क्या बाइबलको शाब्दिक रुप में लेना उचित है?

परिचय

क्या हमारे लिए बाइबल के एक एक शब्द को अक्षरस: लेना ठीक है? क्या परमेश्वर ने सिर्फ़ छ दिनों में ब्रह्माण्ड की रचना पूरी कर दी? क्या नूह के समय के जलप्रलय में सारा पृथ्वी पानी से भर गया था और जहाज पर सुरक्षित जीवित प्राणियों के अतिरीक्त सभी जीव जन्तुओं का नाश हो गया था? क्या बाबेल के गगनचुम्बी मिनार के निर्माण के समय तक सभी पृथ्वी वासी एक ही भाषा बोलते थे?

क्या हमें यीशु के सभी वचनों को शाब्दीक अर्थ में लेना ठीक है? क्या हमें यीशु का मांस खाना और उसका लहू वास्तवमें पीना चाहिये? क्या वह शाब्दिक अर्थ में सशरीर फिर आयेंगे?

क्या हमें प्रकाशितवाक्य में उल्लिखीत भविष्यवाणियों को अक्षरस: लेना उचित है? क्या आकाश से असली तारे गिरेंगे? क्या धरती का एक तिहाई भाग जलकर खाक हो जायेगा? क्या सियोन पर्वत पर १४४००० व्यक्ति जमा होंगे? क्या ६६६ की संख्या मनुष्यों के माथे पर वास्तव में लिखी जायेगी?

इस लेख में मैं इनमें से कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न करूँगा।

नूह के समय का जलप्रलय

उत्पत्ति के पुस्तक के छठे अध्याय से आठवें अध्याय तक जल प्रलय का वर्णन मिलता है। उल्लिखित विवरण के अनुसार नूह के साथ साथ उसके परीवार के सात और सदस्य एवम् बडी संख्या में पशु पक्षी एक बहुत बडे जहाज पर सवार थे और सम्पूर्ण धरती पर व्याप्त इस जल प्रलय से सिर्फ यही सुरक्षित बचे थे ।

क्या इस घटना को हम अक्षरस: ऐतिहासिक तथ्य के रूप में ले सकते हैं और यह विश्वास कर सकते हैं कि धर्मशास्त्र बाइबल में जैसा लिखा है, वैसे ही सभी घटनायें घटी थी या हमें अन्य प्रकार की व्याख्या की आवश्यकता है? इस घटना को हुबहु लेने में जो समस्यायें सामने आ सकती हैं, हम उनपर विचार करेंगे।

नूह और उसके परीवार किस प्रकार इतनी बडी संख्या में पशु पक्षियों को जहाज पर ले जा सके थे? क्या उत्तरी ध्रूब के भालु आर्कटिक तैर कर आये थे और गये थे? क्या तिब्बत के दोनों याक रास्ते मे पडने वाले मरूभूमि की गर्मी को सह गये थे? क्या अस्ट्रेलिया से आये कंगारुओं की जोडी ने विभीन्न द्वीपों को उछल कर पार कर लिया था? फिर किवि कैसे आये थे? क्या ये सभी पशु, पक्षी, कीडे मकोडे, महीनों लम्बी यात्रा आश्चर्यकर्म द्वारा पुरी की और ठीक जल प्रलय के पूर्व सन्ध्या पर जहाज पर पहुँच गये थे?

उन पशु पक्षियों के विषय में क्या कहेंगे जो विश्व के अन्य देशों में बहुतायत से पाये जाते हैं लेकिन मध्यपूर्व में नहीं रहते? हाथी, जिराफ, दरीआइ घोडा, गैंडा, बाघ, बन्दर और बहुत से अन्य जानवर? बाइबल में इनमें से किसी का भी उल्लेख नहीं मिलता। क्या ये सब पशु सैकडों या हजारों माइल की यात्रा अलौकिक निर्देश के फलस्वरुप पूरा कर सके और बर्षा आरम्भ होने के ठीक पहले जहाज पर प्रवेश पाने के लिये पहुँच गये थे?

उत्पत्ति में वर्णित विवरण के अनुसार पशु पक्षि के साथ नूह के परीवार ने करीब एक वर्ष जहाज पर व्यतीत किया था। सम्मिलित पशु पक्षियों की संख्या का अनुमान यही करीब २००० से लेकर ३५००० तक लगाया जाता है। परमेश्वर ने नूह को सभी के लिये भोजन का प्रबन्ध करने का आदेश दिया था (उत्पत्ति ६:२१)। नूह और उसके परीवार ने कैसे २००० पशु पक्षियों के लिये भोजन का बन्दोबस्त किया और एक वर्ष तक सुरक्षित रखा? इन सब में एक वर्ष के लिये शेर, बाघ और तेंदुओं के लिये मांस का बन्दोबस्त भी करना था। उन्होंने कैसे सब व्यवस्था की होगी, जमा किया होगा और ताजा बनाये रखा होगा? निश्चय ही यह बहुत बडी जिम्मेदारी थी।

क्या ये सभी पशु, पक्षी, सरीसृप और कीडे मकोडे नूह और उसके उसके परीवार के साथ जहाज पर पूरे एक वर्ष रहे थे? क्या शेर, बाघ और तेंदुए अपनी सहनशक्ति छोडकर भेंड, बकरी, बैल, भैंस और हिरण के स्वादिष्ट गन्ध से आकर्षित नहीं होते थे? या उन्हें पूरे समय तक सुरक्षित पिंजडों में रखा गया था? बिना किसी कसरत के? और कया सरीसृप, सर्प और घडियाल से उन्हें कोई समस्या नहीं होती थी? दैनिक आश्चर्यकर्मों की अविश्वसनीय शृङ्खला ही इस बडे समूह को एक साथ मृत्यु और खूनखराबा से बचाकर शान्ती और सद्भाव में रख सकता था।

क्या यह सम्भव है कि सभी पर्वतों के ऊपर २० फीट पानी भर गया था? यदि ऐसा हुआ था तो इतने बडे परिमाण में पानी कहाँ से आया था और कहाँ गया? और विश्वव्यापी रूप में हाल ही में घटी इस व्यापक घटना का भौगर्भिक प्रमाण कहाँ है?

कुछ लोगों के विचार में जल प्रलय की घटना सिर्फ स्थानीय स्तर पर घटी थी और इसका प्रभाव पूरी पृथ्वी पर नहीं था। मध्य पूर्व में और पृथ्वी के अन्य भागों में अवश्य बडे परिमाण में बाढ का प्रकोप हुआ था। विभिन्न संस्कृतियों में इनका वर्णन मिलता है। इसमें कोई शंका नहीं कि जल प्रलय हुआ था और बाइबल में उल्लेखित घटना का आधार भी यही है। स्थानीय जलप्रलय कुछ समस्याओं का समाधान कर उन्हें समझने में आसान कर देता है, लेकिन तब हमारे सामने यह बडा प्रश्न खडा होता है कि जहाज पर इतनी बडी संख्या में पशु पक्षि जमा करने का औचित्य क्या था जबकि पडोस में कुछ सौ माइलों की दूरी पर एसिया और अफ्रिका में हजारों की संख्या में सभी पशु पक्षि मौजूद थे?

उत्पत्ति ६:६,७ में देखें: “और यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया, और वह मन में अति खेदित हुआ। तब यहोवा ने सोचा, ‘कि मैं मनुष्य को जिसकी मैं ने सृष्टि की है पृथ्वी के ऊपर से मिटा दूंगा; क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या रेंगने वाले जन्तु, क्या आकाश के पक्षी, सब को मिटा दूंगा क्योंकि मैं उनके बनाने से पछताता हूं’।” ये पद विश्वव्यापी जलप्रलय की ओर संकेत करते हैं, न कि किसी स्थानीय बाढ की ओर।

वेबसाइट Problems with a Global Floodमें उत्पत्ति में वर्णन किये गये जलप्रलय को शाब्दिक रूप में लेने से जो कठीनाईयां सामने आती हैं उनकी लम्बी फेहरिस्त उपलब्ध है।

ऐसे वेबसाइट जो उत्पत्ति के वर्णन पर विश्वास करते हैं, जलप्रलय की घटना का अक्षरस: व्याख्या उपलब्ध कराते हैं। मैं चाहुँगा आप इन वेबसाइट्स पर जायें, सर्च करें, उनका अध्ययन करें और अवश्यक समझें तो दोनों ही पक्ष के तर्क वितर्क सुनें। इनमें से कुछ वेब साइट्स का मानना है कि जल प्रलय के पहले तक पूरी धरती एक ही महादेश के रुप में थी और जलप्रलय के समय इसका विभाजन होकर विभीन्न महादेश बना और आज के स्वरूप में आया। वैज्ञानिक विश्वास करते हैं कि ऐसा २० करोड वर्ष पहले हुआ था।

जलप्रलय की घटना तभी अक्षरस: सत्य हो सकती है जब परमेश्वर ने बडे पैमाने पर शृङखलाबद्ध असाधारण आश्चर्यकर्म किये हों।

इस घटना का शाब्दिक वर्णन आधुनिक विज्ञान से मेल नही खाता, लेकिन यह आत्मिक सत्यता से भरपूर है। यह पाप पर परमेश्वर के न्याय का चित्रण है और यह दर्शाता है कि जो उसके वचन सुनते और पालन करते हैं वे सब जहाज में प्रवेश पाकर मुक्ति पाते हैं, जो यीशु हैं।

सृष्टि

उत्पत्ति का पहला अध्याय संसार की सृष्टि का वर्णन करता है।

आरम्भिक शब्द हैं, “आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की।” यह पहले दिन पूरा हुआ था। सोलहवें पद में हम पढते हैं, “तब परमेश्वर ने दो बड़ी ज्योतियां बनाईं; उन में से बड़ी ज्योति को दिन पर प्रभुता करने के लिये, और छोटी ज्योति को रात पर प्रभुता करने के लिये बनाया: और तारागण को भी बनाया।” यह चौथे दिन पूरा हुआ था। इसका अर्थ यह हुआ कि पृथ्वी की सृष्टि और सूर्य, चन्द्रमा और तारागण की सृष्टि के बीच तीन दिनों का अन्तर था।

क्या ये तीनों दिन सिर्फ २४ घण्टे के दिन थे या इससे लम्बी अवधि वाले दिन थे? हिब्रू शब्द ‘योम’ हिन्दी शब्द ‘दिन’ के समान ही २४ घण्टे का समयावधि दर्शाता है। आपने ‘योम किपुर’ शब्द अवश्य सुना होगा, जिसका अर्थ है ‘पापमोचन का दिन’। योम शब्द दिन के समान ही लम्बी समयावधि के लिये भी उपयोग किया जा सकता है जैसा कि ‘योम यहवे’ अर्थात् ‘परम प्रभु का दिन’। लेकिन उत्पत्ति १ में हरेक दिन परमेश्वर का काम समाप्त होने पर हम एक ही वाक्यांश दुहराया गया पाते हैं, “तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहिला (दूसरा, तीसरा ...) दिन हो गया।” इसमें कोई शंका नहीं है कि ‘योम’ शब्द सिर्फ २४ घण्टे के दिन के लिये ही उपयोग किया गया है।

इस बात को हम जिस दृष्टिकोण से भी देखें, यह विज्ञान से मेल नहीं खाती। खगोलविदों के अनुसार दूसरे तारे सूर्य के बहुत पहले से मौजूद थे और पृथ्वी भी सूर्य के पहले किसी भी तरह अस्तित्व में नहीं आ सकती थी। यदि दिन लम्बे समय का द्योतक है तो सूर्य और तारों के अस्तित्व में आने के बहुत पहले से पृथ्वी का अस्तित्व था। यदि एक दिन में सिर्फ २४ घण्टे ही होते थे तो सभी चीजें प्रभावकारी रूप में उसी समय अस्तित्व में आयीं।

ब्रम्हाण्ड की उम्र भी एक समस्या है।

वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्माण्ड की उम्र १३ अरब वर्ष है और हमारा सौरमण्डल (सूर्य, पृथ्वी और विभिन्न ग्रह) साढे चार अरब वर्ष पुराना है। खगोलविद यह भी बताते हैं कि सबसे दूर अवस्थित तारा से उत्सर्जित प्रकाश को इस धरती पर पहुँचने में ९अरब वर्ष लगा है। भूगर्भशास्त्री बताते हैं कि पृथ्वी पर पाये जाने वाले सबसे पुरने चट्टान की उम्र ४ अरब २८ करोड वर्ष है।

उत्पत्ति ५:१-२८ में आदम से लेकर नूह तक सभी पूर्वजों की उम्र दी गयी है। उत्पत्ति ११:१०-२६ में इब्राहिम तक वंशावली दी गयी है। बाइबल के विद्यार्थी इन वंशावलियों एवम् अन्य श्रोतों की सहायता से आदम के जन्मतिथी की गणना की है। सभी गणना करीब ४००० वर्ष ईसापूर्व दर्शाते हैं। यदि हम बाइबल के सभी वचनों को अक्षरस: लेते हैं तो पृथ्वी, और वास्तव में समूचे ब्रहमाण्ड की उम्र ६००० वर्ष होती है।

वैज्ञानिक बताते हैं कि ब्रह्माण्ड १३ अरब वर्ष पुरानी है। बाइबल अक्षरस: लेने पर ६००० वर्ष बताती है, जो बहुत बडा अन्तर है।

सृष्टी की कहानी को हूबहू लेना आधुनिक विज्ञान से मेल नहीं खाता, विशेषकर समय रेखा से। फिर भी यह वर्णन अन्य संस्कृतियों और धर्मों में उल्लेख किये गये किम्बदन्तियों की तुलना में उत्तम और प्रेरणादायक है। जब हम इसे हमारे अन्दर होने वाली परमेश्वर की नयी सृष्टि के चित्रण के रूप में पढते हैं तो आत्मिक सत्यता से भरपूर पाते हैं। Creation and Evolution में मैंने इस विषय पर लिखा है।

बाबेल

आर्कबिशप अस्शेर के अनुसार बाबेल की मीनार २२४२ ईसापूर्व में बनी थी, जलप्रलय के करीब २०० वर्षों के बाद। उत्पत्ति ११:१ के अनुसार, “सारी पृथ्वी पर एक ही भाषा, और एक ही बोली थी।” बाबेल की मीनार के बाद सभी लोग अलग अलग भाषा बोलने लगे थे।

पुरातत्ववेत्ता कहते हैं कि मिश्र के कुछ चित्रलेख ईसापूर्व २७ वीं सदी के हैं और कुछ सुमेरियन लेखौट २६ वीं सदी ईसापूर्व के, तो कुछ कनानी लेख २५ वीं सदी ईसापूर्व के। दूसरे शब्दों में बाबेल से पहले ही बहुत सी भाषायें अस्तित्व में थीं।

उनका कहना है (Oldest civilisations देखें) मेसोपोटामिया की सभ्यता ३५०० ईसापूर्व अस्तित्व में थी, सिन्धु घाटी की सभ्यता ईसापूर्व ३३०० में और चीनी सभ्यता भी ईसापूर्व ३३०० में अस्तित्व में थी। यदि ये तारिख सही हैं तो बाबेल के सैकडों वर्ष पहले विभीन्न भाषायें अवश्य विद्यमान थीं।

वैज्ञानिक यह कहते है कि हजारों वर्ष पहले मनुष्य पृथ्वी के विभीन्न भागों में जा बसे थे, न कि एक ही जगह जमा थे ताकि सब मिलकर बाबेल की मीनार का निर्माण कर सकें। यदि ऐसा ही था तो मध्यपूर्व में होने वाली कोई भी घटना विश्व के दूसरे भागो मे अन्य भाषायें बोलने वाले लोगों को प्रभावित नहीं कर सकती थी।

बाबेल की घटना को अक्षरस: लेना स्पष्ट रूपसे आधुनिक पुरातत्व शास्त्र और विज्ञान के विपरीत है: लेकिन फिर हमारे बीच एक ऐसा विषय है जो आत्मिक सत्यता से भरपूर है और पूरे बाइबल में व्याप्त है। बेबिलोन जो हिब्रू शब्द बाबेल का ग्रीक रूप है, मनुष्य के अपने बल पर परमेश्वर तक पहुँचने के प्रयत्न का प्रतिनिधीत्व करता है और प्रकाशित वाक्य में अत्यन्त ही भ्रष्ट उत्कर्ष तक पहुँचता है। ‘बेबिलोन’ नामक पुस्तिका में मैंने विस्तार से इसका वर्णन किया हे।

आश्चर्यकर्म

क्या मैं विश्वास करता हूं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान् हैं? हाँ, मैं करता हूं।

क्या मैं विश्वास करता हूं कि परमेश्वर कुछ भी कर सकते हैं? नहीं। बाइबल बताती है, “परमेश्वर झूठ नहीं बोल सकते”। मैं यह भी विश्वास करता हूं कि वह “गलत साक्षी नहीं दे सकते”। क्या परमेश्वर शाब्दिक २४ घण्टे की अवधी वाले छे दिनों में धरती की रचना कर सकते थे? हाँ, कर सकते थे, लेकिन इसके साथ साथ वह भूगर्भीय, खगोलीय और विकाशवादी प्रमाण नहीं दे सकते थे कि पृथ्वी अरबों वर्ष पुरानी है, जबकि वास्तव में इसकी उम्र कुछ हजार वर्ष ही हैं। यह नौवी आज्ञा का गम्भीर उल्लङ्घन होता जिस में लिखा है, “तू किसी के विरुद्ध झूठी साक्षी न देना।” (निर्गमन २०:१६)

क्या मैं आश्चर्यकर्मो पर विश्वास करता हूँ? हाँ! शत्प्रतिशत्! बाइबल में बहुत से आश्चर्यकर्मों का विवरण मिलता है। पुराने नियम में मूसा और यहोशू के समय में और फिर एलिया और एलिशा के समय में परमेश्वर ने बहुत से आश्चर्यकर्म किये थे। इनके अलावा किसी और आश्चर्यकर्म का जिक्र नहीं मिलता। नये नियम में यीशु और उनके चेलों ने बहुतसे आश्चर्यकर्म किये थे, विशेषकर रोगियों की चङ्गाई। ऐसे ही आश्चर्यकर्म आज कल भी हम में से बहुतों ने देखा है या कम से कम सुना तो अवश्य है। बाइबल के समय या आजकल परमेश्वर अधिकतर अपने ही बनाये विग्यान के नयमों के अन्तरगत ही काम करते हैं। कभी कभी, जब उनकी ईच्छा होती है तब, परमेश्वर इन नियमों को तोडकर भी आश्चर्यकर्म करते हैं।

कभी कभी परमेश्वर दण्ड भी देते हैं। यीशु ने युद्ध, अकाल, महामारियाँ और भूकम्प की चेतावनी दी थी, लेकिन ये सब प्राकृतिक विपत्तियां हैं जो विज्ञान के नियमों के अनुसार ही आती हैं। कोभीड १९ परमेश्वर का दण्ड हो सकता है, लेकिन यह किसी भी प्रकार का आश्चर्यकर्म नहीं है। यह विशुद्ध प्राकृतिक घटना है।

परमेश्वर के आश्चर्यकर्म मुख्यतया छोटे स्तर पर होते हैं और बहुत कम लोग ही देख पाते हैं। कुमारी कन्या से जन्म लेने की घटना का सिर्फ मरीयम और युसुफ (और शायद जिब्राईल स्वर्गदूत) ही प्रत्यक्ष साक्षी हुए थे। यीशु के पुनरुत्थान का प्रचार अधिक हुआ था, एक बार तो वह ५०० से अधिक लोगों के सामने दिखाई पडे थे (१कोर १५:६), लेकिन यह संख्या भी तत्कालीन जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है। कोई भी आश्चर्यकर्म वृहत् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का नहीं था।

प्राचीन काल

प्राचीन काल के लोग पृथ्वी – केन्द्रित दृष्टिकोण रखते थे। जाहिर है, उनके अनुसार सूर्य, चन्द्रमा और तारे, सब पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाते थे। पृथ्वी अपनी जगम पर घुम नही सकती थी, क्योंकि तब लोग नीचे आने से गिर जाते। सूर्य और चन्द्रमा का आकार बराबर था और पृथ्वी की तुलना में दोनों ही छोटे थे। नीचे जाने पर दोनों ही छोटी पहाडियों के पिछे छुप जाते थे। तारे तो और भी छोटे थे और आसानी से धरती पर गिर सकते थे, जैसा कि बाइबल में बाद में बताया गया है।

पृथ्वी का आकार (माप) पूरी तरह अज्ञात् था। हिब्रू भाषा मे एक ही शब्द אֶרֶץ (एरेट्स) है जिसका अर्थ पृथ्वी या जमीन दोनों होता है। (एरेट्स ईसराईल का अर्थ होता है ईसराईल की धरती)। उन्हें अपने आस पास की धरती के आलावा और जानकारी नहीं थी। अमरिकियों का अस्तित्व नहीं था और चीन वासियों के विषय में अनजान थे। किसी ने भी हाथी, ध्रूवीय भालू, कङ्गारू या बाघ के विषय में नहीं सुना था। उस भूभाग में निश्चय ही जलप्रलय हुआ था, क्योंकि थोडे बहुत अन्तर के साथ इसका बहुत सा वर्णन अन्य साहित्यों में भी उपलब्ध है।

इन प्राचीन लोगों के लिये सृष्टि, जलप्रलय और बाबेल से सम्बन्धित समस्यायें हैं ही नहीं। स्वाभाविक रूपसे सर्वप्रथम पृथ्वी बनी, उसके बाद क्रमश: सूर्य, चन्द्रमा और तारे बने थे। नूह आसानी से सभी स्थानीय पशुपक्षियों को जहाज पर चढाया ओर उनके खाने पीने की व्यवस्था की, शायद सिर्फ पालतू पशु पक्षी ही हों, वह शेर के साथ यात्रा नहीं करना चाहेगा, उससे अच्छा होता शेर डुब जाते। बाबेल की घटना से जुडी समस्यायें उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी।

परमेश्वर ने मूसा को वैज्ञानिक कारणों की व्याख्या की होगी, लेकिन उस युग में कोई भी उन बातों को ग्रहण करने या समझने लायक नहीं रहा होगा। उत्पत्ति की पुस्तक या सम्पूर्ण बाइबल में परमेश्वर का उद्देश्य वैज्ञानिक ज्ञान देना न होकर आत्मिक सत्यता का प्रकाश देना था।

विकल्प

उत्पत्ति के आरम्भ में उल्लेखित तीनों बडी घटनायें प्राचीन युग के लोगों के लिये अर्थपूर्ण होने के बावजूद भी उन्हें शाब्दिक रुप में स्वीकार करना आधुनिक विज्ञान से प्राप्त ज्ञान के विपरीत है।

इससे हमारे सामने इन दो रास्तों में से कोई एक विकल्प बाकी रहता है:

  1. बाइबल परमेश्वर का वचन है और इसका एक एक शब्द अक्षरस: सत्य है। यदि विज्ञान इससे असहमत है तो विज्ञान गलत है। अधिकांश वैज्ञानिक नास्तिक हैं और परमेश्वर विरोधी विचार रखते हैं। साथ ही बाइबल को बदनाम करना चाहते हैं। वैज्ञानिकों की बात पर हम भरोसा नहीं कर सकते।
  2. दि वैज्ञानिकों का बडा समूह किसी विषय पर एकमत हैं तो हम उनकी बातों को इन्कार नहीं कर सकते। बाइबल की हमारी समझ को उनकी बातों के आधार पर समायोजित करना आवश्यक है। अधिकांश वैज्ञानिक धर्म के मामले में तटस्थ हैं और अपने विषय के अध्ययन के क्रम में उन्हें जो प्रमाण प्राप्त होता है उससे प्रेरित होते हैं।

अपनी युवावस्था मे मैं ऐसे लोगों के बीच गया, जिन्होंने इन दोनों दृष्टिकोणों में से पहला लिया। बाइबल के एक एक शब्द परमेश्वर के वचन के रूप में अक्षरस: सत्य है, इस बात पर अधिक जोड दिया जाता थ। समय व्यतीत होने के साथ मैंने दूसरे विकल्प को चुना। मैं मानता हूँ कि आधुनिक विज्ञान परमेश्वर का वरदान है और इससे मानव जाति को बहुत अधिक लाभ मिला है। जब वैज्ञानिक सहमत होते हैं, हम उनके खोजों को अनदेखा नहीं कर सकते।

विज्ञान के प्रति हमारी धारणा और धर्मशास्त्र की हमारी समझ में ये दोनों विकल्प अलग अलग प्रतिफल देते हैं, और हमारे जीवन शैली को क्रान्तिकारी रूप में प्रभावित कर सकते हैं। इस लेख के बाकी भाग में मैं इसी बात पर विचार करना चाहता हूं लेकिन पहले हम यीशु की कही कुछ बातों पर गौर करेंगे।

यीशु के वचन

क्या हमें यीशु की कही बातों को शाब्दिक रूप में लेना चाहिये? नये नियम के समय बहुतों ने ऐसा ही किया।

यीशु ने निकुदेमुस से कहा, “यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता।” निकुदेमुस का नया जन्म नहीं हुआ था जिसके कारण वह परमेश्वर का राज्य नहीं देख सकता था और इसीलिये उसने यीशु की बातों को अक्षरस: लिया, “क्या वह अपनी माता के गर्भ में दुसरी बार प्रवेश कर के जन्म ले सकता है?” (यूहन्ना ३:३,४)।

यीशु ने सामरी स्त्री से कहा वह, “उसे जीवन का जल देगा।” उसे भी जीवन के जल के विषय में कोई जानकारी नहीं थी और इसी कारण उसने भी यीशु की बात को अक्षरस: लिया। “तेरे पास जल भरने को तो कुछ है भी नहीं, और कूआं गहिरा है” (यूहन्ना ४:७,११)।

यीशुने यहूदियों से कहा, “जीवन की रोटी जो स्वर्ग से उतरी मैं हूं। यदि कोई इस रोटी में से खाए, तो सर्वदा जीवित रहेगा और जो रोटी मैं जगत के जीवन के लिये दूंगा, वह मेरा मांस है।” उन्होंने भी उसे अक्षरस: लिया , “यह मनुष्य क्योंकर हमें अपना मांस खाने को दे सकता है?” (यूहन्ना ६:५१,५२)।

जब यीशु ने कहा, “इस मन्दिर को नष्ट करदो” (यूहन्ना २:१९), तब श्रोताओं ने समझा यीशु वास्तविक मन्दिर के विषय में बात कर रहे हैं।

यीशु ने अपने चेलों को कहा, “फरीसियों के खमीर से सावधान रहो” (मत्ती १६:६) और उन्होंने भी यही समझा कि यीशु साधारण खमीर की बात कर रहे थे।

बार बार यीशु गहरी महत्त्वपूर्ण आत्मिक बातें बता रहे थे जो समझने में श्रोता पूरी तरह विफल रहे। उन्हों ने उनके शब्दों को शाब्दिक अर्थ में लिया।

इनमें से किसी ने भी यशायाह के इन शब्दों को नहीं समझा, “मेरे विचार और तुम्हारे विचार एक समान नहीं है, न तुम्हारी गति और मेरी गति एक सी है। क्योंकि मेरी और तुम्हारी गति में और मेरे और तुम्हारे सोच विचारों में, आकाश और पृथ्वी का अन्तर है।” (यशा ५५:८,९)। यदि मैं ज्यादा गलत नहीं हूँ तो शास्त्रों के आधुनिक शिक्षकों मे अधिकांश ने यशायाह के ये शब्द या तो नहीं पढे हैं या समझ नहीं पाये हैं।

इस विषय पर मैने यीशु को समझना नामक पुस्तिका मे विस्तार से लिखा है।

यीशु ने यह भी कहा था, “मैं फिर आउँगा।” क्या उनका कहना शाब्दिक रुप में ठीक था? उस समय से लेकर आजतक बहुत से व्यक्ति ऐसा ही विश्वास करते हैं। हम इस प्रश्न पर और गहराई से विचार करेंगे।

मैं फिर आउँगा

“तुम्हारा मन व्याकुल न हो, तुम परमेश्वर पर विश्वास रखते हो मुझ पर भी विश्वास रखो। मेरे पिता के घर में बहुत से रहने के स्थान हैं, यदि न होते, तो मैं तुम से कह देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूं। और यदि मैं जा कर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूं, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहां ले जाऊंगा, कि जहां मैं रहूं वहां तुम भी रहो।” (यूहन्ना १४:१-३)

यीशु ने चेलों को दुखदायी मानसिक कष्ट का सामना करने के लिये तैयार करने के लिये ये बातें कही थी जो उनकी क्रूस की मृत्यु के कारण आने वाली थी।

क्या यीशु इन बातों को अक्षरस: पूरा करने वाले थे? इसमें कोई शंका नहीं कि उनके चेले इन बातों को हूबहू विश्वास करते थे। शायद उनका विश्वास था कि यीशु सशरीर लौट कर आयेंगे और चेलों को आकाश में किसी आलिशान भवन में ले जायेंगे।

क्या यीशु ने चेलों के जीवन काल में इन बातों को अक्षरस: पूरा किया? यदि यीशु ने ये बातें अपने चेलों के सान्त्वना के लिये कही थी, लेकिन उनकी मृत्यु के २००० वर्ष बाद तक अपने आने का कोई इरादा नहीं था, तो यह खाली वादा होता। उनका हृदय जीवन भर अवसाद से भरा रहता।

पिन्तेकुस्त के दिन क्या हुआ था? क्या उस समय यीशु का दूसरा आगमन हुआ था? क्या यीशु ने चेलों के लिये जगह तैयार कर ली थी? और क्या उन्हें उस जगह ले गये थे? जब पौलुस ने इफिसियों को पत्र लिखा था तो उसमें उसने ठीक यही बातें लिखी थी, “और मसीह यीशु में उसके साथ उठाया, और स्वर्गीय स्थानों में उसके साथ बैठाया।” (इफिसियों २:६) और क्या उनके हृदय के कष्ट का अन्त हो गया था? ऐसा ही दिखता है। स्थानीय लोग ऐसा समझ रहे थे कि ये शराब के नशे में चूर हैं।

नये नियम के समय से लेकर आज तक यीशु के सशरीर वापसी की आशा की जा रही है। बहुत से धार्मिक अगुवे इस घटना का सम्भाव्य समय भी बताया है। उनमें से सर्वाधिक प्रचारित समय निम्नानुसार हैं:

और लोगों ने भी समय की भविष्यवाणी की है जो और अधिक भविष्य में हैं।

यीशु के दूसरे आगमन से सम्बन्धित भविष्यवाणियों की पूरी जानकारी के लिये Predictions for the Second Coming of Christ देखें।

ऐसा विश्वास करना कि यीशु निकट भविष्य में फिर आयेंगे (और यह गलत प्रमाणित हो) किसी के भी व्यक्तिगत जीवन में हानिकारक प्रभाव डाल सकता है। भविष्य के लिये की गयी सारी तैयारियां व्यर्थ साबित होती हैं। क्यों बचत करना पडा? घर क्यों चाहिये? और आगे अध्ययन क्यों करें? नर्स, शिक्षक, डाक्टर और यहाँ तक कि पास्टर की तालीम की जरूरत ही क्या है? कहीं तालीम समाप्त होने के पहले ही यीशु आ जायें? यदि आप युवा हैं और अकेले हैं तो ज्यादा गम्भीर समस्या नहीं है, परन्तु यदि आप पर परीवार की जिम्मेवारी भी है तो विनाशकारी हो सकती है।

मैं अपना अनुभव साझा करना चाहता हूँ। अपनी युवावस्था मे मैं उन लोगों के बीच चला गया जो यीशु की आसन्न वापसी में विश्वास करते थे। १९६८ ई. में मैं प्रभु की सेवा करने के उद्देश्य से नेपाल गया और मेरा हवाई जहाज जैसे ही ईंगलिश चैनेल को पार किया मैं ने डोवर की सफेद चट्टानों को आखिरी बार देखा। पाँच वर्षों के बाद मैं एक पत्नि, दो छोटे छोटे बच्चे, दो सूटकेस के साथ बिना किसी बचत और तालीम के ईङ्गलैण्ड लौटा। परमेश्वर ने अपने अनुग्रह में हमारी सभी आवश्यकतायें पूरी की, और हमारे बच्चों को कोई कष्ट नहीं हुआ, लेकिन दूसरों को ऐसा ही करने की सल्लाह मैं कभी नहीं दूँगा।

इस विषय पर मैने यीशु का आगमन’पुस्तिका में विस्तार से लिखा है।

प्रकाशितवाक्य की पुस्तक

हमने उत्पत्ति की पुस्तक से आरमभ किया था और अब प्रकाशितवाक्य की पुस्तक को देखेंगे। क्या हमें सब बातों को अक्षरस: लेना चाहिये?

प्रकाशितवाक्य की पुस्तक दर्शनों की शृङ्खला से भरपूर है जो प्रतिकों से भरे हैं। जाहिरा तौर पर इन दर्शनों में उल्लेखित बहुत सी बातों को अक्षरस: नहीं लिया जा सकता है। उदाहरण के लिये कुछ यहां दिये गये हैं:

प्रकाशितवाक्य में उल्लेखित इन बातों के साथ साथ अन्य विवरण और चित्र अक्षरस: नहीं लिये जा सकते। उन बयानों के साथ समस्या है जिन्हें सिर्फ शाब्दिक या आत्मिक रूप में ही ले सकते हैं। इनमें विभीन्न संख्याओं से जुडे बयान हैं।

भविष्य में भविष्यवाणियां पूरी होने से सम्बन्धित अनेक वेबसाईट बनाये गये हैं और पुस्तकें लिखी गयी हैं। उनकी अधिकांश शिक्षायें प्रकाश की पुस्तक पर आधारित हैं। कुछ बताते हैं कि ७ वर्षों के कष्ट पूर्ण समय के बाद १००० वर्षों का राज्य स्थापित होगा। विशेषकर यह बात सामान्य है कि पशु के छाप के बिना कोई भी व्यक्ति खरीद बिक्री नहीं कर पायेंगे।

आइये हम संख्या ६६६ पर विचार करें जो इस भाग में मिलती है: “और उसने छोटे, बड़े, धनी, कंगाल, स्वत्रंत, दास सब के दाहिने हाथ या उन के माथे पर एक एक छाप करा दी। कि उसको छोड़ जिस पर छाप अर्थात उस पशु का नाम, या उसके नाम का अंक हो, और कोई लेन देन न कर सके। ज्ञान इसी में है, जिसे बुद्धि हो, वह इस पशु का अंक जोड़ ले, क्योंकि मनुष्य का अंक है, और उसका अंक छ: सौ छियासठ है” (प्रकाश १३:१६-१८)। अधिकांश व्यक्ति इसे सामान्य रूपसे शाब्दिक अर्थ में लेते हैं और सम्बवत: विद्युतीय छाप समझते हैं जिसके अभाव में कोई भी व्यापार (खरीद बिक्री) नहीं कर पायेगा।

लेकिन हमें उस वचन पर भी ध्यान देना होगा जो ठीक इसके बाद लिखा है: “फिर मैं ने दृष्टि की, और देखो, वह मेम्ना सिय्योन पहाड़ पर खड़ा है, और उसके साथ एक लाख चौवालीस हजार जन हैं, जिन के माथे पर उसका और उसके पिता का नाम लिखा हुआ है” (प्रकाश १४:१)। यहां उनके माथे पर यीशु का नाम लिखा है (जिसकी सांख्यिकी मूल्य ८८८ है), परन्तु किसी ने भी नहीं कहा कि ऐसा विद्युतीय विधी से किया जायेगा। मेरे विचार में माथे पर यीशु का नाम लिखे जाने का अर्थ है हममें यीशु का मन होना, माथे पर ६६६ लिखे जाने का वास्तविक अर्थ है पशु का मन होना।

क्या सियिन पर्वत पर ठीक १४४००० लोग खडे होंगे? आश्चर्यजनक रूप से १२ गोत्रों में से प्रत्येक गोत्र से १२००० यहूदी एकत्रित होंगे? क्या इस्राइल के खोये हुए १० गोत्र अन्त में मिल जायेंगे? मेरा विश्वास है कि सियोन पर्वत और १४४००० का आत्मिक अर्थ ढूँढना बेहतर होगा।

इस विषय को मैंने ६६६ और ८८८ पुस्तिका में विस्तार से बताया है।

७ वर्षों के कष्ट और उसके बाद १००० वर्षों का यीशु के राज्य की समामन्य शिक्षा प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में उल्लेखित संख्याओं का शाब्दिक अनुवाद का ही प्रतिफल है। विगत की कुछ भविष्यवाणियां सही थीं लेकिन बहुत सी गलत साबित हुई हैं। हमें सावधानी बरतनी चाहिये।

शाब्दिक अनुवाद की और समस्यायें

धर्मशास्त्र के एक एक शब्द को अक्षरस: लेने से उत्पन्न समस्याओं के विषय में अब मैं बताना चाहता हूँ।

व्यक्तिगत साख

पृथ्वी की सृष्टि ६००० वर्ष पहले हुई थी इस बात को मानने वाले लोग खूद दूसरे ग्रह पर रहते हैं (हो सकता है अक्षरस:), बहुत बढी संख्या में लोग ऐसा समझते हैं । यदि आप अपने मित्रों में किसी को जिसने कभी बाइबल नहीं पढी है, ऐसा कहें कि एक परीवार के आठ व्यक्ति और संसार के सभी पशु, पक्षी, कीडे मकोडे जोडियों में एक साथ एक विशाल जहाज पर सवार हुए और उसके बाद सब उसी जहाज पर एक वर्ष एक साथ रहे, खाया पीआ, अभ्यास किया और सद्भाव पूर्वक साथ साथ सोये (शौचालय की थोडी बहुत सुविधा के साथ), और इस प्रकार वे एक विश्वव्यापी विपत्ति में से सिर्फ मुट्ठी भर बचने वाले बने, तो आपके मित्र इसी नतीजे पर पहुचेंगे कि आपका दिमाग साथ छोड चुका है। आपकी व्यक्तिगत साख बहुत नीचे पहुंच जायेगी। आपकी अनर्गल प्रलाप सुनकर कोई अपना समय बर्बाद करना नहीं चाहेगा।

व्यक्तिगत विश्वास

कुछ युवा जिनका पालन पोषण ‘सृष्टी’-सिद्धान्तवादी शिक्षा के माहौल में हुआ है, कौलेज में उन्हें गम्भिर संकट का सामना करना पडता है। वे विकाश वादी वैग्यानिक शिक्षा और पृथ्वी की उम्र के विषय के साथ साथ और बातें सुनते हैं और अपने विश्वास को आसानी से गँवा सकते हैं। यदि यीशु उनका चट्टान और नींव हैं जिनपर उनका विश्वास निर्मीत है, तो कोई समस्या नहीं है। यदि बाइबल के शब्दों पर विश्वास उनका चट्टान और नींव है, तब वे गम्भीर समस्या में हैं। यदि वे अपना विश्वास गँवा देते हैं तो इसका दोष निश्चय ही विग्यान पर जायेगा, मण्डली में उन्हें मिली शिक्षा पर नहीं।

यूनिवर्सिटी में मेरी लडकी ने भूगर्भशास्त्र और मेरे लडके ने जीव विज्ञान का अध्ययन किया, ये दोनों ही विषय बाइबल को अक्षरस: विश्वास करने वालों के लिये सबसे खराब हैं। वे दोनों अपने विश्वास को बिना गँवाये यूनिवर्सिटी की शिक्षा पूरी करली।

विज्ञान

हम फिर विज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लौटेंगे।

बाइबल के कुछ भाग, विशेषकर उत्पत्ति के प्रथम १२ अध्याय का अक्षरस: अनुवाद आसानी से विज्ञान और वैज्ञानिको के अस्वीकार के तरफ ले जा सकती है, जिसके संभावित विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।

कुछ लोगों का कहना है, यदि विज्ञान बाइबल से असहमत है तो विज्ञान गलत है। वास्तव में उनके कहने का अर्थ यह है कि “बाइबल की मेरी समझ से यदि तथ्य मेल नहीं खाते तो तथ्य गलत हैं।“

अङ्ग्रेजी शब्द science लैटीन शब्द scientia का अनुवाद है, जिसका साधारण सा अर्थ ज्ञान होता है। विज्ञान तथ्यों से सम्बन्धित ज्ञान है – सिद्धान्त या राय नहीं, ठोस, प्रमाणित तथ्य। पृथ्वी का आकार गोल है, यह अपने धुरी पर घुमती है और सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। ये कोरा सिद्धान्त नहीं हैं, परन्तु तथ्य हैं जिन्हें आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है। यह धरती और सूर्य और ब्रह्माण्ड छ हजार वर्षों से अधिक उम्र के हैं, साठ लाख वर्षों से भी अधिक पुराने। यह महज सिद्धान्त नहीं, पर तथ्य है। यह इसलिये तथ्य है क्योंकि विज्ञान (ज्ञान) की बहुत सी शाखायें और समय मापन के विभीन्न तरिके इसी को प्रमाणित करते हैं।

२०० वर्ष पूर्व जो चीजें पूर्ण रूप से अकल्पनीय थीं – टेलीभिजन, टेलिफोन, ईन्टरनेट, हवाई यात्रा, अन्तरिक्ष यात्रा, आधुनिक उपचार – अभी दैनिक जीवन का भाग हो चुके हैं। ये सभी चीजें विज्ञान (ज्ञान) की तीन शाखाओं पर निर्मित हैं: भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान। सभी आधुनिक प्रविधी की ये असाधारण सफलतायें यही प्रमाणित करती हैं कि इनके पृष्टभूमि में निहित विज्ञान सही है। उपग्रह आधारित दिशा निर्देश का गणित आइन्सटाईन के सापेक्षता के त्रिकोण मिति के परिमार्जित सिद्धान्त पर आधारित होता है, और यह सही साबित होता है। इससे यही प्रमाणित होता है कि आइन्सटाईन का सिद्धान्त सही है।

जो लोग विज्ञान (ज्ञान) और वैज्ञानिकों को नहीं मानते, क्योकि वे बाइबल के शाब्दिक अर्थ से मेल नही खाते, वे बहुत ही खतरनाक रास्ते पर चल रहे हैं। वे सत्यता को इनकार कर रहे हैं। आज या कल सच्चाई को इनकार करने का अर्थ झूठ पर विश्वास करना ही होगा।

वैज्ञानिक, जो अपने देश में विश्व के कुछ चुने हुए अत्यन्त विद्वान लोगों में से हैं, हाल ही में अपने समय और सम्पत्ति का अधिकांश भाग दो अति महत्वपूर्ण समस्याओं से सम्बन्धित खोज: कोभिड १९ और विश्वव्यापी तापक्रम वृद्धि में लगा रहे हैं। इन दोनों ही क्षेत्रों में वे तथ्यों के खोज में हैं। जब वे आम सहमति पर पहुँचेंगे तब यही तथ्य जीवन-रक्षक सत्यता बन जायेंगे। ऐसे व्यक्ति अकेले, धार्मिक अगुवा, राजनीतिज्ञ जो जीवन –रक्षक सत्यता को इनकार करेंगे, वे बडे परिमाण में होने वाले सम्भावित मृत्यु के लिये जिम्मेदार होंगे।

आजकल ईन्टरनेट और सामाजिक संजाल पर षडयन्त्रकारी सिद्धान्तों की भरमार है। ये सिद्धान्त अपने जीवन और आकर्षण के लिये विज्ञान (ज्ञान) की अज्ञानता पर ही निर्भर रहते हैं। आरम्भिक झूठ कि हम विज्ञान (ज्ञान) पर भरोसा नहीं कर सकते, अधिकतर ऐसे लोगों के द्वारा बढावा दी जाती है जो बाइबल को अक्षरस: सही मानते हैं। बाइबल के विश्वासी जिन्हें सत्य को बढावा देना चाहिये, वे आसानी से झूठ को बढावा देते हैं। अक्षरस: झूठ अक्षरस: मृत्यु की ओर ले जाते हैं और आत्मिक झूठ आत्मिक मृत्यु की ओर।

निष्कर्ष

बाइबल के एक एक शब्द पर विश्वास करना हमारे विश्वास के लिये सही नींव लगता है। क्या बाइबल ही वह चट्टान नहीं है जिस पर हमें अपने जीवन का निर्माण करना चाहिये? पौलुस के अनुसार, नहीं। यहां उसके मिलते जुलते शब्द हैं, “क्योंकि उसनेव को छोड़ जो पड़ी है, और वह यीशु मसीह है कोई दूसरी नेव नहीं डाल सकता” (१कोरि ३:११)। धर्मशास्स्त्र अपनी ओर नहीं, परन्तु यीशु की ओर दिखाते हैं।

हम यह कैसे जान सकते हैं कि बाइबल के किन शब्दों को शाब्दिक रूप में लेना चाहिये और कि शब्दों को आत्मिक रूप में? खुशी पूर्वक, मेरे पास इसका उत्तर है। “लेखक से पूछिये।“ वास्तव में यही सही उत्तर है और एक मात्र उत्तर है।

चेले लगातार यीशु के शब्द समझने में विफल रहे थे। यीशु इस बात को जानते थे और यहाँ इस समस्या का उत्तर है: “मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा” (यूहन्ना १६:१२-१३)।

ईम्माउस के रास्ते पर यीशु ने दो चेलों को धर्मशास्त्र समझने के लिये अन्तरदृष्टि दी (लुका २४:३२) स्वाभाविक मनुष्य के लिये धर्मशास्त्र ‘बन्द पुस्तक’ है, आत्मिक जीवन निर्माण के लिये अच्छी नींव नहीं बन सकती।

सिर्फ पवित्र आत्मा ही इस बन्द पुस्तक को हमारे लिये खोल सकते हैं ताकि इसके बहुमूल्य और प्रेरित वचन हम समझ सकें। और वे ऐसा करेंगे!


अनुवादक: डा. पीटर कमलेश्वर सिंह

संदर्भ