नई वाचा में आदेश

परिचय

जब मैं एक जवान विश्वासी था, मुझसे ऐसा कहा गया था कि बाइबल परमेश्वर का वचन है। मुझे इसे इस रीति से पढना चाहिए कि जैसे इसके एक एक शब्द व्यक्तिगत रुपसे मुझे सम्बोधित किए गये हैं। “जब तुम प्रार्थना करते हो तब तुम परमेश्वर से बातें करते हो।” उन्होंने मुझसे कहा था, “और जब तुम बाइबल पढते हो, तब परमेश्वर तुमसे बातें करता है।”

बाइबल प्रतिज्ञाओ और आदेशों, दोनों से भरा है। मुझसे यह कहा गया था कि सभी आदेशों का पालन करना मेरा कर्तव्य है और सभी प्रतज्ञाओ का दावा करना मेरा उत्तरदायित्व है।

उनके द्वारा कही गयी बातों की पुष्टी बाइबल भी करता है, ऐसा लगता था।

यहोशू १: ८ कहता है, “व्यवस्था की यह पुस्तक तेरे चित्त से कभी न उतरने पाए, इसी में दिन रात ध्यान दिए रहना, इसलिये कि जो कुछ उस में लिखा है उसके अनुसार करने की तू चौकसी करे; क्योंकि ऐसा ही करने से तेरे सब काम सफल होंगे, और तू प्रभावशाली होगा”

भजन संग्रह १ भी इसीके समान है: “क्या ही धन्य है वह पुरूष ... व्यवस्था से प्रसन्न रहता; और उसकी व्यवस्था पर रात दिन ध्यान करता रहता है। वह उस वृक्ष के समान है, जो बहती नालियों के किनारे लगाया गया है। और अपनी ऋतु में फलता है, और जिसके पत्ते कभी मुरझाते नहीं। इसलिये जो कुछ वह पुरूष करे वह सफल होता है।”

मुझे ऐसा लगता था कि ये बातें निश्चय ही सफल आत्मिक जीवन जीने के उपाय थे।

कुछ वर्षों के बाद, मैने देखा कि वचन अध्ययन करने के लिये दिये गये ये दोनों निर्देशन पुराने नियम के हैं। पर, इस तरह का कोई भी निर्देशन नया नियम में नहीं दिखता। कभी भी पतरस, पावल, यूहन्ना या वास्तव में यीशु ने भी किसी से वचन अध्ययन करने, आदेश पालन करने और उनकी प्रतिज्ञाओ का दावा करने के निर्देश नहीं दिये थे।

पुराना वाचा हिब्रू (यहूदियों) के धर्मशास्त्र, विशेषकर व्यवस्था (तोरा) पर अधारित था, जब कि नई वाचा पवित्र आत्मा पर।

इस लेख में मैं नई वाचा में दिए गए आदेशों पर विचार करना चाहता हूं। एक अलग लेख में मैं नये नियम में उल्लेखित प्रतिज्ञाओ के विषय में विचार करने की सोच रहा हूं।

बाइबल में दिए गये आदेश

बाइबल में बहुत से आदेश समाविष्ट किए गये हैं जिन्हें परमेश्वर ने अपने लोगों को दिए हैं। क्या ये सभी आदेश हमारे लिये भी हैं? अधिकांश लोग मानते हैं कि ऐसा ही है।

वर्षों पहले मैने महान् क्रिकेट खिलाडी और अगुवा मिशनरी सी. टी. स्टड की जीवन कथा पढी थी। उन्होंने चीन, भारत और अफ्रिकामें प्रभु की सेवा की थी और वर्ल्डवाइड इभान्जीलिस्टीक क्रूसेड की स्थापना की थी। युवावस्था में उन्होंने बाइबल का गहरा अध्ययन किया था और उसमें दिए गये सभी आदेशों को लाल रंग से चिन्हीत किया था ताकि वह निश्चीत हो जायें कि उन्होंने सभी आदेशों का पालन किया है। “तुम्हारे पास जो कुछ भी है, सभीको बिक्री कर गरीबों को देदो।” और अपनी पूरी सम्पत्ति बांट दी थी। उन्होंने तब यीशुके इन शब्दों को पढा, “सम्पूर्ण संसार में जाओ और हरेक को परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार करो।” और आज्ञा पालन करते हुए मिशनरी के रुप में वह चीन गये।

परमेश्वर ने आश्चर्यजनक रुपसे सी. टी. स्टड को आशिष दी और उन्हें सफलता दी, लेकिन क्या हमें भी उनके पद चिन्हों पर चलना और बाइबल के सभी आदेशों का पालन करना आवश्यक है?

सर्व प्रथम हम यीशु के मुख से निकले दो आदेशों पर विचार करेंगे।

“महान आज्ञा”

“तुम सारे जगत में जा कर सारी सृष्टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार करो” (मरकुस १६: १५)

बाइबल में उल्लिखीत यह एक सर्वविदीत आदेश है।

मत्ती २८: १८- २० में , यीशु ने अपने चेलों से कहा, “जाओ और जाति जाति के लोगों को शिक्षा दो।”

यीशु ने लुका ४४: ४७ और प्रेरित १: ८में समान आदेश दिये थे। इन सभी आदेशों को एक साथ मिलाकर “महान् आज्ञा” के रुप में जाना जाता है, लेकिन यह नाम नया नियम में कहीं भी नहीं मिलता।

क्या निश्चीत रुप से “महान् आज्ञा”’सभी विश्वासियों के लिये है? हम सबको सभी व्यक्तियों के बीच सुसमाचार प्रचार करना आवश्यक है। हमें हमेशा यही सिखाया गया है।

लेकिन आइये, हम इन्हें और गहिराई से देखें। यीशु ने अपने बाकी ११ चेलों को यह आदेश दिया था। इस कार्य को करने के लिये उन्होंने चेलों को, सुसमाचार प्रचार करने, रोगियों को चंगा करने, दुष्टात्माओ से छुटकारा देने और मृतकों को जीवित करने के लिये ३ वर्ष तक तालीम दिया था। जो जिम्मेवारी यीशु उन्हें देने वाले थे, वे सब अब उसके लिये तैयार थे।

लेकिन सभी तालिमों के बाद भी यीशु ने चेलों से कहा था कि “जब तक स्वर्ग से सामर्थ न पाओ, तब तक तुम इसी नगर में ठहरे रहो” (लुका २४: ४९)। पवित्र आत्मा से भरे जाने से पहले चेले यीशु के निर्देश पालन करने में असमर्थ थे।

क्या यीशुमें विश्वास करने वाले सभी सुसमाचार प्रचार करने, रोगियों को चंगा करने, दुष्टात्माओ से छुटकारा देने और मृतकों को जीवित करने के लिये ३ वर्षों का तालीम लिया है? और क्या सभी पवित्र आत्मा से भरे गये हैं? यदि ऐसा नहीं है तो ये सब महान् आज्ञा कैसे पूरा कर सकते हैं? ये साधारणतया इस जिम्मेवारी के लिये सर्वथा अयोग्य हैं।

क्या पतरस, पौलुस और याकुब ने “महान् आज्ञा” के जिम्मेवारी को अपने पत्रों के द्वारा अपने पाठकों को सौंपा था? उनके पत्रों या पैलुस के पत्रों में ऐसा कोई भी निर्देश नहीं मिलता।

यीशु ने एक अलग महान् आज्ञा की बात की है जिसका उल्लेख मत्ती २२: ३७ -३८ में मिलता है, ““तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है”।”

पौलुस की मिश्नरी यात्रायें

पौलुस नये नियम के समय का एक महान् सुसमाचार प्रचारक था। क्या इसका कारण यह था कि पतरस ने उसे यीशु की बातें बतायी थीं और महान् अज्ञा के विषय में जानकारी दी थी? गलातियों १: १७ –१८ में पौलुस वास्तव में हमें यह बताते हैं कि उनके विश्वास करने के ३ वर्षों तक किसी भी प्रेरीत से उनकी मुलाकात नहीं हुई थी और उसके बाद भी उन्हों ने सिर्फ पतरस के साथ थोडा समय बिताया था।

तब, क्यों और कैसे पौलुस ने रोमी साम्राज्य में सुसमाचार प्रचार करना आरम्भ किया? प्रेरित १३: २ में पढें, “पवित्र आत्मा ने कहा; मेरे निमित्त बरनबास और शाऊल को उस काम के लिये अलग करो जिस के लिये मैं ने उन्हें बुलाया है” सुसमाचार प्रचार करने का आदेश पौलुस को यीशु के मुख से या धर्मशास्त्र से प्राप्त नहीं हुआ था, परन्तु मण्डली के मार्फत सिधे पवित्र आत्मा से मिला था।

पौलुस के धर्मशास्त्र के ज्ञान और पवित्र आत्मा के अनुभव के कारण सुसमाचार प्रचार और वचन की शिक्षा देने, दोनों कार्यों के लिये अच्छी तरह सुसज्जित था।

पौलुस के लिये सिर्फ एक मिश्नरी यात्रा पर्याप्त नहों था। उसे दूसरी मिश्नरी यात्रा पर जाने का आदेश किस प्रकार प्राप्त हुआ था? नहीं, ऐसा कोई आदेश नहीं था। प्रेरित १५: ३६ में देखें। ‘कुछ दिन बाद पौलुस ने बरनबास से कहा; कि जिन जिन नगरों में हम ने प्रभु का वचन सुनाया था, आओ, फिर उन में चलकर अपने भाइयों को देखें; कि कैसे हैं’।

परमेश्वर से कोई आदेश नहीं। यह तो पौलुस के मन में आया सिर्फ एक विचार था।

क्या दूसरी मिश्नरी यात्रा पर निकलने का पौलुस का निर्णय सही था? क्या प्रभू के स्पष्ट निर्देश के लिये उसे प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए थी? अथवा क्या मण्डली को पहली बार के तरह दूसरी बार भी उन्हें यात्रा पर भेजने के लिये वचन द्वारा निर्देश नहीं मिलना चाहिये?

यहां हम एक महत्वपूर्ण पाठ सिखते हैं। नई वाचा में दी गयी परमेश्वर की आज्ञायें पुराने वाचा की आज्ञाओ की तुलना में अलग प्रकार से काम करती हैं। पुराने नियम में परमेश्वर की आज्ञायें बाहरी रुप से मिलती थीं, धर्मशास्त्र के द्वारा, या अन्य व्यक्तियों के द्वारा, जैसे कि नबियों के द्वारा। नये नियम में परमेश्वर की आज्ञायें अन्दरूनी होती हैं। वह अपने आदेश हमारे अन्दर देते हैं। वह अपनी इच्छा अनुससर के कार्य करने के लिये हमारे अन्दर एक चाह उत्पन्न करते हैं, फलस्वरुप बहुत बार तो हम यह भी निश्चय नहीं कर पाते कि हम उसकी इच्छा अनुसार के कार्य कर रहे हैं। हमें लगता है कि यह हमारे अपने विचार हैं। परमेश्वर ने हमें ख्रिष्ट का मन दिया है।

परमेश्वर ने पौलुस को सुसमाचार प्रचार करने का आदेश नहीं देकर, उसके अन्दर एक उत्कट इच्छा दी कि वह प्रचार करे। पौलुस ने कहा, “और यदि मैं सुसमाचार सुनाऊं, तो मेरा कुछ घमण्ड नहीं; क्योंकि यह तो मेरे लिये अवश्य है; और यदि मैं सुसमाचार न सुनाऊं, तो मुझ पर हाय’” (१ कोर ९: १६)

एफिसियों ४: ७-११ में पौलुस द्वारा उल्लिखित सेवकाई के पांच वरदानों में सुसमाचार प्रचार का वरदान भी एक है। बाकी चार - प्रेरित, नबी, चरवाहा और शिक्षक के वरदान हैं। परमेश्वर लोगों को नबी होने को नहीं कहता। वरन् उन्हें इसके लिये आदेश नहीं देकर वह उनके अन्दर नबूबत की सेवकाई भर देता है। इसी प्रकार वह लोगों को पास्टर बनने का आदेश नहीं देता, वरन् उन्हें पास्टर का हृदय दे देता है।

यीशु के जीवन में ये सारी बातें स्पष्ट रुप से देखी जा सकती हैं, जो नई वाचा के दृष्टीकोण से हमारे लिये प्रेरणा स्रोत हैं। परमेश्वर ने उन्हें कोई भी आज्ञा बाहरी रुप से नहीं दी थी। उन्होंने सभी कार्य अपने हृदय में पवित्र आत्मा की अगुवाई के अनुसार किये थे। यीशु ने सिर्फ वही किया जो कार्य वह करना चाहते थे। परमेश्वर ने उन्हें कोई निर्देश नहीं दिया था। इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। हरेक कार्य जो यीशु करना चाहते थे, वे सब परमेश्वर की ही इच्छा थी।

पौलुस ने तिमोथी को पत्र लिखा था, जो कि एक शिक्षक भी था, और उससे कहा था, “हर एक पवित्रशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है” २ तिमो ३: १५- १७ देखें। पौलुस स्वयम् ने भी ठीक इसी प्रकार धर्मशास्त्र का उपयोग किया, लेकिन उसने तिमोथी को धर्मशास्त्र में उल्लेखित आदेशों का पालन करने या उनमें दी गयी प्रतिज्ञाओ का दावा करने को नहीं कहा।

एक दूसरे को प्रेम करो

यीशु ने अपने चेलों के बीच तीन बार इस आदेश को दुहराया था:

यह आश्चर्य की बात है कि पतरस और यूहन्ना, दोनों में से किसी ने भी पहाडी पर दिये गये यीशु के सन्देशों में से किसी भी बात को नहीं दुहराया है, लेकिन प्रेम करने के इस आदेश को दोनों ने ही कई बार दुहराया है।

इन पदों को भी देखें १ पतरस ३: ८, १ यूहन्ना ३: २३, १ यूहन्ना ४: ७, १ यूहन्ना ४: ११ -१२।

पौलुस ने भी प्रेम करने के आदेश को बहुत बार दुहराया है। रोमियों १२: १०, रोमियो १३: ८, एफिसियो ४: २ देखें

यीशु के साथ साथ पतरस, पौलुस और यूहन्ना, सभीने अपने पाठकों को एक दूसरे को प्रेम करने के लिये निर्देश दिये थे। लेकिन किस प्रकार? मुझे ऐसा लगता है कि बाइबल में दिये गये सभी आदेशों में यह सर्वाधिक कठीन आदेश है। हम इस आदेश का पालन किस तरह कर सकते हैं?

पौलुस ने हमें इसका एक मात्र उपाय बताया है “पवित्र आत्मा जो हमें दिया गया है उसके द्वारा परमेश्वर का प्रेम हमारे मन में डाला गया है” (रोमियो ५: ५5) । पौलुस ने हमें इसका उसने कुछ इसी प्रकार का संदेश थिस्सलुनिकियों को भी दिया था, “किन्तु भाईचारे की प्रीति के विषय में यह अवश्य नहीं, कि मैं तुम्हारे पास कुछ लिखूं; क्योंकि आपस में प्रेम रखना तुम ने आप ही परमेश्वर से सीखा है” (१ थिस्स ४: ९)।

हम एक दूसरे से तभी प्रेम कर सकते हैं जब परमेश्वर ने हमारे हृदय में उस प्रेम को उडेला हो।

नया नियम का समय

नये नियम के समय में कितनों के हाथ में नया नियम पुस्तक उपलब्ध था? बहुत ही कम लोगों के हाथ में। इसका अधिकांश भाग तो अभी लिखा भी नहीं गया था। कुछ गिने चुने विशेष अवसर प्राप्त लोगोंको पतरस या पौलुस ने पत्र लिखे थे, और इनमें से कोरिन्थियों और थिस्सलुनुकियों, हरेक ने तो दो दो पत्र प्राप्त किये थे।

कुछ यहूदी लोग अपने सभा भवनों में चर्म पत्र के रुप में ‘तोरा’ और कुछ अन्य हिब्रू भाषा की पुस्तकें भी रखते थे।

उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक बहुत कम लोगों के पास अपनी बाइबल हुआ करती थी, और आज भी बहुत से लोगों के पास अपनी बाइबल नहीं है।

ये सभी लोग किस प्रकार बाइबल की आज्ञाओ का पालन करते थे या परमेश्वर के द्वारा दी गयी प्रतिज्ञाओ पर दावा करते थे? इसका एक मात्र उत्तर सिर्फ यही हो सकता है कि अपने जीवन के आधारशीला के रुपमें उपयोग करने के लिये उनके पास बाइबल उपलब्ध नहीं थी, इसके बदले वे अपना जीवन यीशु और पवित्र आत्मा पर अधारित कर सकते थे।

पहाडी का उपदेश

मत्ती के पुस्तक का ५ से ७ अध्याय तक का भाग पहादी के उपदेश के नाम से प्रसिद्ध है।

यीशु ने पुराने नियम से बहुत सारे कठीन निर्देशों को लेकर उन्हें और अधिक कठीन बना दिया था।

क्या चेलों ने इन सभी निर्देशों का पालन किया था? क्या यीशु गम्भीरता पूर्वक ऐसा चाहते थे कि वे पालन करें? चेले बार बार असफल रहते थे।

अन्य आदेशों को पालन करना तो और असम्भव था।

लेकिन पेन्तीकुस्त के दिन सब कुछ बदल गया। जिस आत्मा ने यीशुको सिद्ध जीवन जीने की शक्ति दी थी, वही आत्मा प्रतिक्षा कर रहे चेलों में भी आ गये थे।

इससे हम यही सिखते हैं कि यीशु के मुखसे निकले आदेश उन्हें पूरा करने की शक्ति भी उपलब्ध कराने की क्षमता रखते हैं।

वे शब्द जो पहले बाहरी रुपसे यीशु के भौतिक शरीर से दिये गये असम्भव आदेश थे, अब उनके हृदय में लिखे गये भित्री आदेश के रुप में परीवर्तीत हो गये थे।

सारांश

हम में से अधिकतर लोगों को ऐसा सिखाया गया था कि हमारा जीवन बाइबल पर अधारित होना चाहिये। इसमें दिये गये आदेशों का हमें पालन करना चाहिये और इसकी प्रतिज्ञाओ का दावा करना चाहिये।

भजन ११९: ११ में उल्लीखीत शब्दों के अनुसार हमें बाइबल के पदों को मुंह जबानी याद करना चाहिये, “मैं ने तेरे वचन को अपने हृदय में रख छोड़ा है, कि तेरे विरुद्ध पाप न करूं”।

ये सारे निर्देश अच्छे थे और इनसे आशिष प्राप्त होता था, लेकिन बुनियादी तौर पर वे सब पुराने वाचा में दी गयी शिक्षा थी।

पुराना वाचा अच्छा वाचा था, फिर भी और लोगों के तरह यहूदी लोग भी पाप स्वभाव से भरे थे और उन आदेशों का पालन नहीं कर पाते थे। परमेश्वर ने यिर्मया नबी के द्वारा इस बात की भविष्यवाणी की थी कि वे नई वाचा स्थापित करेंगे जिसके फल स्वरुप उनकी व्यवस्था लोगों के हृदय पर लिखा होगा। (यिर्मया ३१: ३१ -३३)। वह उनके अन्दर से पाप स्वभाव को निकाल फेकेंगे और इसकी जगह ऐसा हृदय देंगे जो उनके आदेशों को स्वाभाविक रुप से पालन करेंगे।

इस कार्य को उन्हों ने हमारे उद्धार कर्ता यीशु की मृत्यु और उनके पुनरुत्थान के द्वारा पूरा किया है।

अनुवादक - डा पीटर कमलेश्वर सिंह