परमेश्वर का नाम

और

यीशु का नाम

परिचय

बाइबल में परमेश्वर का नाम और यीशु का नाम, दोनों ही महत्त्वपूर्ण विषय हैं। दोनों विषय रहस्य हैं और इन्हें समझने के लिये हमें नम्रता और प्रार्थना के साथ आना चाहिये। सम्भव है मेरी कुछ बातें समझ में न आयें और इसके लिये पवित्र आत्मा के प्रकाश की आवश्यकता पड़े।

हमारी संस्कृति में नाम का उद्देश्य किसी व्यक्ति को एक पहचान देना है। एक व्यक्ति को दूसरे से अलग सम्बोधन करने के लिये हम नाम का उपयोग करते हैं। ऐसा नहीं करने से हम किस व्यक्ति से बात कर रहे हैं, यह जान ही नहीं पाते। बहुत से व्यक्ति अपने सन्तान का ऐसा नाम चुनते हैं जो उन्हें बुलाने में अच्छे लगते हैं। अनजाने में वे ऐसा इसलिये करते हैं कि इस खास नाम के वास्तविक या काल्पनिक व्यक्ति उन्हें अच्छे लगते थे। कमल, चन्द्र प्रकाश, ज्योति, मोहन जैसे नाम, ऐसे नाम वाले व्यक्तियों के गुण कदापि नहीं दर्शाते। ये तो सिर्फ विभिन्न व्यक्तियों को अलग अलग सम्बोधन करने के लिये हैं। बहुत कम लोगों के नाम अर्थपूर्ण होते हैं, जैसे बिहारी, बंगाली, गोबारी, खोभाडी आदि।

बाइबलीय संस्कृति में नाम उनके अर्थ के अनुसार चुने जाते थे। नाम प्रायः हिब्रू शब्द या वाक्यान्श होते थे जिन्हें कोई भी समझ सकता था। ये नाम कभी कभी मां-बाप के अनुभव को दर्शाते थे। मूसा ने अपने बेटे का नाम गेरशोम (इस धरती पर परदेशी) रखा। उस समय वह मरु-भूमि में परदेशी था। युसुफ का अर्थ और अधिक होता है। उसकी मां राहेल की प्रार्थना थी कि परमेश्वर उसे और अधिक पुत्र दे। बेंजामिन का अर्थ दायें हाथ का पुत्र होता है। और दूसरे नाम भविष्य से सम्बन्धित थे। होसे ने एक पुत्र का नाम लो-आमी रखा, जिसका अर्थ होता है, ‘मेरे लोग नहीं हैं’। यशायाह ने अपने बेटे का नाम माहेर-शलाल-हश-बाज रखा, जिसका अर्थ है, ‘लूट की शीघ्रता और शिकार की तेजी’। यीशु नाम इसलिये रखा गया कि वे अपने लोगों का उनके पापों से उद्धार करेंगे। आत्मिक अवस्था में नाम अपने धारको का गुण दर्शाते हैं। नये नियम में दुष्टात्माओं ने अपना नाम ‘सेना’ बताया था, क्योंकि वे अनगिनत थे। प्रकाशित वाक्य की पुस्तक में ऐसे स्वर्ग दूत हैं जिनके नाम मृत्यु और एपोलियोन हैं, यूनानी भाषा में इसे विनाशक कहते है। शैतान शब्द का अर्थ ‘ शत्रु या विरोध करने वाला’ होता है। बहुत से लोग जिन्हें छुटकारे की सेवकाई और भूतात्मा निकालने का अनुभव है, वे पाते हैं कि चुनौती देने पर भूतात्मा अपना नाम बताते हैं। वे ‘लोभ’ या ‘अभिलाषा’ जैसे नाम बताते हैं जो उनके चरित्र को दर्शाता है।

इस प्रकार बाइबल में नाम रखने के दो उद्देश्य हैं, चरित्र दर्शाना और परिचय देना।

नामों के हमारे आधुनिक उपयोग और बाइबल के सांस्कृतिक भिन्नता के बाद भी एक समस्या है। जैसा यशायाह ने कहा है, परमेश्वर के विचार हमारे विचार नहीं है और न ही उसके मार्ग हमारे मार्ग हैं। लेकिन उसके मार्ग और उसके विचार हमारे मार्ग और विचार से ऊपर हैं। या कम से कम हमारे मन के नया नहीं होने तक तो ऐसा ही है। जैसे जैसे हमारा मन यीशु के मन के समान होता जायेगा, यशायाह का निराशावादी आकलन हमारे जीवन में गलत प्रमाणित होता जाएगा। यदि हम परमेश्वर की गहरी बातें समझने की आशा रखते हैं तो हमें शारीरिक तरीके से नहीं वरन् स्वर्गीय तरीके से विचार करना सीखना आवश्यक है। शारीरिक मन परमेश्वर के साथ शत्रुता है। शारीरिक मनुष्य परमेश्वर के आत्मा की बातें स्वीकार नहीं करता, क्योंकि ये बातें उसके लिये मूर्खता की बातें हैं, और वह इन्हें समझ नहीं सकता क्योंकि ये आत्मिक रूप से परख की जाती हैं। यदि हम परमेश्वर का मन जानने की आशा करते है तो हमें पवित्र आत्मा के प्रकाश की आवश्यकता है। विभिन्न शब्दों के जो अर्थ हम देखते है, वे परमेश्वर के द्वारा दिये गये विस्तृत और गहरे अर्थ की सिर्फ छाया भर हो सकते हैं।

परमेश्वर का नाम

परमेश्वर के नाम के विषय में बहुत कुछ सोची, कही और लिखी गयी हैं। आइये, हम इसी विषय पर विचार करेंगे। परमेश्वर के नाम का अध्ययन करके हम जो कुछ सिखते हैं, वे भले ही विद्वता पूर्ण लगें, पर आगे जाकर यीशु के नाम का गहरा अध्ययन करने के लिये यह तैयारी का समय साबित होगा।

प्रस्थान के तीसरे अध्याय से हम आरम्भ कर सकते हैं, जहां मूसा जलती हुई झाड़ी के पास खड़ा है। हमारे वर्तमान उद्देश्य के लिये हम सर्वप्रथम छठे पद को देखेंगे जहां परमेश्वर यह कहकर अपना परिचय देते हैं, “मैं तेरे पिता का परमेश्वर, और इब्राहीम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर, और याकूब का परमेश्वर हूं।” हमारे मानवीय सोच के अनुसार परमेश्वर को ऐसा कहना चाहिए था, “मैं सर्व शक्तिमान सारे ब्रह्मांड का सृष्टिकर्ता हूं, सर्व ज्ञानी, सर्व प्रेमी हूं और मेरा नाम यहवह है।” आदिवासियों के बीच कोई मिशनरी परमेश्वर का परिचय कुछ इसी प्रकार देने का प्रयास कर सकता है। पर जैसा हमने देखा, परमेश्वर ने अपना कोई विवरण, कोई नाम नहीं दिया। अपना एक मात्र परिचय उन्होंने अपने अनुयायियों इब्राहीम, इसहाक और याकूब के नाम से दिया - ये ऐसे लोग थे जिन्होंने कुछ अंश में ही सही, परमेश्वर के चरित्र का प्रदर्शन तो किया था। यह हमें परमेश्वर का मन और स्वभाव दिखाता है। शब्द, नाम और विवरण उनके लिये पुरी तरह अपर्याप्त हैं। उनका विवरण और उनका परिचय, दोनों उनके लोगों द्वारा होता है, विशेषकर उनके पुत्र द्वारा। उन्हें समझने के लिये उनका मानव रूप में दिखना आवश्यक है। शरीर में उनका प्रकट होना आवश्यक है।

पुराने नियम में परमेश्वर के बहुत सारे नाम और उपाधि मिलते हैं। इनमें सेनाओं का प्रभु, स्वर्ग का परमेश्वर, अति उच्च परमेश्वर, एल सदाइ और अन्य नाम हैं। बहुतों ने इन के अर्थ के अच्छे और सार पूर्ण अध्ययन किये हैं, पर यीशु ने ऐसा नहीं किया। इसके बदले उन्होंने कहा, “जिसने मुझे देखा है, उसने पिता को देखा है”। जिन चीजों को आप नहीं देख रहे है, उनका विवरण आवश्यक होता है। मैं आपके सामने लन्दन का वर्णन कर सकता हूं, पर इससे भी अच्छा होगा आप स्वयं लन्दन आकर अपनी आंखों से देखें।

लोगों के आगे परमेश्वर का वर्णन करना यीशु के लिये आवश्यक नहीं था। वह स्वयं विवरण थे। वे परमेश्वर के नाम हैंऔर थे। जब आप कुछ लोगों के साथ होते है तो आप उनकी तस्वीर को निहारते नहीं रहते। वे स्वयं आपके सामने हैं।

आइये, हम झाड़ी की ओर लौटें। अपने आप को इब्राहिम, इसहाक और याकुब के परमेश्वर के रूप में परिचय देने के बाद परमेश्वर ने मूसा को आज्ञा दी कि फिरौन के पास जाए और इस्राएलियों को मिश्र देश से बाहर लाये। मूसा के आगे परिचय की दो समस्याएं आयीं। पहली समस्या, “मैं कौन हूं जो फिरौन के पास जाऊं” और दूसरी समस्या, “आप कौन हैं?”

उसने परमेश्वर से कहा, “देखिए, मैं इस्राएलियो के पास जा रहा हूं, और मैं उनसे कहूंगा, “तुम्हारे पुरखों के परमेश्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।” तब वे मुझसे पूछ सकते है, “उनका नाम क्या है?” तब मैं उनको क्या उत्तर दूंगा?”

यदि हम परमेश्वर के उत्तर को समझना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम हमें मूसा के प्रश्न का पृष्ठभूमि विचार करना पड़ेगा। मूसा का पालन पोषण बहु ईश्वरवादी संस्कृति में हुआ था। लोग विभिन्न प्रकार के देवी देवताओं को मानते थे, जिनका परिचय देने के लिये हरेक का अपना अलग अलग नाम था। आप सूर्य या चांद की बात कर सकते है क्योंकि दोनों एक एक ही हैं। लेकिन आप तारा की बात नहीं कर सकते क्योंकि इनकी संख्या लाखों में है और एक को दूसरे से अलग करने के लिये इनमें से हरेक का अपना नाम होना आवश्यक है। सूर्य और चन्द्रमा के नाम नहीं हैं क्योंकि उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं है।

क्या वास्तव में परमेश्वर का कोई नाम है? मूसा को लगता था कि परमेश्वर का नाम है। आज भी बहुत से लोग मानते हैं कि उनका नाम है। आइये, हम देखें कि बाइबल क्या कहती है।

१४ वें पद में परमेश्वर का उत्तर है, “मैं जो हूं सो हूं”। इसका सरल अर्थ होगा, “मैं स्वयं हूं”। दूसरे शब्दों में परमेश्वर मूसा को उत्तर दे रहे हैं, ‘तुम्हारा प्रश्न गलत है। मेरा कोई नाम नहीं है। मैं एक मात्र परमेश्वर हूं और वास्तव में दूसरे देवी देवताओं से अलग करने के लिये मेरा नाम नहीं हो सकता, क्योंकि दूसरा कोई परमेश्वर नहीं है। दूसरा कोई नाम भी उपलब्ध नहीं है जो मेरा वर्णन पूरी तरह कर सके।”

यीशु ने अपने महायाजकीय प्रार्थना में कहा, “मैंने आपके नाम को प्रकट किया है” (यूहन्ना १७:६) और “मैं ने तेरा नाम उन को बताया” (यूहन्ना १७:२६)। मूसा के प्रश्न का यही एक मात्र ठीक उत्तर था। यीशु स्वयं एक व्यक्ति के रूप में परमेश्वर का नाम थे और हैं।

परमेश्वर यह कहते हुए अपनी बात जारी रखते हैं, “इस्राएलियो से कहो, ‘मैं हूं’ ने मुझे तुम लोगों के पास भेजा है।” इस कथन का अर्थ स्पष्ट नहीं होता है, हिब्रू भाषा में भी नहीं। इस बात की अस्पष्टता यह दिखाती है कि मूसा के प्रश्न का सीधा उत्तर परमेश्वर के पास नहीं था।

इसके बाद परमेश्वर कहते हैं, “तू इस्राएलियों से यह कहना, कि तुम्हारे पितरों का परमेश्वर, अर्थात इब्राहीम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर और याकूब का परमेश्वर, यहोवा उसी ने मुझ को तुम्हारे पास भेजा है। देख सदा तक मेरा नाम यही रहेगा, और पीढ़ी पीढ़ी में मेरा स्मरण इसी से हुआ करेगा” (प्रस्थान ३:१५)।

जैसा मैं समझता हूं, परमेश्वर का कहना है, “मेरा कोई नाम नहीं है। मानवीय शब्द मेरा वर्णन नहीं कर सकते। मेरा पहले लहू और मांस में देखा जाना और फिर आत्मा में पहचाना जाना आवश्यक है। दूसरे देवी देवताओं से अलग परिचय के लिये भी मुझे किसी नाम की आवश्यकता नहीं है क्योंकि दूसरा कोई परमेश्वर नहीं है। फिर भी वर्तमान के लिये मैं तुम्हारे सीमित समझ में अँटने के लिये मैं अपने आपको सीमित करूंगा और तुम्हारे अस्थायी उपयोग के लिये एक नाम दूंगा। मेरी पहचान के लिये तुम यहवह शब्द का उपयोग कर सकते हो।” हमारे परमेश्वर का - एक मात्र परमेश्वर का - स्वभाव है कि वे स्वयं नीचे आयें ताकि हमें ऊपर अपने पास ले जायें।

मूसा ने याकुब के अनुभव से सबक सिखा होगा। उत्पत्ति ३२ अध्याय के अन्त में स्वर्ग दूत के साथ याकुब की कुश्ती का वर्णन मिलता है। याकुब ने एक व्यक्ति के साथ कुश्ती लड़ी, जिसने अंत में उसका नाम पूछा। उसने उत्तर दिया, “याकुब आज के बाद तुम्हारा नाम याकुब नहीं पर इस्राएल रहेगा”, स्वर्ग दूत ने कहा, “ क्योंकि तुमने परमेश्वर और मनुष्यों के साथ संघर्ष किया है और विजय पाया है।” याकुब का अब नया परिचय और विवरण था। याकुब के समान ही हमारा भी नया नाम होना चाहिये। याकुब ने पूछा, “कृपा कर मुझे अपना नाम बताइये”। स्वर्ग दूत का उत्तर शून्य था, “तुम मेरा नाम क्यों पूछ रहे हो?” मूसा के समान ही याकुब ने भी गलत प्रश्न पूछ डाला था। वह स्वर्गीय को छोटा कर सांसारिक बनाना चाहता था।

शिमशोन के पिता मानोह के पास एक स्वर्ग दूत आया और कहा कि तुम्हारी पत्नी एक पुत्र को जन्म देगी और वह एक नाजीर होगा। बच्चे के पालन पोषण के विषय में सम्पूर्ण निर्देशन सुनने के बाद मानोह ने स्वर्ग दूत का नाम पूछा। इसे भी याकुब के जैसा ही उत्तर मिला, “यह जानते हुए कि यह तुम्हारे समझ से परे है, तुम मेरा नाम क्यों पूछते हो?”

I Am (मैं हूं) भी देखें।

नाम का इतिहास

जलती हुई झाड़ी में परमेश्वर से मिलने के बाद जल्द ही मूसा ने सिनाई पर्वत पर फिर उनसे भेंट की और ‘दस आज्ञा’ पाया। तीसरी आज्ञा थी, “अपने परमेश्वर यहवे का नाम व्यर्थ नहीं लेना।” इसके अर्थ के बारे में हम बाद में विचार करेंगे, पहले हम यह विचार करे कि यहूदियों पर इस आज्ञा ने कैसा प्रभाव डाला था। सतही रूप से यहवह का नाम या कोई भी दूसरा नाम, कभी भी व्यर्थ में नहीं लेने का एक उपाय है, वह यह कि नाम लिया ही नहीं जाय। आज तक वे ऐसा ही करते आए है। जब कभी भी यहूदी लोग बाइबल पढ़ते समय यहवह शब्द पाते है तो इस शब्द को वे या तो आदोनाइ (जिसका अर्थ है प्रभू), या हाशेम (जिसका अर्थ है नाम) पढ़ते हैं।

यह एक संयोग ही है कि हिब्रू भाषा आरम्भ में बिना किसी ‘स्वर’ अक्षरों के लिखी गयी थी। इसका अर्थ यह हुआ कि यहवह शब्द का न तो पूर्ण उच्चारण हो सकता था, न ही यह पूरी तरह लिखा जा सकता था, शायद किसी को भी इस शब्द का वास्तविक उच्चारण मालूम नहीं है। आदोनाइ शब्द के स्वर अक्षर यहवह में डालकर यहोवा शब्द बनाया गया। यहोवा शब्द सर्व प्रथम चौदहवीं शताब्दी के पाण्डु लिपि में मिलता है, उससे पहले इसका अस्तित्व नहीं है।

यहूदियों के बेबीलोन और मिश्र में प्रथम बंधुआई में जाने के बाद पुराने नियम धर्म शास्त्र को यूनानी भाषा में अनुवाद करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके फलस्वरूप सेप्टुअजिन्ट भर्सन तैयार किया गया, जिसे मिश्र में सत्तर विद्वानों ने ईसा पूर्व तीसरी सदी में अनुवाद किया था। हम यह आशा कर सकते हैं कि यूनानी भाषा की यह पुस्तक हमें यहवह शब्द के उच्चारण के सम्बन्ध में कुछ सहायता करेगी। लेकिन अफसोस! इस नाम के प्रति आदर ने ऐसा नहीं होने दिया। अन्य नाम हिब्रू भाषा से यूनानी भाषा में अनुवाद किये गये हैं, पर यहवह नहीं। पुराने सेप्टुअजिन्ट के पाण्डुलिपि में यूनानी शब्द के बीच में हिब्रू अक्षर יהוה पाए जाते हैं। दूसरे पाण्डुलिपि में यहवह के बदले κυριος (कुरिओस) शब्द का उपयोग किया गया है, जिसका अर्थ होता है ‘प्रभु’। जब भी नया नियम में पुराने नियम से कोई उद्धरण लिया जाता है, प्रायः सेप्टुअजिन्ट से लिया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि यहां भी हमें यहवह के बदले कुरिओस ही मिलता है। बाइबल के बहुत से अंग्रेजी अनुवाद में यहवह के लिये ‘प्रभु’ शब्द का उपयोग किया गया है।

इन बातों का सार यही है कि परमेश्वर ने मूसा को यहवह नाम अस्थायी उपयोग के लिये दिया था। जब यह उद्देश्य पूरा हो गया तब उन्होंने इस शब्द का उपयोग नहीं हो, इसके लिये तीन उपाय कियेः

  1. यहूदियों के मन में इस शब्द के लिये अति आदर का भाव डाल दिया ताकि वे इस शब्द को उपयोग करने का साहस नहीं करे।
  2. हिब्रू भाषा बिना स्वर अक्षरों के लिखी जाय ताकि इस शब्द का उच्चारण पूर्ण न हो सके।
  3. इस शब्द को परमेश्वर ने यूनानी भाषा में या किसी अन्य भाषा में अनुवाद नहीं होने दिया जिसमें इसका उच्चारण सम्भव था।

तीसरी आज्ञा

हम फिर तीसरी आज्ञा की ओर लौटते हैं। “अपने परमेश्वर यहवह का नाम व्यर्थ न लेना।” करीब करीब सभी लोग इसका अर्थ “ईश्वर निंदा मत करो” लगाते हैं। इसके पीछे शताब्दियों से चला आ रहा प्रचलन है, लेकिन मेरा सुझाव यह है कि कम से कम यह इसका बुनियादी अर्थ नहीं हो सकता। दस आज्ञा इन शब्दों के साथ आरम्भ होते हैं, “मैं तुम्हारा परमेश्वर यहवह हूं, जिसने तुम्हें दासता के देश मिश्र से छुड़ाकर लाया है।” नाम लेने का क्या अर्थ हो सकता है? हिब्रू शब्द ‘नासा’ का अर्थ लेना, ढोना या अपनाना होता है। जैसे एक पुत्र अपने पिता का नाम लेता है, इस्राएलियो को अपने परमेश्वर का नाम लेना और ढोना था, उस परमेश्वर का जिसने उन्हें ले पालक बनाया था और मिश्र देश से छुड़ाया था। उन्हें उनका प्रतिनिधि बनकर उनके नाम को अपनाना था। यह वे व्यर्थ में नहीं कर सकते थे।

यीशु ने कष्ट सहे और मारे गये ताकि हमें मिश्र रूपी आत्मिक देश से छुड़ाकर ला सकें। उनकी इच्छा है कि हम उनके नाम को अपनायें। यह सम्भव है कि हम अधिकतर यह नाम व्यर्थ में लेते हैं, इसीलिये संसार में लोग इस नाम की खिल्ली उड़ाते हैं।

यीशु का नाम

यह अपने आप को सीमित करने की कैसी इच्छा थी जब परमेश्वर ने, जो सारे ब्रह्मांड के सृष्टिकर्ता और प्रभु हैं, वह अनन्त व्यक्तित्व जिनका कोई वर्णन नहीं है, सांसारिक भाषा में एक नाम लिया जिससे उन्हें जाना जा सके। इसके बाद अपने को छोटा करने की इससे भी बड़ी इच्छा सामने आई। समय पुरा होने पर परमेश्वर ने मानव शरीर धारण किया। मरियम और युसुफ को सपने में गब्रिएल स्वर्ग दूत द्वारा विशेष निर्देशन दिये गये, “उनका नाम यीशु रखना।” नया नियम में एक बार भी यहवह नाम का उल्लेख नहीं है, परन्तु यीशु नाम को बहुत महत्त्व दिया गया है।

हमने यहवह नाम पर विचार किया है, एक ऐसा नाम जिसे आज तक बहुत ही आदर दिया गया है पर लोग इसका उच्चारण भी नहीं कर सकते। यीशु के नाम में भी हम ऐसी ही विशेषता पाते हैं। प्रत्येक भाषा में यह नाम अलग अलग है। वे पांच अक्षर जिनको मिलाकर लैटिन भाषा में यह नाम बनता है, विभिन्न यूरोपीय भाषा में इनमें किसी अक्षर का उच्चारण भी एक समान नहीं है। वास्तव में हिब्रू नाम येशुआ और अंग्रेजी नाम जिसस में कोई भी उच्चारण सम्बन्धी समानता नहीं है।

क्या हम सब यह नहीं जानते कि जब हम यीशु का नाम लेते हैं तो इसका अर्थ क्या है? यदि ऐतिहासिक रूप से कहें तो हां, हम जानते हैं। यीशु उस व्यक्ति का नाम है जिनका वर्णन नया नियम में किया गया है, जिनका जन्म आज से दो हजार वर्ष पहले हुआ था और जिन्होंने क्रिश्चियन धर्म स्थापित किया था। आत्मिक रूप से कहें तो बात दूसरी है। क्या हम सबों का अर्थ एक ही व्यक्ति से है? संसार के तीन चौथाई लोगों के लिये, यदि वे यीशु को जानते हैं तो, एक विदेशी धर्म के संस्थापक हैं। पश्चिमी विश्व के एक अल्प संख्यक समूह के लिये यीशु मनुष्य के पुत्र, परमेश्वर के पुत्र, उद्धार कर्ता, चंगाई देने वाला, प्रभु और मित्र हैं। बाकी सब लोगों के लिये उनका अस्तित्व रीति थिति, उन्माद और पूर्वाग्रह पर आधारित है।

नये नियम में उल्लेखित यीशु के अतिरिक्त चार लोग और हैं जिनका नाम यीशु रखा गया था। यीशु एक प्रचलित नाम था। उनको दूसरों से अलग सम्बोधन करने के लिये लोगों को नाजरथ के यीशु कहना पड़ता था।

ये सारी बातें हमें कहा ले जाती हैं? परमेश्वर के पुत्र का वास्तव में नाम क्या है? मुझे लगता है इस प्रश्न का उत्तर भी पहले प्रश्न के उत्तर के समान ही है। “परमेश्वर का नाम क्या है?” यीशु, परमेश्वर का नाम, विवरण और परिचय उन सभी लोगों के लिये था, जो इस संसार में उनसे मिले थे, जैसा आज भी वे हम जैसे अपने लोगों के लिये हैं। संसार के सामने हमें यीशु का नाम, विवरण और परिचय बनना पड़ेगा। यीशु अपने लोगों के बीच परमेश्वर का प्रकाश देते हैं। उनके लोग संसार के सामने परमेश्वर को प्रकट करेंगे। संसार के सामने हमें यीशु का नाम होना या उन्हें दर्शाना है, जैसे उन्होंने परमेश्वर का नाम या उनका व्यक्तित्व अपने लोगों के बीच प्रकट किया है।

सम्भव है यह विचार नया लगे और स्वीकार करने में कठिन। हम लोग “ख्रीष्ट के शरीर हैं” या “पवित्र आत्मा का मन्दिर” जैसे विचार से परिचित हैं। ये बातें बाइबल में स्पष्ट लिखी गई हैं। बड़े अफसोस की बात है कि धर्मशास्त्र में लिखी बातों की हमारी जानकारी हमें प्रायः गहरी बातों को हलके रूप में लेने को बाध्य करती है।

“हमें यीशु का नाम होना चाहिए” यह विचार नया नियम में स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन बहुत से भागो से मिलती है और उन पर रोशनी डालती है, जो अब हम विचार करेंगे।

उस नाम में बपतिस्मा लेना

नया नियम में यह वाक्यांश “उनके नाम में बपतिस्मा लिया” अनेकों बार उल्लेखित हुआ है। हम यह भी लिखा हुआ पाते हैं, “उनके शरीर में बपतिस्मा लिया”। ये दोनों वाक्यांश एक दूसरे से पूरी तरह मिलते हैं। उनका शरीर उनके पवित्र किये गये लोग हैं। उनके पवित्र किये गये लोग ही उनके नाम हैं। उनका शरीर और उनका नाम दोनों एक ही हैं। दोनों ही वाक्यांश पिता और पुत्र के साथ एक गहरी पहचान की बात दर्शाते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में वास्तविक बपतिस्मा कोई रीति नहीं है जो मनुष्य देख सके, नहीं आत्मिक अवस्था का कोई विशेष अनुभव। यह तो परमेश्वर का निरन्तर होने वाला एक ऐसा अनुभव है जिससे हम उनके साथ इस प्रकार एक हो जाते हैं कि हमें उनका शरीर या उनका नाम सम्बोधित किया जा सके।

बपतिस्मा के विषय में मत्ती रचित सुसमाचार और प्रेरितो के काम, दोनों में विरोधाभास है। मत्ती के २८:१९ में यीशु अपने चेलों को “पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम में बपतिस्मा” देने का निर्देश देते हैं। प्रेरितो के पुस्तक में चेलों ने यीशु के नाम में बपतिस्मा दिया। परमेश्वर के लिये नाम ऐसी चीज नहीं है जिसका एक दम ठीक उच्चारण किया जा सके। यह तो पवित्र किये गये और उनके लिये अलग किये गये व्यक्तियों का समूह है। इन लोगों के द्वारा पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा संसार में प्रकट किये जायेंगे। इस नयी समझ के साथ हम यह पाते हैं कि दोनों वचन एक दूसरे के समान ही हैं।

उस नाम को पवित्र करना

यीशु ने चेलों को यह कहकर प्रार्थना करना सिखाया, “हे हमारे पिता, आपका नाम पवित्र माना जाय, आपका राज्य आए”। लाखों लोग प्रति दिन इस प्रार्थना को दुहराते हैं, लेकिन बहुत कम लोग इसे समझते हैं। हो सकता है अब हम इसका अर्थ अच्छी तरह समझ सकें। पवित्र किया जाने वाला नाम स्वयं यीशु और उनके द्वारा बुलाये जाने वाले लोग थे। यूहन्ना के १७ अध्याय में यीशु के पकड़े जाने से पहले गतसमनी में की गई उनकी अंतिम प्रार्थना का उल्लेख है। चेलों के लिये वे प्रार्थना करते हैं, “सत्य में आप उन्हें पवित्र करें, आपका वचन सत्य है (पद १७) और, “उनके लिये मैं अपने आपको पवित्र करता हूं, कि सत्य में वे भी पवित्र हो सकें” (पद १९)। दोनों ही प्रार्थनाएं उनकी अपनी और उनके चेलों की पवित्रीकरण के लिये अर्पित किये गये हैं।

इसलिये यीशु ने जब वह प्रार्थना की जिसे आज लाखों लोग दुहराते हैं, इसका पहला अनुरोध “आपका नाम पवित्र माना जाय” उनके लोगों को पवित्रता में अलग करने की प्रार्थना थी। सिर्फ इसी के आधार पर दूसरा अनुरोध, “आपका राज्य आए” पूर्ण होता है। जब उनके लोग पवित्र होंगे, उनका राज्य आएगा।

नाम, स्थान, भवन और दिन कभी भी सही अर्थों में पवित्र नहीं किये जा सकते। ये अपने प्रकृति के कारण ही पवित्र नहीं हो सकते। ये सब अपना समय और अपना उद्देश्य पूरा कर चुके हैं और सिर्फ वास्तविकता की छाया हैं। सिर्फ लोगों को पवित्र किया जा सकता है। पवित्र आत्मा लोगों पर उतरते हैं और उन्हें परमेश्वर के लिये अलग करते हैं।

उस नाम को उच्च करना

फिलिपियों के दूसरे अध्याय में यीशु के दीन अवस्था से होकर मृत्यु और उसके बाद पुनरुत्थान और अति उच्च स्थान तक जाने की घटना का उल्लेख है। “इस कारण परमेश्वर ने उसको अति महान भी किया, और उसको वह नाम दिया जो सब नामों में श्रेष्ठ है। कि जो स्वर्ग में और पृथ्वी पर और जो पृथ्वी के नीचे है; वे सब यीशु के नाम पर घुटना टेकें।” इस सन्दर्भ में क्या उनके लोग उनका नाम हो सकते हैं?

प्रकाशित वाक्य के पहले अध्याय में यूहन्ना ने महिमित ख्रीष्ट के सम्पूर्ण शरीर और शिर का दर्शन देखा। उनकी आवाज अकेले यीशु की आवाज नहीं थी, पर कई नदियों की आवाज थी। यह मण्डली के शिर अकेले यीशु नहीं थे, परन्तु ख्रीष्ट का सम्पूर्ण शरीर। यूहन्ना उनके चरणों में मृत व्यक्ति की तरह लोट पड़ा। समय आ रहा है जब शिर के रूप में यीशु अपना पूर्ण शरीर प्राप्त करेंगे। यह शरीर ही वह नाम है जिसके आगे सभी घटने टेकेंगे।

अन्य वचन भी यही दिखाते हैं कि ख्रीष्ट के शरीर के सामने लोग शिर झुकायेंगे। प्रकाश ३:९ मे लिखा है, “देख, मैं शैतान के उन सभा वालों को तेरे वश में कर दूंगा ․․․․․ देख, मैं ऐसा करूंगा, कि वे आ कर तेरे चरणों में दण्डवत करेंगे।” यशायाह ४५:१४ कहता है, “वे सांकलों में बन्धे हुए चले आएंगे और तेरे साम्हने दण्डवत कर तुझ से बिनती कर के कहेंगे”, और यशायाह ४९:२३ और ६०:१४ में ऐसी ही बातें लिखी हैं।

यह मुस्लिम लोग जैसे मस्जिद में नमाज पढ़ते समय करते हैं वैसा नहीं होगा। परन्तु यह तो जब परमेश्वर लोगों में अपने आप को प्रकट करेंगे तब उनके के सामने आने पर लोग आत्मा में शिर झुकायेंगे। जब शिबा की रानी राजा सुलेमान से मिली, उनके बुद्धि की परख की और उनकी सारी धन सम्पत्ति देखी, तब हम पढ़ते हैं, वह निष्प्राण हो गयी। वह पूर्ण रूप से आश्चर्य, प्रशंसा और प्रेम से विभोर हो गयी थी।

सारांश

जब हम उस उच्च बोलावट के बारे में मनन करते हैं, जिसके लिये परमेश्वर ने हमें बुलाया है, तो हम सिर्फ यही स्वीकार करते हैं कि उस बिन्दू से हम बहुत पीछे हैं। हम अपने स्वभाव से ही इस पृथ्वी पर या स्वर्ग में उनका नाम बनने या उनका प्रतिनिधित्व करने मे सर्वथा असमर्थ हैं।

परमेश्वर इस तथ्य को हमसे अच्छी तरह देखते और जानते हैं और अपनी योजना में इसके लिये उपाय भी किया है। हमें परिवर्तन करना हमारे वश की बात नहीं है। इस बात से हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये जब वे हमारे अन्दर पहले से भी गहरा काम करना आरम्भ करते हैं। यह काम हमें मनुष्यों से अलग करेगा ताकि हम आत्मा में परमेश्वर से जुड़ सकें। हम उनका प्रतिनिधित्व कर सकें, इससे पहले पूरी तरह हमारा शारीरिक स्वभाव नष्ट करना आवश्यक है।

हम अपने उद्धार कर्ता के मृत्यु और पुनरुत्थान में प्रवेश करेंगे। हम उनके कष्ट और दीनता में सहभागी होंगे। उनके साथ दुख उठाने के बाद हम उनके साथ राज्य करने के लिये तैयार होंगे। इसीलिये आइये हम भी पौलुस के तरह ख्रीष्ट यीशु में परमेश्वर के इस उच्च बोलावट की ओर आगे बढें।

अनुवादक - डा. पीटर कमलेश्वर सिंह

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