व्यक्ति इतनी बुद्धिमानी से परमेश्वर के लोगों पर शासन कर रहा था, वह स्वयम् परमेश्वर के राज्य के युग में नहीं जी रहा था?

हम अपने अनुभवों में पिछले छ हजार वर्षों के इतिहास की उपेक्षा करके शिघ्रातिशिघ्र परमेश्वर के विश्राम दिन में प्रवेश नहीं कर सकते। मेरा विश्वास है कि आत्मिक और शारीरिक, दोनों ही प्रकार से परमेश्वर के लोग बचपन, किशोरावस्था से होकर परीपक्वता तक पहुंचते हैं। हम सिनै पर्वत पर प्राप्त व्वस्था, मरूभूमी में भटकना, कनान पर आक्रमण, दाउद और सुलैमान के विजय, बाबुल में बंधुआई और उसके बाद परमेश्वर के पुत्र का जन्म, इनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हम पुराने नियम को छोडकर सिधा नये नियम में नहीं जा सकते। हमारे लिये विश्राम में प्रवेश करने के पहले छ दिन परीश्रम करना आवश्यक है।

क्या आप थके बिना विश्राम करना चाहेंगे? जब बुजुर्ग दादा दादी लम्बी यात्रा के बाद आपके घर आते हैं, आप बिना देरी किये उनके पैरों की मालिश आरम्भ कर देते हैं। लेकिन जब एक स्वस्थ युवा मेहमान सुबह आपके घर आता है तो शायद ही आप उसे आराम करने का अनुरोध करेंगे। विश्राम उन लोगों के लिये है जो कठीन परीश्रम करने से थक चुके हैं। यीशु के कहे ये सुन्दर शब्द कितने सटीक हैं, ‘हे सब परिश्रम करने वालों और बोझ से दबे लोगों, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा’ (मत्ती ११:२८)।

एक बार फिर इब्रानियों का चौथा अध्याय हमें समझने में सहायता करता है। ७ वां पद कहता है, ‘तो फिर वह किसी विशेष दिन को ठहराकर इतने दिन के बाद दाऊद की पुस्तक में उसे आज का दिन कहता है, जैसे पहिले कहा गया, कि यदि आज तुम उसका शब्द सुनो, तो अपने मनों को कठोर न करो्’। आखिर में जब आप स्वयम् अपने लिये परमेश्वर की आवाज सुनते हैं, तभी आप उससे कोई आशिष प्राप्त कर सकते हैं। ११ पद कहता है, ‘सो हम उस विश्राम में प्रवेश करने का प्रयत्न करें’। विश्राम में प्रवेश का मार्ग परीश्रम है, नींद नहीं।

निष्कर्ष

हमने देखा है कि साप्ताहिक विश्रामदिन (शनिवार) का पालन करने का आधार परमेश्वर और यहूदियों के बीच एक विशेष करार था। इसे पालन करने वालों के लिये बडी बडी आशिषें थीं और इसे भंग करने वालों के लिये कडी सजायें। रविवार को पवित्र दिन के रुप में मानना यहूदी मत से मूर्ति पूजा की ओर लौटने जैसा ही है। यहूदी विश्राम हमारे लिये आत्मिक विश्राम की तश्वीर है। उस विश्राम का समय अभी है। छ दिन मनुष्य के छ हजार वर्षों के कठीन परिश्रम भरे समय को दर्शाते हैं, जो अभी समाप्त हो चुके हैं और हम परमेश्वर के दिन के प्रवेश द्वार पर खडे हैं – परमेश्वर के विश्राम दिन में।

हम एक विशेष अवसर के युग में जी रहे हैं। विगत के पुस्ताओ के लिये जो सत्यता गुप्त रखे गये थे, हमारी पुस्ता में उन्हें प्रगट कर दिया गया है। हमारे सामने स्वर्ग में एक दरवाजा खोल दिया गया है और तुरही की आवाज में कोई बुला रहा है, ‘उपर आ जाओ’। आत्मा और दुल्हिन कहते हैं, ‘आ जाओ’। हम अविश्वास, भय और शंका को दरकिनार करके, हमारे लिये तैयार किये गये लक्ष्य जो परमेश्वर की पूर्णता है, पाने के लिये आगे बढ सकते हैं, या हम अपनी परम्पराओ से चिपके रहकर प्रकाश को अस्वीकार कर सकते हैं।

अनुवादक - डा. पीटर कमलेश्वर सिंह

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