सृष्टि और क्रमिक विकाश

परिचय

कुछ व्यक्तियों के लिये दो तरह के ‘वादी’ हैं: सृष्टिवादी और क्रमिक विकाशवादी। सृष्टिवादी हम हैं, और क्रमिक विकाशवादी वे लोग हैं। सृष्टिवादी बाइबल पर विश्वास करते हैं और क्रमिक विकाशवादी इसे इन्कार करते हैं। सृष्टिवादी अच्छे लोग हैं और क्रमिक विकाशवादी बुरे लोग।

अधिकांश लोगों के लिये यह कोई महत्वपूर्ण विषय नहीं है। वे इस बात को जानते हैं कि इसका कोई न कोई समाधान तो है, लेकिन ऐसा समझते हैं कि यह उनकी समस्या नहीं है।

कुछ थोडे लोगों के लिये यह एक नाजुक विषय है जो उनके विश्वास को भी कमजोर कर सकता है।

मेरा विश्वास है कि यह एक महत्वपूर्ण विषय है, क्योंकि परमेश्वर से सम्बन्धित हमारी धारणा खतरे में है। एक परमेश्वर जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने में ६ दिन लगाते हैं, इनका चरित्र उनसे अलग है जो इसी काम में १३ अरब ७० करोड वर्ष लगाते हैं।

मैं अपने परमेश्वर से सम्बन्धित उन सभी बातों को जानना चाहता हूँ, जिन्हें जान सकता हूँ। प्रथम्, इसलिये को उन्होंने मुझे अपने स्वरुप में बनाने के लिये बुलाया है, दूसरा यह कि मैं गलत गवाह नहीं बनना चाहता।

सृष्टिवादी का मुद्दा

आइये हम सृष्टिवादी के मुद्दे पर चर्चा करें।

उनका पहला तर्क है अपने आप को सृष्टिवादी और अपने विरोधी को क्रमिक विकाशवादी कहना और इसी के आधार पर ऐसा मान लेना कि दोनो बातें असंगत है। उत्पत्ति के पहले अध्याय और उसके पहले पद में लिखा है, “आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की।” “इनका क्रमिक विकाश नहीं हुआ”, सृष्टिवादियों का कथन है। “बाइबल के अनुसार परमेश्वर ने उनकी सृष्टि की।”

यह गलत विरोधाभाष है। सृष्टि और क्रमिक विकाश असंगत नहीं हैं। यदि कोई (जिसकी याद्दास्त खत्म हो गयी हो) यह कहे कि, “मैं ऐसा नहीं मानता कि किसी व्यक्ति ने स्त्री के शरीर में सूक्ष्म बीज का रोपण कर दिया जिसमें मेरे पूर्ण विकाश का सम्पूर्ण नमूना भरा था, उसीके कारण मैं अस्तित्व में आया। मेरा विश्वास है परमेश्वर ने मुझे ऐसे ही बनाया जैसा कि मैं आज हूँ।” तो आपका उत्तर होता, “परमेश्वर ने आपकी सृष्टि की। ऐसा नहीं कि उन्होंने एक छडी लहरायी और हवा में से आप पूर्ण विकशित व्यक्ति के रूप में बनकर तैयार हो गये। नहीं, वरन् उन्होंने एक अविश्वसनीय तरिका अपनाया जिसे हम गर्भधारण, जन्म और वृद्धि के तौर पर जानते हैं, जिसके द्वारा सूक्ष्म बीज से पूर्ण विकशीत व्यक्ति के रूप में आपका विकाश हुआ है। आपका शरीर अविश्सनीय और आश्चर्यजनक रूप से जटिल है, लेकिन जिस प्रकृया से आपका सूक्ष्म बीज से आज के अवस्था में वृद्धि हुआ है वह प्रकृया भी आश्चर्यजनक ही है।”

हमारे सामने वास्तविक प्रश्न यह नहीं है कि, “क्या परमेश्वर ने ब्रह्माण्ड की सृष्टि की या इसका क्रमिक विकाश हुआ है? प्रश्न यह है कि, “क्या इस प्रकार संसार की सृष्टि हुई कि परमेश्वर ने आज्ञा दी और वचन की शक्ति से शून्य से सभी चीजें अस्तित्व में आ गयीं जैसा कि आज हम देखते हैं? या परमेश्वर ने ऐसी प्रकृया अपनायी जिसे हम क्रमिक विकाश के रूप में जानते हैं जिसके द्वारा उन्होंने धैर्य पूर्वक करोडों वर्ष लगाकर धीरे धीरे ब्रह्माण्ड को बनाया जैसा हम आज देख पा रहे है/

सृष्टि की दोनों विधियों को संयक्त रुप से ‘बनाना’ कह सकते है। खास बात यह है कि एक विधी तेज है और दूसरी धीमी – कम से कम समय को देखने के मनुष्य के नजरीये से। आप ऐसा प्रश्न कर सकते हैं, “कौन अधिक महान् हैं, ६ दिनों में ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वाला परमेश्वर अथवा वह, जिन्होंने १५ अरब वर्ष लगाया?”

मनुष्य परमेश्वर के प्रतिरूप में बनाया गया है और जो भी मनुष्य बनाता है उसके लिये वह विभीन्न औजार उपयोग करता है। खाली हाथ से वह कुछ भी नहीं बना सकता। उसने प्राचीन औजारों जैसे हथौडा, आरी, कुल्हाडी, रेती आदि से काम आरम्भ किया। इनकी सहायता से उसने और वैज्ञानिक और जटील यान्त्रिक औजार बनाये और अपना काम आगे बढाया। इनकी सहायता से उसने और अधिक शक्तिशाली और परिष्कृत, शुद्धता वाले औजार बनाये जो विशेष कामों में उपयोगी थे। इन औजारों की सहायता से वह जटील और असम्भव योजनाओं पर काम कर सकता है, जैसा कि विशालकाय जेट प्लेन का निर्माण हो या बहु मन्जिली इमारतें अथवा अधिक नाजुक औजार जो खाली हाथ कभी नहीं बन सकते थे।

इसी प्रकार परमेश्वर ने बुनियादी भौतिक सिद्धान्त जैसे कि गरुत्वाकर्षण और विद्युत्चुम्बकत्व बनाये। इनसे परमेश्वर ने और अधिक जटील सिद्धान्त जैसे कि नाभिकीय विखण्डन और विलय के साथ साथ रेडियोधर्मिता। अति वैज्ञानिक हुए बिना हम ऐसा कह सकते है कि भौतिक शास्त्र के सिद्धान्तों से उन्होंने रसायन शास्त्र के सिद्धान्तों का निर्माण किया। रासायनिक सिद्धान्तों से उन्होंने जीव विज्ञान के सिद्धान्त बनाये और इनसे क्रमिक विकाश के सिद्धान्त। ये और बहुत से अन्य सिद्धान्त सम्पूर्ण सृष्टि और इस संसार के निर्माण के लिये परमेश्वर के औजार बने, जहाँ उसने हमें वनस्पति, जीव जन्तु और मानव जीवन के साथ रखा है।

ऐसे लोग जो आश्चर्यकर्मों और नाटकीय कार्यों के भूखे हैं और सरलीकृत दृष्टिकोण चाहते हैं, वे ६ दिनों में सृष्टि पुरी हुई, इसे मानेंगे। जो लोग समझ में परिपक्व हैं, वे इस बात को मानेंगे कि सृष्टि पूर्ण होने में बहुत लम्बा समय लगा था।

यूनानी पौराणिक कथा के अनुसार जीउस देवता के शिर से देवी एथेना पूरे वस्त्रों में बाहर निकली थी। हमारा विश्वास है कि यीशु का जन्म इससे कम नाटकीय रूप में हुआ था, फिर भी साधारण गर्भधारण की प्रकृया की तुलना में मरीयम का गर्भधारण तो आश्चर्यकर्म ही था।

ब्रह्माण्ड का आकार हमारे चर्चा के विषय से मिलता जुलता है। यह दिखाता है कि परमेश्वर किस बडे पैमाने पर कार्य करने के लिये तत्पर हैं। खगोलीय दूरी मापन के लिये माइल या किलोमीटर बहुत ही छोटे इकाई हैं। खगोलविद इसके लिये प्रकाश वर्ष का उपयोग करते हैं, जो वह दूरी है जो प्रकाश एक वर्ष में पूरी करता है। चन्द्रमा का प्रकाश पृथ्वी पर पहुँचने में एक सेकण्ड से कुछ अधिक वक्त लेता है। सूर्य से आने में इसे ८.३ मिनट लगते हैं। सबसे नजदीक अवस्थित तारे का प्रकाश धरती पर पहुँचने में ४.३ वर्ष का वक्त लगता है। हमारे आकाशगंगा का व्यास एक लाख प्रकाशवर्ष होने का अनुमान है। ब्रह्माणड का किनारा जो हम देख सकते हैं, हमसे एक करोड प्रकाश वर्ष दूर है। परमेश्वर ने अकल्पनीय वृहत् आकार में ब्रह्माण्ड की रचना की है। यह तर्कसंगत लगता है कि इसी अनुपात में उन्होंने समय भी लगाया है। आइन्सटाइन ने बताया है कि समय और स्थान आपस में जुडे हुए हैं। ब्रह्माण्ड के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा करने के लिये प्रकाश को ६००० वर्ष लगते हैं। १५ अरब वर्ष का समय इतने बडे ब्रह्माण्ड को बनाने में लगना लाजिमी है।

इसे भी देखें क्या बाइबलको शाब्दिक रुप में लेना उचित है?

कुछ लोग बडे भावनात्मक होकर कहते हैं, “मैं ऐसा विश्वास नहीं करता कि मैं बन्दर का वंशज् हूँ।” यीशु भी और अधिक भावना और औचित्य के साथ कह सकते थे, “मैं इस बात को नहीं मानता कि मैं आदम का वंशज् हूँ।”

१८५९ ई. में चार्ल्स डारवीन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “प्रजातियों की उत्पत्ति” प्रकाशित की। उनके क्रमिक विकाश का सिद्धान्त और खास कर उनका ऐसा विश्वास कि मनुष्य जाति बन्दर के वंशज् हैं, कलीसिया की शिक्षा को पूरी तरह खण्डन करता था। १९५३ में जेम्स वाट्सन और फ्रान्सिस कृक ने डी एन ए के बनावट की खोज की। यह खोज इस बात को प्रमाणित कर सकता था कि डारवीन सही हैं या गलत। कुछ वर्ष पहले मेरी लडकी, मेरे दो चचेरे भाई और मैं ने अपने लार का नमूना डीएनए डेटाबेस में परीक्षण के लिये भेजा। उसके बाद डेटाबेस ने मुझे सैकडों सम्बन्धियों की फेहरिस्त उपलब्ध कराया जो उस डेटाबेस में पाये गये थे, साथ ही उनके साथ हमारे सम्बन्ध का मोटा मोटी विवरण भी दिया। मेरे चचेरे भाई और मेरी लडकी ने पाया कि हमारे समबन्धियों के विवरण एकदम सही थे। डीएनए किसी सम्बन्ध को सही या गलत प्रमाणित कर सकता है। अदालतों में डीएनए को माता पिता और सन्तान के बीच सम्बन्ध प्रमाणित करने का सबसे सही उपाय माना जाता है। तो, मनुष्य और बन्दरों के सम्बन्ध में डीएनए का फैसला क्या कहता है? इसका उत्तर है, गोरिल्ला और इसी प्रकार के अन्य जन्तुओं की तुलना में मनुष्य, चिमपैन्जी और बोनोबोस में एक दूसरे के साथ बहुत ही गहरी समानता है। दूसरे शब्दों में डीएनए ने पूर्ण रूप से डारवीन के सिद्धान्त को सही साबित कर दिया और यह दिखा दिया कि मनुष्य का बन्दर से समबन्ध है और उसी के वंशज् हैं।

जैसा कि मैं देख रहा हूँ, क्रमिक विकाश की कहानी में तीन खाईयां हैं जिन्हें पार करना असम्भव है।

बन्दर के वंशज्

कुछ लोग बडे भावनात्मक होकर कहते हैं, “मैं ऐसा विश्वास नहीं करता कि मैं बन्दर का वंशज् हूँ।” यीशु भी और अधिक भावना और औचित्य के साथ कह सकते थे, “मैं इस बात को नहीं मानता कि मैं आदम का वंशज् हूँ।”

१८५९ ई. में चार्ल्स डारवीन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक On the Origin of Species (प्रजातियों की उत्पत्ति) प्रकाशित की। उनके क्रमिक विकाश का सिद्धान्त और खास कर उनका ऐसा विश्वास कि मनुष्य जाति बन्दर के वंशज् हैं, कलीसिया की शिक्षा को पूरी तरह खण्डन करता था। १९५३ में जेम्स वाट्सन और फ्रान्सिस कृक ने डी एन ए के बनावट की खोज की। यह खोज इस बात को प्रमाणित कर सकता था कि डारवीन सही हैं या गलत। कुछ वर्ष पहले मेरी लडकी, मेरे दो चचेरे भाई और मैं ने अपने लार का नमूना डीएनए डेटाबेस में परीक्षण के लिये भेजा। उसके बाद डेटाबेस ने मुझे सैकडों सम्बन्धियों की फेहरिस्त उपलब्ध कराया जो उस डेटाबेस में पाये गये थे, साथ ही उनके साथ हमारे सम्बन्ध का मोटा मोटी विवरण भी दिया। मेरे चचेरे भाई और मेरी लडकी ने पाया कि हमारे समबन्धियों के विवरण एकदम सही थे। डीएनए किसी सम्बन्ध को सही या गलत प्रमाणित कर सकता है। अदालतों में डीएनए को माता पिता और सन्तान के बीच सम्बन्ध प्रमाणित करने का सबसे सही उपाय माना जाता है। तो, मनुष्य और बन्दरों के सम्बन्ध में डीएनए का फैसला क्या कहता है? इसका उत्तर है, गोरिल्ला और इसी प्रकार के अन्य जन्तुओं की तुलना में मनुष्य, चिमपैन्जी और बोनोबोस में एक दूसरे के साथ बहुत ही गहरी समानता है। दूसरे शब्दों में डीएनए ने पूर्ण रूप से डारवीन के सिद्धान्त को सही साबित कर दिया और यह दिखा दिया कि मनुष्य का बन्दर से समबन्ध है और उसी के वंशज् हैं।

जैसा कि मैं देख रहा हूँ, क्रमिक विकाश की कहानी में तीन खाईयां हैं जिन्हें पार करना असम्भव है।

  1. निर्जीव रसायनों से कोई कैसे पूर्ण रूप से विकशीत वनस्पति और जीव जन्तु की अवस्था में आ सकता है?
  2. गूंगे पशु की अवस्था पार कर कोई कैसे पूर्ण विकशीत मनुष्य जीवन को प्राप्त कर सकता है, जो तर्क कर सकता है, बोल सकता है, हँस सकता है, रो सकता है, खोज कर सकता है, प्रार्थना कर सकता है और आराधना कर सकता है?
  3. कोई कैसे आदम के स्वभाव वाले, पाप से भरपूर भ्रष्ट जीवन को पार करके पूर्ण रूप से उच्चतर, पाप रहित, स्वर्गीय चरीत्र वाला जीवन जिसे यीशु ने प्रदर्शन किया, जी सकता है?

हमारे पास इसका कोई विवरण उपलब्ध नहीं है कि प्रथम दोनों परीवर्तन किस प्रकार कार्यान्वित हुए। वहाँ देखने और अभिलेख तैयार करने के लिये कोई मनुष्य उपलब्ध नहीं था। तीसरे परीवर्तन का अभिलेख हमारे लिये बाइबल धर्मशास्त्र में उपलब्ध है। मानवीय प्राकृतिक उत्तराधिकार के शृङ्खला को तोडने के लिये परमेश्वर ने अलौकिक तरीके से हस्तक्षेप किया। मरीयम ने पवित्र आत्मा के द्वारा गर्भ धारण किया। पृथ्वी पर सिर्फ एक ही व्यक्ति था जो इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी था कि वास्तव में क्या हुआ था और वह स्वयम् मरीयम थी। मरीयम की बातों को युसुफ ने स्वर्गदूत के बताने पर विश्वास किया। सभी लोग इन्हीं दोनों की साक्षी पर निर्भर थे और निस:न्देह आधिकांश लोग इनकी बातों पर विश्वास नहीं करते थे। यीशु का जीवन और उनका चरीत्र युसुफ और मरीयम की बातों की पुष्टि करते थे।वह अपने पूर्वजों की तुलना में बिलकुल अलग थे। उत्तराधिकार का प्राकृतिक शृङ्खला तोड दिया गया था।

यीशु के गर्भधारण के साथ ही व्रिहत् परिणाम के साथ परमेश्वर ने अलौकिक आश्चर्यकर्म आरम्भ किये लेकि ये सभी बातें सम्पूर्ण मानव जाति से गुप्त रखी गयी थी।

शायद इसी प्रकार के किसी आश्चर्यजनक हस्तक्षेप से लाखों वर्ष पहले मृत रासायनिक पदार्थ से प्रथम जीव बना हो। बन्दर से मनुष्य के स्वरूप में परीवर्तन भी सम्बवत: इसी प्रकार हुआ हो। हो सकता है ऐसे ही अन्य अलौकिक हस्तक्षेप समय समय पर हुए हों, जिसके कारण समय समय पर विभीन्न प्रजातियाँ एक दूसरे से अलग की गयी हों। मैं सिर्फ अटकलबाजी कर रहा हूँ, लेकिन कोई भी निश्चीत उत्तर नहीं दे सकता, लेकिन यह दृष्टिकोण कम से कम विज्ञान और धर्मशास्त्र से, साथ ही परमेश्वर का कार्य जो हम देखते हैं, उससे सहमत तो है।

२४ घण्टे का दिन

उत्पत्ति की पुस्तक में इस वाक्यांश को कई बार दुहराया गया है, “तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ।” इस प्रकार पहिला दिन,... दूसरा दिन,...तीसरा दिन हो गया। क्या यह २४ घण्टे की अवधी का शाब्दिक दिन नहीं दर्शाता? ‘दिन’ शब्द का साधारण अर्थ सूर्योदय के तुरन्त पहले के प्रकाश से लेकर सूर्यास्त के तुरन्त बाद तक का समय होता है। वैज्ञानिक रूप से यह पृथ्वी के अपनी धुरी पर घुमने के कारण होता है। यदि पृथ्वी के घुमने की गति धीमी हो तो दिन और लम्बा होता। यदि घुमने की गति तेज हो तो दिन और छोटा होता। मङ्गल ग्रह का एक दिन करीब करीब पृथ्वी के एक दिन के बराबर ही होता है। शुक्र ग्रह का दिन हमारे २४३ दिनों के बराबर है। वृहस्पति का एक दिन सिर्फ १० घण्टे का होता है। सूर्य पर एक दिन का समय अर्थहीन है, क्योंकि वहाँ हमेशा ही प्रकाश रहता है।

दिन शब्द का अर्थ वास्तव में पहली नजर में जैसा लगता है, निश्चीत, कडा, ऐसा है नहीं। इसकी समय सीमा पृथ्वी के घुमने पर आधारित है। पृथ्वी के अस्तित्व में आने के पहले, दिन का हमारे लिये क्या अर्थ था यह बात ही अर्थहीन थी।

‘एक घण्टा’ समय का अपना कोई अर्थ नहीं है, लेकिन एक दिन २४ बराबर भागों में बाँटने से इसका मान प्राप्त होता है। मीनट और सेकण्ड के मान भी इसी प्रकार घण्टे को विभाजित करने से प्राप्त होते हैं।

समय का भी निश्चीत तरिके से मापन नहीं किया जा सकता। आधुनिक विज्ञा के अनुसार पर्यवेक्षक जो विभीन्न गति से यात्रा करते हैं, वे उसी काम में लगा समय अलग अलग मापन करते हैं।

स्थान के समान ही समय भी ‘पूर्ण’ नहीं है, जो पहले से ही अस्तित्व में था। दोनों ही परमेश्वर के द्वारा बनाये गये थे और दोनों का ही अन्त होगा।

सूर्य और तारों की सृष्टि

सृष्टिवादियों के स्थान की गम्भीर समस्या की ओर नजर दौडाना आवश्यक है। उत्पत्ति १:१४-१७ में चौथे दिन, पृथ्वी की सृष्टि के बाद, सूर्य, चन्द्रमा और तारों की सृष्टि का विवरण उल्लेख है। सभी वैज्ञानिक प्रमाण इस तथ्य की ओर इंगीत करते हैं कि सूर्य या तो पृथ्वी के पहले या दोनों ही एक साथ अस्तित्व में आये। तारों में से कुछ की उम्र सूर्य की उम्र से बहुत अधिक है।

कोई भी अतिवादी इस समस्या का समाधान यह कहकर आसानी से निकाल सकता है कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान् हैं और कुछ भी कर सकते हैं। पृथ्वी बनाने के बाद उन्होंने सूर्य और तारों को बनाया होगा। यह बात आधी सत्य है। कुछ काम हैं जो परमेश्वर नहीं कर सकते हैं। वह झूठ नहीं बोल सकते। वह झूठी गवाही नहीं बना सकते – झूठी गवाही – पृथ्वी, सूर्य और ब्रह्माण्ड के उम्र के सम्बन्ध में।

एक और प्रचलित दृष्टिकोण यह है कि सूर्य और तारे पृथ्वी के बनने के बहुत पहले बने थे, लेकिन चौथे दिन ही दिखाई पडे। इस दृष्टिकोण में समस्या यह है कि स्पष्ट रूप से पदों में ‘बनाया’ लिखा है । परमेश्वर ने दो बडे प्रकाश पूंज बनाये। उन्होंने तारे भी बनाये। यदि आप इन शब्दों को अक्षरस: लेते हैं तो आप इनके सिधे अर्थ को अपने विचार से मिलाने के लिये परीवर्तन नहीं कर सकते। ‘बनाया’ शब्द ‘दिखाई पडा’ से अलग है।

यदि हम इमानदार हैं तो यह स्वीकार करना पडेगा कि उत्पत्ति का पहला अध्याय शाब्दिक रूप से आधुनिक विज्ञान से सहमत नहीं होता। यह उस विचार को दर्शाता है जिसके अनुसार सम्पूर्ण मानव जाति कुछ समय पूर्व तक यह मानते थे कि पृथ्वी इस ब्रह्माण्ड का केन्द्र थी और सूर्य और तारे इसके चारों ओर घुमते थे।

क्या इसी लिये हम उत्पत्ति की पुस्तक को इन्कार कर दें, कि इसका कोई मूल्य नहीं है? उत्तर है, नहीं। यह भाग हमें विज्ञान की शिक्षा नहीं दे सकता, परन्तु ऐसी बहुत सी महत्त्वपूर्ण बातें हैं जो हम सिख सकते हैं। धर्मशास्त्र के बहुत से भाग सतह पर साधारण लगते हैं, लेकि जब पवित्र आत्मा उसी भाग का गहरा अर्थ प्रकट करते हैं तो हम उनकी बुद्धमत्ता की उचाई और गहराई पर आश्चर्यचकित होकर परमेश्वर की स्तुति करने पर विवश हो जाते हैं। मैं अब उत्पत्ति के पहले अध्याय के आत्मिक अर्थ से सम्बन्धित कुछ परीचयात्मक विचार रखना चाहता हूँ। गहरी चर्चा इस लेख का उद्देश्य नहीं है।

नयी सृष्टि

हम स्वयम्, यदि आत्मा से जन्मे हैं तो हम परमेश्वर की नयी सृष्टि हैं। आत्मा में परमेश्वर की नयी सृष्टि उनकी प्राकृतिक पुरानी सृष्टि से श्रेष्ठ है। हमारी स्वाभाविक अवस्था में हम पृथ्वी के समान ही बेडौल, खाली और अन्धकार में हैं। परमेश्वर की नयी सृष्टि हमारे अन्दर तब आरम्भ होती है, जब वह कहते हैं, “उजियाला हो”। उजियाले के अभाव में कुछ भी सम्भव नहीं है। उसके बाद वह उजियाले को अन्धियारे से अलग करते हैं।

जीवन के अस्तित्व में आने से पहले अलग करने की दो प्रकृयायें पूरी होना आवश्यक है। परमेश्वर ने ऊपर के पानी और नीचे के पानी के बीच में आकाश को बनाया। ऊपर का पानी पवित्र आत्मा का जीवन दायी शुद्ध पानी है। नीचे का पानी मनुष्य के धर्म और कार्यों का गन्दा और नमकीन पानी है, जो जीवन नहीं दे सकता।

उसके बाद उन्होंने समुद्र और सुक्खी भूमी को पृथक् किया। पृत्थकीकरण के इस प्रकृया का भी हमारे जीवन में आत्मिक प्रतिपक्ष है।

संसार में जीवन आरम्भ हो, इसके लिये दो और कदम बाकी थे। तीसरे दिन परमेश्वर ने पेड पौधे – वनस्पति – बनाये, ताकि भोजन और बसेरा उपलब्ध हो। चौथे दिन उन्होंने सूर्य और चन्द्रमा बनाया। सूर्य जिससे प्रकाश और गर्मी मिलती है, यीशु मसीह का प्रतिनिधित्व करता है। शायद चन्द्रमा कलीसिया का प्रतिनिधीत्व करता है जो सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिम्बित करता है।

पाँचवे दिन परमेश्वर ने मछली और पक्षियों को बनाया। मछलियाँ पानी के अन्दर रहती हैं, जो शरीर का प्रतिनिधीत्व करता है। पक्षी आकाश में उडते हैं जो आत्मा का प्रतीक है। यीशु ने चेलों को ‘मनुष्य के जलाहारी’ होने के लिये बुलाया। जब कोई मछली पकडता है तो उसे पानी से बाहर निकालना पडता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार जब हम यीशु के पास आते हैं तब अभिलाषा की अवस्था को त्याग देते हैं और स्वयम् के लिये हमारी मृत्यु हो जाती है। हम उन पक्षियों के समान हो जाते हैं जो आकाश मे उडते हैं और गुरुत्वाकर्षण के नियम की धज्जियाँ उडाते हैं। इस प्रकार हम शरीर के अवस्था से आत्मा के अवस्था में आ जाते हैं।

छठे दिन हम परमेश्वर की सृष्टि के उत्कर्ष पर पहुँचते है, जब मनुष्य को बनाया गया। हमारे लिये परमेश्वर का उद्देश्य यही है कि हम आत्मिक मनुष्य हों, जो आत्मिक बातें समझ सके, जो आत्मिक रूप से बुद्धमान्, शक्तिशाली और परीपक्व हो।

क्रमिक विकाश का प्रदर्शन

यीशु ने क्रमिक विकाश के सिद्धान्त को यूहन्ना रचित सुसमाचार के १५ अध्याय और २ पद में बताया है। उन्होंने कहा, “जो डाली मुझ में है, और नहीं फलती, उसे वह काट डालता है, और जो फलती है, उसे वह छांटता है ताकि और फले।”

पौलुस ने थिस्सलोनिकियों से (१थिस्स.५:२१ में) कहा, “सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो।”

प्राकृतिक संसार में विभीन्न प्रजातियों का क्रमिक विकाश तबतक होता रहता है जब तक वे अपने द्वारा खोज किये गये वास स्थान में रहने योग्य नहीं बन जाते। इनके सन्तान जो अपने आप को उपलब्ध आवास के अनुकुल नहीं ढाल पाते, या तो मर जाते हैं या मार दिये जाते हैं। ऐसे सन्तान जो अपने में आवश्यक बदलाव लाने में सफल होते हैं उनकी उम्र लम्बी होती है और उनके सन्तान भी लाभदायक गुणों के उत्तराधिकारी बनते हैं। छलावरण इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। यदि किसी कीट के सन्तान का रङ्ग मां बाप से अलग है तो जिनका छलावरण अपने पृष्टभूमी से मिलता जुलता है, वे लम्बी उम्र जियेंगे और बडी संख्या में सन्तान उत्पन्न करेंगे। ये सन्तान अपने पूर्वजों के रङ्ग रूप को प्राप्त कर लेंगे। इसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ छलावरण वाले कीट के सन्तान लम्बी उम्र तक जियेंगे और अधिक सन्तान उत्पन्न करेंगे। अन्त में लम्बी अवधी तक इस प्रकृया के चलने के बाद ये कीट अपने आस पास के वातावरण से पूरी तरह मिल जायेंगे।

कुछ ईमान्दार लोग यह कहकर इसका विरोध करेंगे कि यह व्याख्या परमेश्वर की महिमा कम करता है। वे इस बात पर जोड देते हैं कि परमेश्वर ने सभी जीव जन्तु को अपने आस पास के वातावरण के अनुकुल बनाया था। उत्तर है, हाँ, उन्होंने ऐसा ही किया था, लेकिन क्रमिक विकाश की प्रकृया से। कौन महान् है, वह परमेश्वर जिसने सभी प्रजातियों को अनायास ही अपने वातावरण के अनुकुल बना दिया, या वह परमेश्वर जिसने पहले ऐसी व्यवस्था बनायी जिससे प्रजातियाँ सही तरिके से अपने वातावरण के अनुसार परीवर्तन होती गयी? पहली धारणा बच्चों को पसन्द आयेगी, दूसरी धारणा वयस्कों को।

मनुष्य ने घरेलु पशुओं में सुधार करने के लिये क्रमिक विकाश की प्रकृया का अनुकरण किया है। वह सर्वश्रष्ठ पशुओं के प्रजनन को प्रोत्साहित करता है ताकि उनके गुण आगे बढें और दुर्गुण नष्ट हो जायें। इसी के फलस्वरुप अधिक दूध देने वाली गायें, अघिक मांस वाले सुअर, तेजी से दौडने वाले मजबूत शरीर वाले घोडे, कुत्ते जो अपने पूर्वजों की तुलना में अच्छा काम कर सकते हैं, हमारे बीच हैं।

अपने आविष्कारों के साथ भी मनुष्य ने कुछ ऐसा ही किया है। कोई भी विकाश या विचार जो अच्छा और लाभदायक है वह उपयोग में रहता है और उसमें और सुधार किया जाता है। ऐसे परीवर्तन जो लाभदायक नहीं हैं या कमसल हैं, उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है और भुला दिया जाता है।

कारें विशलाकाय गाडियों के रूप में आरम्भ हुईं, जो धीमी गति से चलती थी और बडे पैमाने पर ईधन पीती थी जो आज एयरो डाइनेमिक आश्चर्य के रूप में हमारे बीच उपलब्ध हैं। उनका आरम्भ धनाढ्य लोगों कै प्रतिष्ठा के चिन्ह के रुप में हुआ था जो धिमी गति से रेंगते थे और आगे का रास्ता खाली करने के लिये एक व्यक्ति दौड लगाता था। कारों में बत्ती, हौर्न, गति, गर्म रखने की तकनीक, आराम, ताला चाभी, दक्षता आदि बहुत सी चीजें जो आरम्भ में नहीं थी, इनका विकाश हुआ है। उनका मूल्य भी इतना कम हो गया है कि विकशीत देशों में हर व्यक्ति कार रखने की इच्छा रखता है।

कम्प्यूटर का विकाश पाँचवे दशक के डायनासोर से वर्तमान समय के तकनिकी जादूगरी के रूप में बहुत ही शानदार तरिके से हुआ है ।

इमारतों का विकाश इसी प्रकार पेड, गुफायें, मिट्टी से बने झोंपडे से लेकर आज के आधुनिक निर्माण के तकनिक से निर्मीत भवन तक, जिनमें हम आज रहते हैं।

मनुष्य अपने सृष्टिकर्ता के प्रतिरूप में बना है और जब वह स्वयम् बनाता है तब अपने सृष्टिकर्ता का अनुकरण करता है। वह क्रमिक विकाश की प्रकृया का उपयोग करता है।

बाइबल स्वयम् एक क्रमिक विकाश के प्रकाश का अभिलेख है। आदम के पतन के बाद बिगडी बातों को सुधारने के लिये यीशु ने हव्वा के कोख से दूसरे ही दिन जन्म नहीं लिया। इसके बजाय कई हजार वर्षों के बाद, जब समय पूरा हुआ तब मरीयम के कोख से उनका जन्म हुआ। परमेश्वर ने तब तक संसार और अपने चुने हुए लोगों को भविष्यवक्ताओं और प्रलयों के द्वारा काट छांट कर यीशु को स्वीकार करने के लिये तैयार किया था।

मेरे जीवन में (और आपके जीवन में भी) परमेश्वर का काम क्रमिक विकाश का रहा है। परमेश्वर ने, “उन्हें गिराने और ढा देने के लिये, नाश करने और काट डालने के लिये, या उन्हें बनाने और रोपने के लिये।” यिर्मयाह १:१० मुझ में और आप में काम किया है। हमारे लिये यह आवश्यक था कि हम सब बातों की जाँच करें और जो बातें अच्छी हैं उन्हें पकडे रहें। हमारे नये जन्म के समय परमेश्वर जैसा चाहते थे हमारी सिद्धता उस स्तर पर नहीं थी। आज तक परमेश्वर हम सिद्धता प्राप्त करें, इसके लिये प्रयत्नशील हैं। उन्हों ने फल नहीं देने वाली डालियों को काट डाला है और फल फलाने वाली डालियों की छँटनी की है कि और अधिक फल लगे।

कलीसिया का अभिलेख

कभी कभी हम ईतिहास से शिक्षा ले सकते हैं।

विज्ञान में उल्लेखित बातें जाहिरा तौर पर वैसी नहीं होतीं। परमेश्वर ने प्राकृतिक चीजों के साथ साथ आत्मिक चीजों को भी बनाया है ताकि आप उन चीजों को ही प्राप्त करें जिनकी आपने खोज की है। ब्रह्माण्ड के अधिकांश रहस्य गहराई में छिपे हैं। अभी कुछ ही समय पूर्व तक किसी ने भी ब्रह्माण्ड के माप या परमाणु या उसके विभाजीत भागों के आकार का अनुमान नही लगा सका था।

प्राकृतिक और आत्मिक दोनों ही अवस्थाओं में उनके खोज और प्रकाश पाने के नियत समय से पहले तक बहुत सी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर ने गुप्त रखा है। धार्मिक क्षेत्र प्राकृतिक और आत्मिक दोनों से सम्बन्धित सत्य को दबाने के पक्ष में अधिक और उनकी खोज करने और उन्हे बढावा देने के पक्ष में कम रहा है।

आकस्मिक पर्यवेक्षक के लिये पृथ्वी गोल न होकर समतल ही दिखती है। यूनानियों ने इसके गोल होने को लेकर विचार करना आरम्भ किया क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि चन्द्रग्रहण पृथ्वी की छाया चन्द्रमा के उपर से गुजरने से होता है। उन्हों देखा कि छाया तो गोल है। उन्होंने यह भी ध्यान दिया कि यदि कोई उत्तरी गोलार्द्ध पर दक्षिण की ओर चले तो सूर्य और कुछ तारों की ऊँचाई बढ जाती है। यदि कोई उत्तर की और चले तो सूर्य नीचे और कुछ तारे जैसे कि ध्रुवतारा की ऊंचाई अधिक दिखेगी। यदि आप उत्तरी ध्रुव पर जायेंगे तो ध्रुवतारा आपके शिर के ऊपर होगा।

अब भी उनका सोचना यही था कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र थी और सभी चीजें इसके चारों ओर घुमती थी। मुझे आज भी लगता है कि उनका विचार सही था। ऐसा सिर्फ उस समय हुआ जब कैपरनिकस और उनके बाद गैलिलियो ने आकाश और विशेषकर ग्रहों का सावधानी पूर्वक अध्ययन किया, तब उन्हें पता लगा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर और इसके साथ ही सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर घुमते हैं। गैलिलियो ने अपने दूरबीन से देखा कि वृहस्पति के चारों ओर उसके अपने चाँद घूमते हैं, जिससे यह बात गलत प्रमाणित हो गयी कि सभी ग्रह पृथ्वी के चक्कर लगाते हैं। इसके दण्ड स्वरूप कलीसिया ने गैलिलियो को घर में नजर बन्द कर अपने आप को अलग रखने को बाध्य किया।

अन्त में कलीसिया ने जब इस तर्क में कि सूर्य पृथ्वी के चारों और घुमता है, हारना आरम्भ किया तब यह कहना शुरु कर दिया कि इससे कोई अन्तर नहीं पडता।

धर्माधिकारी अज्ञानता में आगे थे। सबसे बुरी अवस्था में वे स्वयम् को परमेश्वर और यीशु के स्थान पर रखना (खृष्ट विरोधी का अर्थ यही होता है) और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा पर शासन करना चाहते थे। उन्होंने उन सभी चीजों की विश्वसनीयता नष्ट करने का प्रयत्न किया है जो उनके द्वारा आरम्भ नहीं हुआ।

अधिकतर वैज्ञानिक खोज और विकाश (कार, हवाई जहाज, टेलिभीजन, कम्प्यूटर) को शंका की दृष्टि से देखा जाता है जबकि उनके द्वारा शक्ति और प्रतिष्ठा में वृध्दी ही हुई है।

सभी धार्मिक शक्ति सम्पन्न समूहों जैसे कैथोलिक या कट्टरपन्थी, या बाइबल या कुरान, या किसी भी धर्मशास्त्र के विश्वासी में यही धारणा व्याप्त है। विज्ञान लोगों को संगठीत कलीसिया से दूर कर सकता है, परन्तु परमेश्वर से दूर कभी नहीं कर सकता। विज्ञान परमेश्वर के शिल्प का अध्ययन ही तो है।

विश्वास को क्षति

लेकिन क्या विकाशवाद में विश्वास करने से लोगों का अपना विश्वास क्षतिग्रस्त नहीं होगा? हाँ, ऐसा हो सकता है, यदि वह विश्वास बाइबल के एक एक शब्द के अक्षरस: अनुवाद पर आधारीत है। जब युवाओं का पालन पोषण इस शिक्षा के साथ किया जाय कि ६ दिनों में सृष्टी पूर्ण हुई यही बाइबल की सही शिक्षा है, और इस बात पर विश्वास किए बिना वे यीशु के अनुयायी नहीं बन सकते, तो वहां उनके विश्वास के क्षतिग्रस्त होने का बहुत बडा खतरा है। लेकिन इसमें विकाशवाद की शिक्षा की कोई गलती नहीं है। गलती उस झूठे नींव की है जो अच्छे मनसाय के बावजूद उनके बाइबल शिक्षकों ने डाली है। उन्हें तो यही शिक्षा दी गयी है कि वे एक साथ यीशु के अनुयायी और विकाशवाद के विश्वासी नहीं हो सकते। यह गलत शिक्षा ही उनके विश्वास को क्षति पहुँचाती है।

जो लोग सरल तरिके से यीशु पर विश्वास करते हैं और उनके सर्वशक्तमान् परमेश्वर पिता पर, और विज्ञान के साथ साथ विकाशवाद का अध्ययन करते हैं वे सिर्फ असिमीत बुद्धिमत्ता वाले परमेश्वर पर अपने विश्वास को और मजबूत ही करेंगे। उन्होंने ही विज्ञान के सिद्धान्तों की रचना की और अकल्पनीय क्रमिक विकाश के तन्त्र को तैयार किया। क्रमिक विकाश के द्वारा ही उन्होंने हमारे ग्रह को और हमें आज के इस अकल्पनीय आश्चर्यजनक अवस्था में ला दिया है, जो हमारे चारों ओर हम प्रति दिन देखते हैं।

निष्कर्ष

परमेश्वर का राज्य झूठ पर निर्माण नहीं हो सकता है। हम ईतिहास के ऐसे बिन्दु पर हैं जहाँ परम्परागत कलीसिया बिखर रही है और एक नया स्वरूप उभर रहा है। सच्ची परम्पराओं को हम बचाकर अगली पीढी तक पहुंचा सकते हैं। झूठी परम्परायें हमारे लिये जंजीर हैं जो हमें बाँधकर मनुष्यों के गुलाम बना देती हैं और परमेश्वर में निहीत हमारे उत्तराधिकार से बन्चित कर देती हैं।

हमें तब तक परमेश्वर को ढूंढना और खोज करना चाहिये, जबतक हम इन दोनों का अन्तर नहीं समझ लेते। थिस्सलोनिकियों को पौलुस ने जो निर्देश दिये थे, हमें भी उसे पालन करना चाहिये। “सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो।” (१थिस्स. ५:२१)


अनुवादक: डा. पीटर कमलेश्वर सिंह