नई वाचा

परिचय

हमारे धर्मशास्त्र बाईबल के दो भाग हैं, पुराना नियम और नया नियम। ये दोनों नाम परमेश्वर द्वारा यिर्मयाह को कहे गये शब्दों के आधार पर रखे गये हैं, “मैं इस्राएल के घराने और यहुदा के घराने से एक नई वाचा बांधुँगा।” हिन्दी बाईबल में नियम एवं वाचा एक ही मुल शब्द के अलग अलग अनुवाद हैं।

मेरे विचार में प्राय: इसाई लोग पुराने नियम के अनुसार ही जीते हैं। निश्चय ही ये लोग नया नियम पढ़ते हैं और इसके विषय वस्तु के आधार पर शिक्षा भी देते हैं, लेकिन उनके जीवन और अनुभव के बहुत सारे पक्ष नये नियम से ज्यादा पुराने नियम से जुडे होते हैं। दोनों वाचाओं के बीच की भिन्नता का उचित ज्ञान होना वास्तव में आत्मिक वृद्धि के लिये महत्वपूर्ण है।

मेरा विश्वास है कि बाईबल के समय में ऐसा ही था। नये नियम के दिनों में भी यीशु के अपने ही लहू से शुरु की गई नई वाचा की पूर्णता ग्रहण करने तथा अनुभव करने में कुछ विश्वासी असफल हुए थे। दुसरी तरफ, पुराने नियम के अधिकांश सन्तों ने उस समय उपलब्ध अवसर से भी आगे बढ़कर अपना जीवन जीआ और परमेश्वर के साथ गहरी बातों को अनुभव किया। वास्तव में वे नई वाचा के मार्ग पर चलरहे थे।

नई वाचा की शर्तें यिर्मयाह के ३१:३१-३४ पदों में दी गयी हैं। “देखो, ऐसे दिन आनेवाले हैं,” यहोवा की यह वाणी है, “जब मैं इस्राएलके घराने और यहूदा के घराने के साथ नई वाचा (करार) बांधुंगा, उस वाचा के समान नहीं जिसे मैनें उनके पूर्वजों से उस दिन बान्धी थी जब मैं उनका हाथ पकडकर उन्हें मिश्र देश से बाहर निकाल लाया था, यद्यपि मैं उनके लिए पति समान था फिर भी उन्होंने मेरी उस वाचा को तोडा था।” यहोवा की यही वाणी है। “परन्तु जो वाचा मैं उन दिनों के बाद इस्राएल के घराने के साथ बान्धुंगा वह यह है,” यहोवा कहता है, “मैं अपनी व्यवस्था उनके मनों में डालुंगा और उसे उनके हृदयों पर लिखुंगा, और मैं उनका परमेश्वर ठहरुंगा तथा वे मेरी प्रजा ठहरेंगे।” तब उन्हें अपने पडोसी और अपने भाई को फिर यह सिखाना न पडेगा कि यहोवा को जानो, क्योंकि छोटे से लेकर बड़े तक सब मुझे जान जायेंगे क्योंकि मैं उनके अधर्म को क्षमा करुंगा और उनके पापों को फिर स्मरण न करुंगा,” यहोवा की यही वाणी है।’

यिर्मयाह का यह सम्पूर्ण भाग इब्रानियों की पत्री के ८:८-१२ पदों में उधृत है। इब्रानिओं को लिखे गये पत्र के अधिकांश भाग में ‘नई वाचा’ विषय की व्याख्या की गयी है और गहरे अध्ययन के लिए उपयोगी है।

परमेश्वर के लिये एक नई वाचा बाँधना आवश्यक क्यों था ?

इस विषय को हम इन शिर्षकों के अन्तर्गत विचार करेंगे : व्यवस्था, शिक्षक, धर्मशास्त्र, जाति, याजक, भवन, पर्व और विश्राम दिन

व्यवस्था

इस्राएलियों को मिश्र देश से निकाल कर लाते समय परमेश्वर ने उनसे पहली वाचा बाँधी थी। यह पहली वाचा व्यवस्था पर आधारित थी। दस आज्ञा व्यवस्था का सारांश था और निर्गमन, लैव्य व्यवस्था, गिनती एवं व्यवस्था विवरण के पुस्तकों में इसका विस्तृत वर्णन किया गया था। ये पुस्तकें – उत्पत्ति के साथ पुराने नियम की बुनियादी पुस्तकें हैं और इनको “तोराह” (व्यवस्था) कहते हैं।

परमेश्वर ने मूसा के द्वारा जो व्यवस्था दी थी वह धार्मिक और अच्छी थी और आस पास के लोगों में प्रचलित विधान से उत्कृष्ट। वर्तमान की तुलना में यह व्यवस्था कठोर थी। इसमें डायन, व्याभिचारी, बलात्कारी, हत्यारे, माता पिता से दुर्व्यवहार करने वाले और दूसरे अपराध करने वालों के लिये मृत्यु दण्ड देने का प्रावधान था। मुझे विश्वास है कि यदि आज वही व्यवस्था लागू की जाती तो हमारा समाज अधिक सुखी होता। अपराधी व्यक्तियों में भय होता और निर्दोष व्यक्ति सडकों पर स्वतन्त्र घूमते।

व्यवस्था के नियम सर्वोत्तम होते हुए भी इनसे लोगों में धार्मिकता का विकाश नहीं हो सका। व्यवस्था देने के लगभग एक हजार वर्षों के बाद परमेश्वर का इनसाफ़ पहले इस्राएल और फिर यहूदा के ऊपर आया। उन लोगों ने परमेश्वर के सभी आज्ञाओं का उल्लंघन किया था और पुरानी वाचा की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में पूरी तरह असफल हुए थे। सर्वप्रथम उन लोगों ने परमेश्वर की पहली आज्ञा ही नहीं मानी थी और परमेश्वर से मुँह मोडते हुए दूसरे देवी–देवताओं की पूजा करने लगे। इस के फलस्वरुप अश्शूर और बेबिलोन वासी आकर इनके देश को नष्ट कर डाला, यरूशलेमको रौंद डाला और लोगों को कैद कर ले गये।

इस्राएल के इतिहास के इस दुखद समय में यिर्मयाह ने परमेश्वर की नई वाचा की प्रतिज्ञा की घोषणा की।

समस्या का जड़ परमेश्वर के द्वारा दी गई व्यवस्था में न होकर मनुष्य स्वभाव में ही व्याप्त था। यिर्मयाह कहते हैं, “मन तो सब वस्तुओं से अधिक धोखेबाज होता है, और असाध्य रोग से ग्रस्त है, उसे कौन समझ सकता है” (यिर्मयाह १७:९)। ह्रदय परिवर्तन करने की परमेश्वर की प्रतिज्ञा ही नई वाचा का सार है। “मैं अपनी शिक्षाओं को उनके मस्तिष्क में रखूंगा तथा उनके हृदयों पर लिखूंगा ” (३१:३३)। जब तक मानव हृदय घमण्डी, लोभी और मूर्ति पूजा में लिप्त होता है, उसके लिये व्यवस्था का पालन करना प्राय: असम्भव है। अनुशासन, उत्साह और अभ्यास से कोई लाभ नहीं। मानव ह्रदय का अपना आन्तरिक कार्यशैली होता है जो परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध काम करता है।

बहुत से व्यक्ति इन बातों को जान ही नहीं पाते। सम्भव है, इन लोगों का सच्चा हृदय परिवर्तन हुआ हो , बुरी आदतों को छोड़ दिया हो और उन के जीवन शैली में आमुल परिवर्तन भी आया हो। इन सब बातों के बावजूद भी दुष्ट भित्री मनुष्यत्व पहले जैसे ही अन्दर मौजूद हो सकता है।

बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से दमिश्क के रास्ते पर पौलुस का परिवर्तन हुआ था। उसके जीवन की दिशा पूरी तरह बदल गयी थी। पहले जिस जोश से इसाईयों को सताता था, अब उसी जोश से सुसमाचार प्रचार करने लगा। यह उसकी समस्याओंका अन्त नहीं, पर आरम्भ था। रोमियों के ७वें अध्याय में पौलुस बताता है कि कैसे उसने व्यवस्था पालन करने की पूरी कोशिश की फिर भी पूर्ण रूप से पालन नहीं कर सका। उस भाग में वह अपने जीवन परिवर्तन होने से पहले की घटनाओं का वर्णन कर रहा हो ऐसा नहीं लगता। मेरा विश्वास है कि दमिश्क के रास्ते पर यीशु के साथ मिलने के बाद उसके जीवन में ये संघर्षपूर्ण समस्यायें आयी थीं। अन्त में उसने विजय प्राप्त की और इस तरह घोषणा की, “मसीह यीशु में जीवन के आत्मा की व्यवस्था ने मुझे पाप और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतन्त्र कर दिया है। क्योंकि जो काम व्यवस्था शरीर के कारण दुर्बल होकर न कर सकी, उस को परमेश्वर ने किया, अर्थात् अपने ही पुत्र को पापमय शरीर की समानता में, और पाप के बलिदान होने के लिये भेजकर, शरीर में पाप पर दण्ड की आज्ञा दी।” रोमियों की पत्री के ८ वें अध्यायमें उन्हों ने विजय का जो नया उपाय ढुँढ लिया था, उसका वर्णन किया है।

परमेश्वर के व्यवस्था का हृदय में लिखे जाने का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ मनुष्य के स्वभाव का पूर्ण परिवर्तन होना है। यह तो एक अलौकिक आश्चर्य कर्म है। आप कुत्ते को तालीम देकर भीख मांगना, पिछले पैरों पर खड़ा होना और बहुत सारे खेल सिखा सकतें हैं। धैर्य रखना सिखाकर और पुरस्कार देकर कुत्ते से उसके स्वभाव के विपरीत कोई भी काम करा सकतें हैं। लेकिन इसका प्राकृतिक स्वभाव आप कभी भी परिवर्तन नहीं कर सकते। जितना भी मनुष्य जैसा व्यवहार कराने का प्रयास करें, यह कुत्ता ही रहेगा।

परमेश्वर हमारे स्वभाव को पुनर्निर्माण करते हैं जिससे हम उनके नियम पालन कर सकें। पतरस इसी सत्यता के सम्बन्ध में कहते हैं, “क्योंकि उसने इन्हीं के कारण हमें अपनी बहुमूल्य और उत्तम प्रतिज्ञायें दी हैं, जिससे कि तुम उनके द्वारा भ्रष्ट आचरण से जो वासना के कारण संसार में है, छूट कर ईश्वरीय स्वभाव के सहभागी हो जाओ ”(२ पतरस १:४)। जानवर कभी भी मनुष्य नहीं बन सकते, किन्तु मनुष्य परमेश्वर के अनुग्रह से ईश्वरीय स्वभाव में परिवर्तन हो सकता है।

मनुष्य हृदय स्वभाव से ही पापी होता है। बहुत सी बातें मिलकर इस सत्यता पर परदा डाल सकती हैं। अच्छा पालन-पोषण, अच्छे मित्र और उनके प्रभाव, अच्छे काम करने का सामाजिक दबाव एवम् धार्मिक घमण्ड, इन सब बातों से बाहरी सुधार तो संभव हैं, पर इन में से कोई भी बात हृदय परिवर्तन करने के लिये असमर्थ है। पवित्र आत्मा के द्वारा होने वाला नया जन्म ही हृदय परिवर्तन कर सकता है और यही नई वाचा का सार है।

शिक्षक

व्यवस्था के सम्बन्ध में वर्णन करने के बाद यिर्मयाह शिक्षा देने के विषय में आगे लिखते हैं, “किसी को भी अपने पडोंसियों को तथा भाइयों को फिर से इस तरह सिखानी नहीं पडेगी, ‘परमप्रभु को पहचानो’, क्योंकि छोटे से लेकर बडों तक सबलोग मुझे पहचानेंगे।” यिर्मयाह के इस कथन को यूहन्ना सहमती देते हुए स्पष्ट करते हैं, “तुम्हें इस बात की आवश्यकता नहीं कि कोई तुम्हें सिखाए .... उसका वह अभिषेक तुम्हें सब बातों के विषय में सिखाता है ” (१ यूहन्ना २:२७)।

बुनियादी रूप में सभी मानवीय शिक्षा पुरानी वाचा के अनुसार दी जाती हैं जो स्वाभाविक है। मनुष्यों द्वारा दी जाने वाली यह शिक्षा बाहरी तौर पर ही लाभदायक होती है। नये नियम की शिक्षा पवित्र आत्मा द्वारा दी जाती हैं और इसी लिए ये अन्दरुनी हैं। यीशु ने अपने चेलों से कहा, “मेरा जाना तुम्हारे लिए लाभदायक है, क्योंकि यदि मैं न जाऊँ तो वह सहायक तुम्हारे पास नहीं आयेगा.... मुझे तुमसे और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु तुम अभी उन्हें सहन नहीं कर सकते। परन्तु जब वह, अर्थात सत्य का आत्मा आएगा, तो वह तुम्हें सब सत्य का मार्ग बतायेगा...” (यूहन्ना १६:७, १२, १३)। यीशु यह कह रहे थे कि उनकी अपनी शिक्षा की तुलना में, जो अन्य मानवीय शिक्षा की तरह ही उपरी था, उन के हृदय में वास करने वाले पवित्र आत्मा की शिक्षा ही शिष्यों के लिए उत्तम है। यीशु मसीह संसार के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक थे, फिर भी पवित्र आत्मा उनसे अच्छा सिखा सकते थे। दृष्टिगत होने के बावजूद अब वे बाहरी अवस्था से अन्दरुनी अवस्था में परिवर्तन होने के लिए तैयार थे।

हम यीशु और मूसा की बातों में अन्तर देखें, “मेरी मृत्यु के पश्चात तुम भ्रष्ट आचरण करोगे, तथा जिस मार्ग पर चलने की मैंने आज्ञा दी है उससे भटक जाओगे।” (व्यवस्था ३१:२९)। यह पुरानी वाचा की स्थिती थी (और आज भी बहुत से ईसाइ इसी अवस्था में हैं); शिक्षक और नेत्रित्व के अभाव में हर चीज टूट कर बिखर जाने वाली थी।

हम यही अन्तर योएल की भविष्यवाणी में भी पाते हैं, जिसको पतरस ने पेन्तिकोस के दिन अपने भाषण में उधृत किया था, “अंतिम दिनों में ऐसा होगा कि मैं सभी मनुष्यों पर अपनी आत्मा उँडेल दूंगा फिर तुम्हारे पुत्र और पुत्रियां ... युवा लोग ... बूढ़े लोग ... सेवक ... सेविकाएँ” (प्रेरित२:१७-१८)। सभी लोग अर्थात् सबसे निम्न स्तर वाली अनपढ़ नौकरानी तक परमेश्वर का सीधा, व्यक्तिगत, प्रकाश और आत्मिक अनुभव स्वयम् प्राप्त कर सकते हैं। बडे बडे शिक्षकों और अगुवाजनों पर आश्रित रहने की आवश्यकता का अन्त हो गया है।

अधिकांश धर्म गुरुओं के विचार यीशु मसीह की “मेरा जाना ही तुमहारे लिए भला है” वचन की तुलना में मूसा के शब्दों के बहुत समीप हैं, “मेरी मृत्यु के पश्चात तुम भ्रष्ट आचरण करोगे”। वे लोग अपने आप को अति आवश्यक समझते हैं। अपने झूण्ड का अधिक से अधिक लाभ की चिन्ता करते हैं, पर नई वाचा का खास अर्थ नहीं समझते और पवित्र आत्मा के सुरक्षा की शक्ति में विश्वातस भी नहींकरते। सब से भी बुरी बात तो यह है कि उनको भय रहता है कि यदि कोई उन पर आश्रित न हो तो उनका पद, आयस्रोत और सुरक्षा का ही अन्त हो जायेगा।

तो नई वाचा में शिक्षकों का महत्व क्या है ? हम इस प्रश्न का उत्तर एफिसी ४:११-१६ में पाते हैं। इस खण्ड में शिक्षकों को पांच सेवाकाइयों में से एक कहा गया है, जो स्वर्ग में विराजमान ख्रीष्ट ने अपनी मण्डली को दिया है – प्रेरित, भविष्यद्वक्ता, सुसमाचार प्रचारक, पास्टर और शिक्षक। पौलुस बताते हैं, इन सेवाकाईयों का उद्देश्य नये विश्वासिओं को धोखा से बचाना और ख्रीष्ट के शरीरको परिपक्व करना है।

अधिकांश नये विश्वासी नये नियम में सिधे कदम रखने में असमर्थ होते हैं। सर्वप्रथम उन्हें पुराने करार के अनुभव से गुजरना चाहिए। नयेनियम के समय में भी आज के जैसे ही नये विश्वासी मूर्तिपूजा करने वाले परिवार के थे जिन्हें पुराने नियम का कोई ज्ञान कभी नहीं मिला था। उन्हें भी व्यवस्था के अधीन आना चाहिए, जिसे पौलुस कहते हैं, “हमें मसीह तक पहुँचाने के लिए व्यवस्था हमारी शिक्षक बन गई।” इस बात को पौलुस और भी स्पष्ट करते हैं, “उत्तराधिकारी जब तक नाबालिग है,यद्यपि सब बस्तुओं का स्वामी है, फिर भी उसमें और दास में कोई अन्तर नहीं रहता, परन्तु पिता द्वारा ठहराये हुए समय तक वह संरक्षकों और प्रबन्धकों के अधीन रहता है ” (गलाती ४:१-२)।

नये विश्वासी आसानी से धोखे का शिकार हो सकते हैं। हम ऐसे समय में जी रहें हैं, जब बहुत से झूठे अगमवक्ता होंगे, जैसा यीशु ने कहा था। नये विश्वासियों को (और ऐसे लोगों को जिन्हें पहचान कर सकने का अच्छा ज्ञान होना चाहिए), प्रायः भेंड़ के वेष में आनेवाले भेंडिये को पहचान पाने में बहुत कठीनाई होती है। उनके ज्ञानेन्द्रीय आत्माओं को पहचानने में अभ्यस्त नहीं होते हैं। यदि हमारे बीच वचन में उल्लिखित पांचों सेवकाइयाँ सक्रिय रहें तो धोखा देने वालों के लिये बहुत कठिन होगा। इन असली सेवकाइयों का अभाव ही बहुत से ईसाइयों को आत्मिक रूप में बाल्य अवस्था में रहने को विवश करता है, जहां वे आसानी से झूठी और भ्रमपूर्ण शिक्षा के शिकार हो जाते हैं।

इसाई माँ बाप के बच्चे भी ऐसी ही अवस्था में हैं। वे लोग नये नियम के मार्ग पर चल नहीं पाते हैं। हम उन्हें शिक्षा देते हैं, अनुशासन करते हैं और व्यवस्था को उनके जीवन में लागू करते हैं। यद्यपि वे यीशु के मार्ग पर चलने की दृढ़ इच्छा दिखाते हैं, हम उन्हें व्यवस्था से स्वतन्त्र करके जो करने की इच्छा हो वही करने की आजादी नहीं दे सकते। वे लोग अभी भी तैयार नहीं हैं। पहले उन्हें बाहरी व्यवस्था पालन करना सिखना होगा।

नये विश्वासी को, पुरानी वाचा के अनुभव से गुजर कर जब तक वह आत्मिक रुप से परिपक्व नहीं हो जाता, पास्टर और शिक्षक आवश्यक हैं। उसके बाद ही वे लोग नये नियम के पूर्णता में चल सकते है। इसके बाद पास्टरों और शिक्षकों का काम पूर्ण हो जाता है। और वह अन्य सन्तों के साथ संगति का आनन्द पासकता है, जो पहले से बेहतर तथा गहरा होगा। वह अब दूसरे नये विश्वासियों को शिक्षा देगा तथा पास्टर की सेवकाई करेगा, परन्तु उसको स्वयम् शिक्षक की आवश्यकता नहीं होगी।

धर्मशास्त्र

व्यवस्था जो पहले पत्थर पर लिखी गयी और बाद में कागज पर विस्तृत रुप से लिखी गयी, पुरानी वाचा का आधार है। जबकि हमारे हृदय में लिखी गयी व्यवस्था नई वाचा का आधार। पुरानी वाचा के तहत धर्मशास्त्र में दैनिक जीवन यापन के लिये निश्चित व्यवस्था और नियम दिये गये थे। नई वाचा में भी क्या हमें धर्मशास्त्र की आवश्यकता है ? यदि हाँ, तो इसका स्थान क्या है ?

यीशु के विषय में भी इसी प्रश्न के साथ आरम्भ करते हैं। क्या उन्हें धर्मशास्त्र की आवश्यकता थी ? उनके जीवन में इनका स्थान क्या था ? मेरा विश्वास है कि उन्हें अपने लिये धर्मशास्त्र की आवश्यकता नहीं थी। परमेश्वर की व्यवस्था उनके हृदय में पूर्ण रूप से लिखी हुई थी। उनके सम्बन्ध पिता (परमेश्वर) के साथ एकदम ठीक थे और उसे प्रमाणित करने की कोई भी आवश्यकता नहीं थी। जीवन भर उनकी आपस में निर्बाध संगति थी। उन्हों ने जंगल में शैतान के साथ वाद–विवाद में धर्मशास्त्र के पद उधृत किये थे। उन्हें इसकी आवश्यकता थी या नहीं मुझे मालूम नहीं। फरिसीओं के साथ वाद विवाद करते समय भी उन्हों ने धर्मशास्त्र का उपयोग किया। उन्हों ने इम्माउस के रास्ते पर अपने शिष्यों को धर्मशास्त्र का अर्थ समझाया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि धर्मशास्त्र में अपने मन का प्रतिबिम्ब देखकर उन्हें बहुत प्रसन्नता मिलती थी। उन्होंने धर्मशास्त्र को, “शिक्षा, ताड़ना, सुधार एवं धार्मिकता की शिक्षा के लिए लाभदायक” पाया (२ तिमोथी ३:१६), किन्तु मुझे नहीं लगता कि अपने लिये उन्हें इसकी आवश्यकता थी।

यीशु हमारे प्रभु और मुक्तिदाता हैं, और साथ ही हमारे लिए एक नमूना तथा उदाहरण भी। परमेश्वर, हमारे पिता की इच्छा है कि हम यीशु जैसे बनें, और नई वाचा की पूर्णता में हम वैसा ही होंगे। ऐसा सोच गलत है कि धर्मशास्त्र की लगातार पढ़ाई से हमें यह लक्ष प्राप्त होगा। न तो यीशु ने लगातार धर्मशास्त्र अध्ययन करके पूर्णता पायी, न ही हम पा सकते हैं। उन्हों नें अपना चरित्र अपने पिता से प्राप्त किया था और हम भी वैसे ही प्राप्त करेंगें।

केवल धर्मशास्त्र पढने से हमारे हृदय में धर्मशास्त्र की सारी बातें लिखी नहीं जा सकतीं। यदि हमारा याददास्त अच्छा है तो ये हमारे मस्तिष्क में रह सकते हैं, किन्तु ये दोनों बातें अलग हैं। यह तो इसके विपरीत काम करता है। जब परमेश्वर अपनी व्यवस्था हमारे हृदय में लिखते हैं तो हम धर्मशास्त्र पढ़ते समय हमारे हृदय में लिखी बातें उनमें पाते हैं। यीशु के जैसे ही, धर्मशास्त्र समझ कर हमें भी प्रसन्नता मिलती है। हम भी धर्मशास्त्रको, “सिखाने, तालीम देने, सुधारने, ठीक करने और अन्धकार के कामों को बाहर लाने तथा औरों एवं अपने आप को सुधारने के लिये उपयोग कर सकते हैं।” अगर हमें जेल में बन्द कर दिया जाय और हमसे हमारी बाइबल छिन ली जाय तो निसन्देह धर्मशास्त्र का अभाव महसूस होगा किन्तु हमारा आत्मिक जीवन प्रभावित नहीं होगा। हमारे हृदय में लिखी बातें ही उनमें प्रतिबिम्बीत होती हैं, परन्तु उनके द्वारा परमेश्वर हमारे हृदय में अपना वचन नहीं लिखते। वह अपने आत्मा के द्वारा ऐसा करते हैं।

बाइबल को ‘परमेश्वर का वचन’ अथवा सिर्फ ‘वचन’ कहने से ही बहुत सी गलत फहमियां पैदा हुई हैं। बाइबल ने खुद को कभी भी इस प्रकार सम्बोधन नहीं किया है। इसने खुदको धर्मशास्त्र कहा है और बिलकुल अलग अर्थ में ‘परमेश्वर का वचन’ का उपयोग किया गया है। अगर आपको इस में सन्देह है तो बाइबल शब्दकोश में ढूढकर देखिए। प्रेरितों १७:११ मे इस तरह से लिखा है: “उन्हों बडी उत्सुकता से वचन को ग्रहण किया और पवित्र शास्त्रों में खोज बीन करते रहे ........,”। यहां पर ‘वचन’ का उपयोग स्पष्ट रुप से ‘शास्त्रों’ से भिन्न है। इसी तरह जब हम पढते हैं, “वचन देहधारी हुआ” तो स्पष्ट है कि यह बात बाईबल के विषय में नहीं लिखी है।

और भी तीन पद हैं जिन्हें अधिकतर बाइबल के स्थान पर उधृत किया जाता है। “मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा।” “आत्मा की तलवार, जो परमेश्वर का वचन है,” इफिसियों ६ अध्याय में उल्लिखित हथियारों में से एक। “परमेश्वर का वचन जीवित और प्रबल तथा कोई दो धार वाली तलवार से ज्यादा तेज है।” यह मान लेना कि ये पद धर्मशास्त्र को दर्शाते हैं, इनका पुरानी वाचा के अनुसार जबर्दस्ती अर्थ लगाना होगा। बाइबल की पुरानी वाचा के मर्म को विश्वास करना और सिखाना हमें नई वाचा के अनुभव में नहीं ला सकता। नहीं तो हम भी उन्ही लोगों की तरह होते, जिनको यीशु ने कहा, “हे व्यवस्थापकों, तुम पर हाय! क्योंकि तुमने ज्ञान की कूंजी छीन ली है! तुम ने तो स्वयम् प्रवेश नहीं किया और जो प्रवेश कर रहे थे उन्हें भी रोका ” (लूका११:५२)।

यदि ‘परमेश्वर के वचन’ का अर्थ बाइबल नहीं है तो इसका अर्थ क्या है ? जब हम पुराने विचारों को छोड़ देते हैं, तब हम इस प्रश्न का उत्तर पाना आरम्भ करते हैं। ग्रीक भाषा में ‘लोगोस’ शब्द का व्यापक अर्थ है, लेकिन इसके केन्द्र में दो शब्द ‘वचन’ और ‘विचार’ हैं। परमेश्वर जो कहता है या सोचता है वही उसका वचन अथवा ‘लोगोस’ है। यह उससे आरम्भ होने वाला कोई सन्देश या विचार है। परमेश्वर के बोले गये वचन से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई। वह प्राचीन भविष्यवक्ताओं से और उनके द्वारा लोगों से बात करते थे। उन्हों ने अपने पुत्र यीशु मसीह में एवं यीशु मसीह के द्वारा बातें कीं। वह आज भी अपने लोगों से और उनके द्वारा बोलते हैं। ये सब उसके वचन हैं। जब उसका वचन हमारे पास आता है, वह हमारे लिए भोजन होता है, जिससे हम जीवीत रहते हैं। यह शक्तिशाली होता है तथा हमारे हृदय आर पार हो जाता है। यह आत्मा की तलवार है। यह कभी भी व्यर्थ नहीं लौटती, किन्तु जिस उद्देश्य से उन्हों ने भेजा है, उसको पूरी करता है।

कृपया गलत मत समझिए - मैं धर्मशास्त्र के अधिकार अथवा प्रेरणा को इन्कार नहीं कर रहा हूं। मेरा प्रयास तो नई वाचा में इसके स्थान को स्पष्ट करना है। यीशु ने धर्मशास्त्र को जो स्थान दिया साथ ही बाइबल खुद ने जो स्थान दिया वही स्थान मैं भी देना चाहता हूं।

अन्य परिवर्तन

नई वाचा के साथ और क्या परिवर्तन हुए हैं? जैसे ही हम इस विषय का अध्ययन करते हैं, हमें परमेश्वर के उपाय का आश्चर्यजनक निरन्तरता देखने को मिलता है। कभी कभी ये इतने साधारण होते हैं कि हमें आश्चर्य होता है कैसे इतने लम्बे समय हम जान नहीं पाये। जैसा हमने देखा है, हम दृश्य बाहरी व्यवस्था से निकलकर अदृश्य भितरी व्यवस्था तक आ पहुँचे हैं। इसी प्रकार बाहरी मानवीय शिक्षकों का स्थान हमारे अन्दर वास करने वाले परमेश्वर के आत्मा ने ले ली है।

हम आगे देखेंगे कि नई वाचा के साथ और बहुत सारी समानान्तर एवं इससे सम्बन्धित परिवर्तन आये हैं। हम परमेश्वर की नई जाति के विषय से आरम्भ कर विचार करते हैं।

नई जाति

पुरानी वाचा के अन्तरगत परमेश्वर ने पृथ्वी के बहुत सी जातियों में से एक विशेष जातिको चुना। वे लोग इस्राएली थे जो अब्राहम, इसहाक और याकुब के वंशज थे जिन्हें बाद में यहूदी कहा गया। आज तक सांसारिक रुप से ये लोग ही परमेश्वर द्वारा चुने गये लोग हैं। यद्यपि कोई भी आदमी यहूदी धर्म अपनाकर यहूदी बन सकता है किन्तु इस जाति का सदस्य बनने के लिये यहूदी मां की कोख से जन्म लेना ही साधारण उपाय है।

जब मसीह इस्राएल में आये, उस देश के धर्मगुरु और बहुसंख्यक यहूदियों ने उन्हें इन्कार किया। बादमें यहूदियों ने शुरु के मण्डली का शक्तिशाली और शुद्ध साक्षी को भी इन्कार किया। इसके फलस्वरूप, परमेश्वर का इनसाफ़ यहूदियों पर आया और ई.सं. ७० में रोमीयों ने यरुशलेम आक्रमण किया और यहूदी लोग संसार भर तितर-बितर हो गये। उनके उपर शारीरिक यातना और आत्मिक अन्धकार आ पड़ा जिससे लगभग१९०० वर्षों तक वे एक देश से दूसरे देश में घूमते रहे, लेकिन उन्हें कभी विश्राम नहीं मिला।

पिछली सदी में यहूदियों के जीवन में बहुत सी नाटकीय घटनाएं घटीं, जब उन का लम्बा प्रवास समाप्त हुआ और इनका आत्मिक अन्धापन हटने लगा। हिटलर द्वारा किये गये नर-संहार ने विश्व् को ही स्तब्ध कर दिया था और इसके बाद आधुनिक इस्राएल का जन्म और उनका सुरक्षित बचे रहना विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया है।

यहूदि जाति की उपलब्धियां उनके कूल जनसंख्या के अनुपात में बहुत ज्यादा हैं। उन्हीं के द्वारा विश्व को धर्मशास्त्र, साम्यवाद और आणविक हथियार मिले हैं। उन लोगों का शैक्षिक, वैज्ञानिक और कला के क्षेत्र में उपलब्धीयां आश्चर्यजनक हैं। ये सारी बातें यही दर्शाती हैं कि ये एक विशेष जाति हैं और परमेश्वर में इनका विशेष उद्देश्य है।

उन लोगों के बीच नाटकीय और अद्भूत ढंग से परमेश्वर के शक्ति का प्रदर्शन होते हुए भी इस्राएली लोग पुरानी वाचा में ही बँधकर रह गये। वह एक महान दिन था जब यहोवा परमेश्वर ने हाथ बढाकर अपने शक्तिशाली सामर्थ के द्वारा पुरानी वाचा के इस्रालियों को मिश्र की भूमि से निकाल लाया था। वह और भी महान दिन था जब यीशु ने हाथ फैलाकर तथा अपना लहू बहाकर अपने नई वाचा के लोगों को पाप से निकाल लाया था।

शारीरिक जन्म के द्वारा पुरानी वाचा के समुह में प्रवेश मिलता है, आत्मिक जन्म से हम नई वाचा में प्रवेश करते हैं। जो परमेश्वेर के आत्मा के द्वारा जन्म लेते हैं, सिर्फ वही और सिर्फ वही लोग परमेश्वर की नई जाति के लोग हैं। सिर्फ नया जन्म ही हमें परमेश्वर के बेटे–बेटियां बना सकता है।

यहाँ हमें इस बात पर जोड देना आवश्यक है कि बप्तिस्मा लेना, किसी झूण्ड या सम्प्रदाय की सदस्यता लेना, हमारे अच्छे काम, राष्ट्रियता, रंग, अथवा कोई भी मानवीय गुण हमें परमेश्वर के नई वाचा की विशेष जाति का सदस्य नहीं बना सकता। आत्मिक जन्म ही प्रवेश पाने का एक मात्र उपाय है।

इस आत्मिक जाति के कुछ सदस्यों ने विशेष स्वाभाविक वरदान पाये हैं। परमेश्वर ने मुख्यतया इस संसार के गरीब और कमजोर व्यक्तियों को चुना है। पौलुस हमें याद दिलाता है, “शरीर के अनुसार तुम में से न तो बहुत बुद्धिमान, न बहुत शक्तिमान और न बहुत कुलीन बुलाए गए। परन्तु परमेश्वर ने संसार के मूर्खो को चुन लिया है कि ज्ञानवानों को लज्जित करे, और परमेश्वर ने संसार के निर्बलों को चुन लिया है कि बलवानों को लज्जित करे” (१ कोरिन्थी १:२६–२७)।

इसके बावजुद परमेश्वर की नई जाति के व्यक्तियों के पास आत्मिक वरदान और शक्ति हैं। इनमें से अधिकांश शारीरिक आँखों के लिए अदृश्य और समझ से परे हैं। तथापि इनके वास्तविक लाभ व्यापक हैं। जब तक स्वर्ग की पुस्तकें नहीं खोली जातीं और उनमें लिखी गुप्त बातें ज्योति में नहीं लायी जातीं, परमेश्वर के बहुत से दास दासियों के जीवन के आत्मिक संघर्ष एवं उनके विजय समाज के नजर से ओझल ही रहेंगे। मनुष्य की भलाई के दिर्घकालीन काम कैसे हुए हैं यह केवल अनन्त ही प्रकट करेगा।

परमेश्वर के पुरानी वाचा की जाति के सदस्य के रूप में जन्म लेना सौभाज्ञ की बात है। परन्तु आत्मिक जन्म के द्वारा परमेश्वर के नई वाचा की सन्तान के रूप में जन्म लेना इससे भी बडे सौभाज्ञ की बात है। परमेश्वर की स्तुति हो, शारीरिक जन्म और आत्मिक जन्म, दोनों तरह से परमेश्वर के लोगों में वृद्धि हो रही है।

नये याजक

नई वाचा में केवल नई जाति ही नहीं हैं बल्कि नये याजक भी हैं। पुरानी वाचा के याजक लेवी के वंश और हारुन के घराने से लाये जाते थे। तम्बू और मन्दिर में उनके काम स्पष्ट रुप से परिभाषित थे, क्योंकि वे लोग परमेश्वर और मनुष्य के बीच मध्यस्थ का काम करते थे। इब्रानियों की पत्री के ७ अध्याय में इस बात को पुरी तरह स्पष्ट किया गया है कि नई वाचा में नया याजक पद है, जो पुराने पद से अति उत्तम है। इस नई रीति को मेल्कीसेदेक की रीति कहते हैं और यीशु इसके महायाजक हैं।

लेवी वंश के याजक पद की सदस्यता वंशानुगत था पिता के बाद पुत्र स्वत: याजक होता था। इस व्यवस्था का परिणाम सदा अच्छा नहीं होता था। अच्छे पिता के पुत्र सदा ही अच्छे अच्छे हों, आवश्यक नहीं। एली के बेटे पुरी तरह भ्रष्ट थे और शामुएल के बेटे भी कोई अच्छे नहीं थे। वंशानुगत उत्तराधिकार विश्वसनीय नहीं होता। जो भी हो लेवी वंश का याजकीय व्यवस्था व्यावहारीक था और याजकीय परीकल्पना को दरशाने के लिये पर्याप्त था।जब तक परमेश्वर ने मल्कीसेदेक की रीति के नये याजक पदको स्थापित नहीं किया, इसका उपयोग करते रहे।

इब्रानियों ७:३ में मेल्कीसेदक के बारे में उल्लेख किया गया है, “इसका न कोई पिता, न माता, और न कोई वंशावली है। इसके दिनों का न कोई आदि है और न जीवन का अन्त, परन्तु परमेश्वर के पुत्र सदृश ठहरकर यह सदा के लिए याजक बना रहता है।” यीशु ने इस नये याजक पद में प्रवेश किया, “शारीरिक व्यवस्था द्वारा निर्धारित नियम के अनुसार नहीं, परन्तु अविनाशी जीवन की सामर्थ के अनुसार ” (इब्रानियों ७:१६)। उनका प्रवेश इस लिये नहीं हुआ कि उनके अविभावक यूसुफ इसमें थे, न ही किसी धार्मिक समिति ने उन्हें स्वीकार किया था, परन्तु परमेश्वर द्वारा नियुक्त हुए थे। साधारण तौर पर याजक पद के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित योज्ञता उनमें थी। उनका अभिषेक कोई धार्मिक विधि नहीं, बल्कि उनकी बप्तिस्मा के समय परमेश्वर के द्वारा की गई घोषणा थी, “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिस से मैं अति प्रसन्न हूं” जब पवित्र आत्मा कबूतर के रूप में यीशु पर उतरे थे।

लेवी वंश के याजकों ने अपना उद्देश्य पुरा कर लिया है। धार्मिक याजक सिर्फ इसका नकली रुप ही रहे हैं। (जबकि उनमें बहुत से लोग आज्ञाकारी और धर्मी भी रहे हैं।) नई वाचा के अन्तर्गत परमेश्वर मेल्कीसेदक की रीति के याजक उसी अधार पर नियुक्त करते हैं जैसे उनका महायाजक नियुक्त किया था। अपने काम के लिए चुन कर नियुक्त किये गए लोगों को परमेश्वर पवित्र आत्मा से अभिषेक करते हैं।

इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए मेल्कीसेदेकदेकका याजक पद देखें।

नया भवन

नई वाचा में नई जाति, नये याजक और नया भवन भी है।

इस्राएल के इतिहास के स्वर्ण युग में राजा सुलेमान ने प्रथम भव्य मन्दिर का निर्माण किया था। दाऊद राजा के सैनिक सभी युद्धों में विजयी हुए थे और परिणाम स्वरूप, राजा सुलेमान शान्ति और समृद्धि उपभोग कर रहा था। उन्हों ने अपनी शक्ति परमेश्वर के लिये एक भवन निर्माण करने में लगाया। इसकी आज्ञा परमेश्वर ने कभी नहीं दी थी, यद्यपि उन्हों ने मूसा को तम्बु निर्माण के लिए आवश्यक निर्देशन दिये थे। यह तो दाऊद की हार्दिक इच्छा थी जिसे पुरा करने के लिये परमेश्वर ने राजा सुलेमान को अनुमति दी थी।

परमेश्वर ने इस मन्दिर को अधिक महत्त्व नहीं दिया। उज्जियाह राजा के शासन कालमें उन्होंने भुकम्प से इसे नष्ट हो जाने दिया। बन्दी बनाते समय नबूकदनसर राजा ने उसे जलाकर मिट्टी में मिला दिया। बाबेल प्रवास से लौटकर आए हुए लोगोंने फिर से इसका निर्माण किया। अन्तिओकस् एपिफनेस ने इस मन्दिर में जुपिटर देवता की मूर्ति रख कर और वेदी पर सुअर का बलि देकर उसे अपवित्र कर दिया। दुष्ट राजा हेरोदेस ने फिर इस मन्दिर का निर्माण कराया और इसे एक भव्य रूप दिया जो यीशु के समय में भी खड़ा था। उस समय के यहूदी मन्दिर को बहुत आदर देते थे। यीशु, स्तिफनस और पौलुस तीनों को मन्दिर के कारण ईश्वदर निन्दा का अभियोग लगा था। जब यीशु के शिष्य मन्दिर का गुण गान कर रहे थे, उन्होंनें कहा, “क्या तुम यह सब नहीं देखते? मैं तुमसे सच कहता हूँ, यहां एक पत्थर के उपर दूसरा पत्थर भी नहीं रहेगा जो ढाया न जायेगा” (मत्ती २४: २)।

परमेश्वर का मन तो एक दूसरा मन्दिर बनाने में लगा था – नई वाचा का मन्दिर। “हात से निर्मित भवन में सर्वोच्च परमेश्वर निवास नहीं करते” ऐसा स्थिफनस ने अपने प्रवचन में बताया था जिसके कारण वह यीशु के लिए पहला शहीद बना। ईश्वरीय योजना बहुत उँची थी। उनका असली मन्दिर तो मानव जाति से बनना था। वह ईंट और पत्थर से बने भवन में नहीं बल्कि लहू और मांस से बने हुए मन्दिर में वास करना चाहते थे। नये नियम में ऐसे सन्देश भरे हुए हैं, “तुम लोग पवित्र आत्मा के मन्दिर हो।” परमेश्वर अपनी आराधना के लिये विशेष भवन चाहते हैं, इस विचार का सदा के लिए अन्त हो चुका है। उस सांसारिक मन्दिर के बारे में उन्हों ने अपना फैसला तभी दे दिया था जब रोमी सैनिकों ने ई.सं. ७० में मन्दिर के नींव में छिपाया हुआ सोना ढुढते समय एक भी पत्थर को दूसरे पर नहीं छोड़ा और यीशु की भविष्यवाणी का एक एक शब्द पुरा हुआ।

हिन्दू धर्मावलम्बी और बौद्ध धर्मावलम्बीयों के देवता मन्दिर में रहते हैं। मुस्लिमों के भी मस्जिद होते हैं जिसे पवित्र माना जाता है। हमारे मण्डली भवनका अर्थ क्या है ? क्या ये भी दूसरे मन्दिरों जैसे पवित्र स्थान हैं? कदापि नहीं। हम विश्वासी लोग यदि अपने-अपने घरों में इकट्ठा होकर, पेड के नीचे इकट्ठा होकर, नदी किनारे इकट्ठा होकर अथवा मण्डली भवन में ही यीशु मसीह के नाम में संगति करते हैं तो वह हमारे बीच में रहते हैं। मण्डली का अर्थ घर (भवन) नहीं है। हम लोग स्वयम् परमेश्वर के पवित्र मन्दिर हैं। मण्डली-भवन (घर) तो दूसरे ईंट और पत्थर से बने हुए घर से अलग नहीं हैं।

ईंगलैण्ड के ग्रामीण क्षेत्र में निर्मित अधिकांश मण्डली भवन उसी जगह पर बने हैं जहाँ प्राचीन देवी देवताओं के पूजा स्थल थे। पुरानी वाचा के समय में भी ऐसी ही स्थिती थी। इस्राएल के लम्बे इतिहास में यहोवा की आराधना उन्हीं उचें स्थानों पर की जाती थी, जहां पहले अन्य जाति बलि चढ़ाया करते थे। ऐसा लगता है कि शमूएल नबी ने भी ऐसा ही किया था लेकिन निस्सन्देह परमेश्वर ने उसके हृदय के विचार को देखा और उसके बलिदान को ग्रहण किया। यहूदा के बहुत से धर्मी राजाओं ने भी बहुत वर्षों तक ऐसी ही विधि पालन करने दिया। राजा हिजकियाह अपने पूर्वजों से आगे बढकर इन उँचे स्थानों को नष्ट कर दिया। परमेश्वर ने उसके बारे में इस तरह से घोषणाँ किया, “यहूदा के राजाओं में उसके पूर्व और उसके पश्चात् उसके समान कोई न हुआ। वह यहोवा से लिपटा रहा और उसके पिछे चलना न छोड़ा ... यहोवा उसके के साथ था ...” (२ राजा१८:५-७)।

नये पर्व

पर्वों के सम्बन्ध में भी हम वही नियम पाते हैं जो इससे पहले हम देख चुके हैं। परमेश्वर ने पुरानी वाचा के अन्तरगत विभिन्न पर्वों की स्थापना की। इनमें मुख्य फसह, पेन्तिकोश और झोपडियों के पर्व थे। उन्हों नें मूसा के द्वारा इस्राएलीयोंको वर्ष में तीन बार यरूशलेम जाकर इन पर्वों को मनाने का आदेश दिया। इन पर्वों को विश्वास योज्ञ तरिके से मनाने के लिये बहुत समय, प्रयास और खर्च की आवश्यकता पड़ती थी और सदिंयों तक इन्हें भुलाया जाता रहा। राजा हिजकियाह, राजा योसियाह और बाद में शास्त्री एज्रा ने इन पर्वों को पुनर्स्थापित किया इनको मानने के लिये जनता को निर्देशन दिये।

यीशु ने इससे भी उत्तम चीज दी। उन्हों नें इन पर्वो को नई वाचा के अन्तर्गत नया अर्थ दिया। पौलुस इस बात को इस तरह उल्लेख करते हैं, “हमारे फसह का मेमना मसीह भी बलिदान हुआ है। इसलिये हम न तो पुराने खमीर से, न बुराई व दुष्टता के खमीर से, परन्तु निष्कपटता और सच्चाई की अखमिरी रोटी से फसह मनायें ”(१ कोरिन्थी ५:७-८)। मन के अन्दर स्थित उत्तम पर्वों का पत्ता लगाने के बाद धिरे धिरे यीशु के शुरुआती शिष्य इन बाहरी पर्वों से दूर होते गए।

पुरानी मण्डलीयों ने, विशेष तौर पर जो रोमी सम्राट कन्स्टन्टिन के शासन काल में स्थापित हुई थीं, नई वाचा की आत्मिक वास्तविकता को भूलकर अन्य जाति के पर्वों को मनाना आरम्भ कर दिया जिसकी परमेश्वर ने कभी आज्ञा नहीं दी थी। बड़ा दिन, ईष्टर और मण्डली से सम्बन्धित और पर्व, सभी का आरम्भ मूर्ति पूजक पर्वों से हुआ है।

नया विश्राम दिन

विश्राम दिन भी पर्वों जैसा ही है। विश्राम दिन को परमेश्वर ने अपने और इस्राएली जाति के बीच पवित्र वाचा के रुप में स्थापित किया था। विश्राम दिन सप्ताह का सातवाँ दिन अथवा शनिवार था। इब्रानियों के लेखक स्पष्ट करते हैं कि विश्राम दिन आत्मिक विश्राम दर्शाता है जिसका सप्ताह के किसी भी दिन से सम्बन्ध नही है। वह इस तरह बताते हैं, “इसलिये परमेश्वर के लोगों के लिये सब्त का विश्राम शेष है। ... इसलिये हम भी उस विश्राम में प्रवेश करने के लिए प्रयत्नशील रहें, कहीं ऐसा न हो कि उसी प्रकार आज्ञा न मानने के कारण किसी व्यक्ति का तन हो जाए ” (इब्रानियों ४: ९,११)।

मण्डली फिर, विभिन्न व्यक्तियों द्वारा स्वीकारे जाने और परमेश्वर द्वारा त्याग दिये जाने के बाद अन्य जाति से अपनी प्रेरणा ली और रविवार को अपने विशेष कार्यक्रम के लिये चूना।

सारांश

हम लोगों ने व्यवस्था, शिक्षक, धर्मशास्त्र, जाति, याजक, भवन, पर्व और विश्राम दिन से सम्बन्धित तथ्यों पर विचार किया है। प्रत्येक विषय में एक ही प्रकार के तीन विशेष तत्त्व हैं:

पुरानी वाचा के बहुत से योज्ञ शिक्षक थे, उसके बाद हम में वास करने वाले शिक्षक का महिमीत वास्तविकता, और उसके बाद बहुआयामी प्रदर्शन के साथ नकली धार्मिक मर्यादाक्रम। परमेश्वर ने अपने लोगों को धार्मिक और अच्छी व्यवस्था दी, इसके बाद मनुष्य के हृदयमें लिखी गयी आश्चर्यजनक आत्मिक व्यवस्था दी। बड़े दुख की बात है कि इसके बाद सदियों तक मनुष्य अपने ही बनाये नियम, धार्मिक अनुष्ठान और प्रार्थना-पुस्तकों में उलझा रहा, जिसकी परमेश्वर ने कभी प्रेरणा नहीं दी थी। अब्राहम, इसाहक और याकूब के वंशज पुरानी वाचा के लोग हुए, पवित्र आत्मा से जन्मे लोग नई वाचा के लोग हुए, साथ साथ बपतिस्मा और मण्डली की सदस्यता लेकर एक नकली जाति बनी। हमलोग लेवी वंश के याजक, मेल्कीसेदक की रीति के याजक और धार्मिक याजक देखते हैं। पुरानी वाचा का तम्बु था, उसके बाद मन्दिर बना, और फिर नई वाचा का आश्चर्यजनक मानव मन्दिर जो इन सब से बढ़कर था, इसके बाद मूर्तिपूजक भवन जिसे परमेश्वर के भवन के रूप में दाबी किया जाता है। हम लेवी के छाया पर्व, नई वाचा के वास्तविक पर्व और अन्य जाति के नकली पर्व भी देखते हैं। अन्त में पुरानी वाचा का विश्राम दिन, नई वाचा का आत्मिक विश्राम और नकली मण्डली का रविवार भी देखा।

येशू ने अपने लहू के द्वारा नई वाचा का आरम्भ किया। उनके प्रथम शिष्यों में से बहुतों ने उनके पिछे चलने के कारण अपना लहू बहाया। इब्रानियों की पत्री मुख्यतया उन्हें इस संघर्ष में मजबूत होने के लिये लिखी गयी थी। पुराने जीवन की ओर लौटने की इच्छा रखने वालों के लिये इसमें बहुत से चेतावनी हैं। इस पत्री का हरेक अध्याय इस विषय के लिये सान्दर्भिक है। अन्त में इब्रानियों की पत्री के १२:१८-२५ को उधृत करते हुए समाप्त करना चाहता हूं।

“क्योंकि तुम उस पर्वत के पास नहीं आए जिसे छुआ जा सके, और न प्रज्वलित अग्नि, न अन्धकार ......... परन्तु तुम तो सिय्योन पर्वत के और जीवित परमेश्वर के नगर स्वर्गीय यरुशलेम में तथा असंख्य स्वर्गदूतों के पास, और महासभा अर्थात् उन पहिलौठों की कलीसिया के समीप जिनके नाम स्वर्ग में लिखे हैं, और सब के न्यायाधीश परमेश्वर और सिद्ध किए हुए धर्मियों की आत्माओं की उपस्थिती में, तथा नई वाचा के मध्यस्थ यीशु के और छिडकाव के उस लहु के पास आए हो, जो हाबील के लहु की अपेक्षा उत्तम बातें कहता है। सावधान रहो और उस बोलने वाले का इनकार न करो।”

अनुवादक - डा. पीटर कमलेश्वर सिंह

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