ईसाई और इसलाम धर्म में

हिंसा

यीशु और मुहम्मद में

भिन्नता

परिचय

यह बड़े दुख की बात है कि पिछले दो हजार वर्षों से अपने को ईसाई कहने वालो में से बहुत कम लोग यीशु के सच्चे अनुयायी हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो संसार की अवस्था आज कुछ और ही होती।

यह भी प्रसन्नता की बात है कि पिछले १४०० वर्षों से अपने आप को मुस्लिम कहने वाले बहुत कम लोग ही मुहम्मद के सच्चे अनुयायी हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो संसार की अवस्था आज कुछ और ही होती।

इस लेख में मैं इसी बात को समझाना चाहता हूं।

क्या सभी धर्म करीब करीब एक समान हैं? बहुत लोग ऐसा ही समझते है। पहली नजर में ईसाई और इस्लाम, दोनों धर्म समान दिखते है। (मैं इन दोनों शब्दों, ईसाई और इस्लाम को इनके व्यापक अर्थ में उपयोग कर रहा हूं, अर्थात् कोई भी व्यक्ति जो अपने आपको ईसाई या मुस्लिम समझता है)। दोनों धर्मों में समान नैतिक नियम है। दोनों का लक्ष्य विश्व पर शासन करना है। लोगों का कहना है कि दोनों धर्मों के इतिहास में हिंसा भरा समय रहा है, विशेषकर लोग क्रूसेड काल की ओर संकेत करते है जो हिंसा मसीह के नाम में किये गये थे। वर्तमान समय में मुहम्मद के नाम में हो रही हिंसा सभी जानते है। हिन्दू या बौद्ध धर्मावलंबियों की तुलना में ईसाई और इस्लाम धर्मावलंबियों की संख्या अधिक है, जो इनके असली प्रतिस्पर्धी भी है। अज विश्व में ईसाइयों की संख्या २अरब ३० करोड और इस्लाम धर्मावलंबियों की संख्या १अरब ६ करोड है (यह संख्या भी इन शब्दों के व्यापक अर्थ में ली गयी है।)

इन २ अरब ३० करोड़ ईसाइयों में कितने लोग यीशु के सच्चे अनुयायी है? इन १ अरब ६ करोड़ मुस्लिम में कितने लोग मुहम्मद के सच्चे अनुयायी है?

क्या ये ईसाई विश्वास योग्य रूप से बाइबल की शिक्षा का अनुसरण करते है? क्या ये मुस्लिम विश्वास योग्य रूप से कुरान की शिक्षा का अनुसरण करते है?

इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने के लिये इन दोनों धर्मों को मैं चार तरह से तुलना करूंगा।

आधुनिक स्वरूप

ईसाई और इस्लाम दोनों धर्मों के आधुनिक स्वरूप अनेक है।

हजारों की संख्या में नहीं, परन्तु सैकड़ों की संख्या मैं ऐसे सम्प्रदाय है जो अपने आप को ईसाई होने का दावा करते है और उनमें से अधिकांश ऐसा भी दावा करते है कि सिर्फ वे ही सत्य है, जैसे मर्मन एवं यहोवा की साक्षी नामक सम्प्रदाय।

इस्लाम की शाखायें तुलनात्मक रूप से कम है। मुख्य दो शाखाओं में सुन्नी संप्रदाय में करीब ८५% और सिया सम्प्रदाय के लोग करीब १५% है। अन्य, जैसे सुफी, अहमदिया और अलावी आदि की संख्या बहुत ही कम है।

बहुत ही कम संख्या में ऐसे मुस्लिम अल्प संख्यक है जो यह मानते है कि उनके धर्म के प्रचार के लिये हिंसा का उपयोग आवश्यक है, लेकिन यह छोटी संख्या भी विश्व व्यापी रूप में नर संहार और भौतिक क्षति के लिये काफी है। १ अरब ६० करोड़ का १% १६ करोड़ होता है ! The Religion of Peace नामक वेब साईट हरेक दिन ४ या ५ ऐसी हिंसा की घटना दर्ज करती है जो मुस्लिम समूहों के द्वारा अंजाम दिये जाते है। ऐसी हिंसा की घटनाएं मुस्लिम देशों में भी की जाती है और उन देशों में भी जिन्हें लोग ईसाई देश कहते है।

ईसाई मिलिशिया अनेक अफ्रीकी देशों जैसे सेन्ट्रल अफ्रीकी रिपब्लिक, नाइजीरिया और ऊगाण्डा और सिरिया और ईराक में पाए जाते है। इनमें से अधिकतर मुस्लिम हिंसा से अपनी रक्षा करने के लिये गठित किये गये है।

ऐसे व्यक्ति भी है जो हिंसा की घटनाओं के लिये जिम्मेदार है पर अपने आपको ईसाई होने का दावा करते है, लेकिन इनकी तादाद मुस्लिम हिंसा जितनी नहीं है। (Christian Terrorism नामक वेब साइट ईसाई आतङ्कवादी घटनाओं को दर्ज करती है, ऐतिहासिक और वर्तमान दोनों को।)

क्या हिंसा वादी मुस्लिम और हिंसा वादी ईसाई, दोनों अपने अपने धर्मों का पालन ईमानदारी पूर्वक कर रहे है? इस प्रश्न का उत्तर भी हम इनके इतिहास, पवित्र शास्त्र और इनके संस्थापकों के आधार पर ढूंढ़ेंगे।

इतिहास

इन दोनों धर्मों के इतिहास का अधिकांश भाग खून से रंगा हुआ है। क्रूसेड (बल पूर्वक धर्मान्तरण का अभियान), इनक्वीजिसन (कैथोलिक चर्च द्वारा गठित न्यायाधिकरण जो विधर्मियो को सजा देती थी) और हौलोकास्ट (जिसमे यहूदियो का सर्वनाश या जाति सन्हार किया गया) के विषय में सभी जानते है। पश्चिमी देशों में इस्लाम का इतिहास बहुत कम लोगों को पता है।

ईसाई धर्म के इतिहास को आरम्भिक और मध्यकाल, दो भागो में विभाजित करना होगा।

ईसाई धर्म के मध्यकाल का इतिहास

ईसाई धर्म का मध्यकालीन इतिहास अत्यधिक हिंसा से भरा है। सबसे बुरा हाल इनक्वीजिसन के अवधि में रहा। कुछ लोगों का कहना है कि इस अवधि में ५ करोड़ यहूदी और ईसाइयों की हत्या हुई थी। कुछ लोग इस संख्या को हजार या दस हजार ही मानते है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस विषय पर प्रोटेस्टेंट और रोमन कैथोलिक इतिहासकारों के विचार समान नहीं है।

क्रूसेडकाल के २०० वर्षों में १० से तीस लाख लोगों की हत्या हुई थी। इसका घोषित मकसद मुस्लिम धर्मावलंबियों के हाथ से पवित्र भूमि को वापस लेना था, लेकिन यूरोप से ईजराईल जाने वाले रास्ते में बहुत सारे यहूदियों की भी हत्या की गयी थी।

दिखावटी ईसाई धर्मावलम्बी यूरोप में होलोकास्ट के समय साठ लाख यहूदी और कितने और लोग मारे गये थे, लेकिन इनक्वीजिसन और क्रूसेड काल के विपरीत, इनकी हत्या मसीह के नाम में नहीं की गयी थी।

कुछ लोग ऐसा समझते है कि यूरोपीय देशों से ईसाई धर्म का प्रचार हुआ है। ईङ्गलैण्ड, फ्रांस, पोर्चुगल और हौलैण्ड, इन सभी देशों के अपने अपने छोटे बड़े उपनिवेश थे। ये सब बल पूर्वक जीते गये थे। प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक, दोनों सम्प्रदाय के मिशनरी विजयी सेना के पीछे पीछे चलते थे। विजित देशों में वे विभिन्न प्रकार के ईसाई मत का प्रचार करते थे। लेकिन बल प्रयोग द्वारा जीते गये देशों में भी ईसाई धर्म का प्रचार बलपूर्वक नहीं किया जाता था। इन देशों के लोग अपना धर्म पालन करने के लिये स्वतंत्र थे।

प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक धर्मावलम्बी एक दूसरे के विरुद्ध भी युद्ध लड़े है और एक दूसरे को लकड़ी के खम्भे से बांधकर आग के हवाले भी किये है। क्या ये सभी आक्रमण और हिंसा बाइबल की शिक्षा के अनुसार किये गये? या क्या यीशु ने अपने अनुयायियों को ऐसा करने के लिये प्रोत्साहित किया था? ईसाई धर्म का आरम्भिक इतिहास

ईसाई धर्म के आरम्भिक काल में भी बहुत रक्तपात हुआ था। यह रक्त ईसाई धर्मावलंबियों का ही था। यीशु के प्रथम अनुयायियों में से बहुतों ने अपने ही रक्त से अपने विश्वास पर छाप लगाया। बाइबल के नये नियम में स्तिफनुस और याकूब के शहीद होने का वर्णन मिलता है। विभिन्न रोमन सम्राटों के शासन काल में समय समय पर सतावट आते रहे और ऐसा तब तक होता रहा जब तक सम्राट कन्स्टेन्टाइन ने ईसाई धर्म को रोम साम्राज्य का राजकीय धर्म नहीं घोषित कर दिया।

ईसाई धर्मावलंबियों द्वारा दूसरों की हत्या की गयी हो, ऐसा कही उल्लेख नहीं किया गया है, आत्म रक्षा में भी नहीं, बल पूर्वक अपने मत का कही भी प्रचार नहीं किया गया था।

आरम्भिक ईसाइयों में सब नहीं तो अधिकांश यीशु के सच्चे अनुयायी थे।

इस्लाम धर्म का इतिहास

मुस्लिम इतिहास अपने आरम्भ से ही रक्त रन्जीत रहा है।

मुहम्मद एक सेनापति थे, जिन्होंने अपने अनुयायियों की युद्ध क्षेत्र में अगुवाई की। अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने अरब प्राय द्वीप के अधिकांश भूभाग पर विजय पा लिया था।

इसके बाद के वर्षों में मध्य पूर्व, उत्तर अफ्रीका, स्पेन, फारस और अन्त में भारत वर्ष और पूर्वी राज्यों पर विजय पा लिया गया। इन देशों में रहने वालो के सामने ये ही विकल्प थे, (१) इस्लाम धर्म स्वीकार करना, (२) द्वितीय श्रेणी के नागरिक बनना और यदि ईसाई या यहूदी है तो जीवन भर जिज्या कर देना, अथवा (३) मृत्यु।

इस्लाम धर्मावलंबियों द्वारा इन विजित देशों में ईसाई धर्म, हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म के अनुयायी और आत्माओं को पूजने वाले या तो पूरी तरह या अधिकांश नष्ट कर दिये गये।

इन विजय अभियानों में करोड़ों लोग मारे गये थे।

Tears of Jihad नामक वेब साइट पर इस्लाम और जिहादियो के द्वारा की गयी हत्याओं में मारे गये लोगों की संख्या निम्न लिखित हैः

Middle East Forum नामक एक दूसरे वेब साइट का दावा है कि १२०० वर्ष की अवधि में भारत वर्ष में इस्लाम धर्मावलंबियों द्वारा ६० करोड़ लोगों की हत्या की गयी।

किसी भी ऐतिहासिक तथ्याङ्क को एक दम सही नहीं कहा जा सकता, और स्वाभाविक रूप से कई मुस्लिम इस पर प्रश्न कर सकते है् फिर भी यदि हम इस संख्या को १० से भाग करे, तो भी यह संख्या (६ करोड़) बहुत बड़ी है।

क्या ये सब हिंसा और आक्रमण कुरान की शिक्षा के अनुसार किये गये थे? क्या मुहम्मद ने अपनी शिक्षा के प्रचार करने के लिये अपने अनुयायियों को ऐसा करने के लिये प्रोत्साहित किया था?

पवित्र शास्त्र

क्या बाइबल और कुरान, दोनों में से कोई भी हिंसा को प्रोत्साहन देता है?

क्या इस्लाम हिंसा या शांति प्रिय धर्म है?

क्या ईसाई हिंसा या शांति प्रिय धर्म है?

ईसाई धर्म समझने के लिये हमें पुराने और नये नियम के बीच का फर्क स्पष्ट रूप से समझना पड़ेगा।

पुराना नियम

लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि पुराने नियम में जाति संहार के निर्देश दिये गये है।

जब यहोशू की अगुवाई में इजराइलियो ने कनान देश में प्रवेश किया, उन्हें यह आदेश दिया गया कि उस देश के बासिन्दो को नष्ट कर देः “फिर जब तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे उस देश में जिसके अधिकारी होने को तू जाने पर है पहुंचाए, और तेरे साम्हने से हित्ती, गिर्गाशी, एमोरी, कनानी, परिज्जी, हिव्वी, और यबूसी नाम, बहुत सी जातियों को अर्थात तुम से बड़ी और सामर्थी सातों जातियों को निकाल दे, और तेरा परमेश्वर यहोवा उन्हें तेरे द्वारा हरा दे, और तू उन पर जय प्राप्त कर ले; तब उन्हें पूरी रीति से नष्ट कर डालना; उन से न वाचा बान्धना, और न उन पर दया करना”।(व्यवस्था १ः१,२)

कुछ वर्षों के बाद शमूएल अगमवक्ता शाऊल राजा को यह सन्देश देने गया, “इसलिये अब तू जा कर अमालेकियों को मार, और जो कुछ उनका है उसे बिना कोमलता किए सत्यानाश कर; क्या पुरूष, क्या स्त्री, क्या बच्चा, क्या दूधपिउवा, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, क्या ऊंट, क्या गदहा, सब को मार डाल” (१शमू १५ः३)

ये निर्देशन एक आधुनिक व्यक्ति के लिये (भिषण) डरावने लगते है, लेकिन एक बात स्पष्ट करना आवश्यक हैः ऐसे विशेष निर्देश इजराइलियो को उनके इतिहास के विशेष समय पर दिये गये थे। इजराइलियो को विशेष जातियों जैसे हित्ती, गिरगासियो, अमोरियो और बाद में अमालेकियो को नष्ट करने के निर्देश दिये गये थे। ये सभी जातियों को नष्ट करने के लिये सर्वदा कायम रहने वाले आदेश नहीं थे। यहूदी और ईसाई दोनों में से किसी ने भी इन आज्ञाओं को अन्य देशों के विरुद्ध युद्ध करने के लिये कभी भी दुरुपयोग नहीं किया है।

पुराने नियम में व्यवस्था के आज्ञाओं का उल्लङ्घन करने पर मृत्यु दण्ड देने का स्पष्ट प्रावधान है, लेकिन सदा न्याय सम्पादन के लिये, कभी भी व्यक्तिगत रूप से ऐसा नहीं किया जा सकता था।

पुराने नियम में उल्लेखित हिंसा के विषय में पूर्ण रूप से विचार करना और उनका औचित्य ढूंढ़ना इस इस लेख की सीमा से बाहर है ।

नया नियम

नये नियम में यीशु ने इन शब्दों के द्वारा हिंसा की सभी संभावनाओं को स्पष्ट रूप से नकार दिया है, “तुम सुन चुके हो, कि कहा गया था; कि अपने पड़ोसी से प्रेम रखना, और अपने बैरी से बैर। परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि अपने बैरियों से प्रेम रखो और अपने सताने वालों के लिये प्रार्थना करो”( मत्ती ५ः ४३-४४)।

इफिसियो की पत्री मे पौलुस के शब्द भी यही दर्शाते है, “परमेश्वर के सारे हथियार बान्ध लो; कि तुम शैतान की युक्तियों के साम्हने खड़े रह सको। क्योंकि हमारा यह मल्लयुद्ध, लोहू और मांस से नहीं, परन्तु प्रधानों से और अधिकारियों से, और इस संसार के अन्धकार के हाकिमों से, और उस दुष्टता की आत्मिक सेनाओं से है जो आकाश में हैं ”(इफि ६ः११-१२)।

पौलुस के अनुसार यीशु के अनुयायियों का युद्ध शारीरिक नहीं वरन आत्मिक है। इस दृष्टिकोण को प्रकट करने वाला यह अकेला वचन (पद) नहीं है, परन्तु पूरे नया नियम का तत्त्व ही यही है।

इसलिये हम ऐसा कह सकते है कि विशुद्ध आत्म रक्षा के अलावा सभी प्रकार की हिंसा नये नियम की शिक्षा के खिलाफ है। ऐसी हिंसा सिर्फ पुराने नियम के पदों को उनके पृष्ठ भूमि से अलग उद्धृत कर ही उचित ठहराया जा सकता है।

बाइबल में क्रूसेड या इनक्वीजिसन जैसी हिंसा के लिये किसी तरह का औचित्य नहीं मिलता, और होलोकास्ट जैसी घटनाओं के लिये तो और भी नहीं। कही भी ऐसा नहीं सुझाया गया है कि सुसमाचार का प्रचार बलपूर्वक किया जाना चाहिये। बाइबल में यह भी कही नहीं सुझाया गया है कि यहूदियों को सताया जाये या जबर्दस्ती ईसाई बनाया जाये। ऐसा कोई भी कदम नये नियम के विपरीत है।

कुरान

कुरान में १०० से अधिक ऐसे पद है जो स्पष्ट रूप से हिंसा को बढ़ावा देते है।

The Religion of Peace नामक वेब साइट पर ऐसे ३० पदों को दर्ज किया गया है और उनके पृष्ठ भूमि और सन्दर्भ पर टिप्पणी की गयी है। मैं यहां उनमें से कुछ को उद्धृत करूंगा।

उपरोक्त सभी पद और ऐसे ही बहुत सारे पद हर मुस्लिम के लिये सदा के लिये स्पष्ट निर्देश है। यह बाइबल के पुराने नियम में उल्लिखित पदों के विपरीत है जो इजराइलियो के लिये विशेष समय और स्थान के लिये विशेष निर्देश है।

मुस्लिम शिक्षक विशेषकर वे जो पश्चिमी श्रोताओं के बीच प्रवचन देते है, यही कहेंगे कि इसलाम शांति पूर्ण धर्म है। ठीक राजनैतिक दृष्टिकोण वाले पश्चिमी राजनीतिज्ञ खुशी से इनके हां में हां मिलायेगे। वे भी यही कहेंगे कि कुरान सिर्फ आत्म रक्षा में की गयी हिंसा को ही सही ठहराता है। कुरान के कुछ पद ऐसा ही कहते है, परन्तु अन्य पदों के साथ साथ ऊपर उद्धृत पद आत्म रक्षा से बहुत आगे तक जाने की इजाजत देते है।

संस्थापक

किसी भी धर्म को समझने के लिये उस धर्म का धर्मशास्त्र महत्त्वपूर्ण होता है, लेकिन उससे भी महत्त्वपूर्ण होते है उनके संस्थापकों के जीवन और चरित्र। शब्दों की तुलना में काम ऊंची आवाज में बोलते है। यीशु और मुहम्मद दोनों ही अपने अनुयायियों के लिये उदाहरण है। ईसाई यीशु के समान और मुस्लिम मुहम्मद के समान होना चाहिये। दो व्यक्ति इनके समान ढूंढ पाना असम्भव है। हम इनके जीवन और चरित्र के विभिन्न पहलुओं की तुलना कर सकते है, लेकिन यहां मैं सिर्फ हिंसा पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखना चाहूंगा। हम बारी बारी से इन दोनों व्यक्तियों पर विचार करेंगे।

यीशु

क्या यीशु के जीवन में हिंसा थी? हां, थी। इस पृथ्वी पर उनके जीवन का अन्त हिंसा से हुआ। हिंसा खून बहाने से लेकर मृत्यु तक ले जाती है। यीशु के साथ ठीक ऐसा ही हुआ था। उनके अपनों ने ही उन्हें धोखा देकर रोमियो के हाथ सौंप दिया और उन्हें क्रूस पर चढ़ाया गया।

उनका अपना जीवन इसके ठीक विपरीत था। यीशु ने अपने मिशन को इन शब्दों में वर्णन किया था, “चोर किसी और काम के लिये नहीं परन्तु केवल चोरी करने और घात करने और नष्ट करने को आता है। मैं इसलिये आया कि वे जीवन पाएं, और बहुतायत से पाएं” (यूहन्ना १०ः१०)।

उन्होंने अक्षरशः इन शब्दों को पूरा किया। अपने ३ वर्षों के अल्प सेवा काल में उन्होंने बड़ी संख्या में रोगियों को चङ्गा किया, बहुत लोगों को उन्होंने दुष्टात्माओं से मुक्त किया, अनगिनत भूखे लोगों को उन्होंने भोजन दिया, कितने मृत लोगों को उन्होंने जीवित भी किया।

उनकी आशा थी कि उनकी मृत्यु और पुनरुत्थान के बाद उनके अनुयायी उनके जैसा या उससे भी बड़े बड़े काम करेंगे। यीशु ने उनसे कहा, “मैं तुम से सच सच कहता हूं, कि जो मुझ पर विश्वास रखता है, ये काम जो मैं करता हूं वह भी करेगा, वरन इन से भी बड़े काम करेगा, क्योंकि मैं पिता के पास जाता हूं।”(यूहन्ना १४ः१२)

उनके अनुयायियों में से बहुतों ने उस दिन से आज तक उनके वचन को पूरा किया है। क्या उन्होंने यीशु की तुलना में बड़े बड़े काम किये है? चिह्न और आश्चर्य कर्म नामक पुस्तिका में मैंने इसका वर्णन किया है।

हिंसा, खून खराबा और मृत्यु, जिनसे ईसाई धर्म और इसलाम का इतिहास भरा पड़ा है, यीशु की शिक्षा, उनके अनुयायियों का जीवन शैली, इनमें किसी बात से भी मेल नही खाते।

मुहम्मद

मुहम्मद का जीवन यीशु के जीवन पूर्णतया विपरीत है। यह हिंसा से भरा था। यहां मैं सिर्फ चार तरह से विचार करूंगा।

काफिला पर आक्रमणः जब मक्का के बासिन्दो ने मुहम्मद की शिक्षाओं को इनकार किया तब मुहम्मद और उनके अनुयायी मक्का छोड़कर भागने को बाध्य हुए थे। वे मदीना चले गये जहां से उन्होंने व्यापारियों के काफिले पर आक्रमण कर अपना खर्च चलाते थे। कभी कभी काफिला संचालक मारे भी जाते थे।

अभियान और युद्धः Expeditions of Muhammad नामक वेब साइट पर १०० अभियान और युद्ध दर्ज है, जो मुहम्मद के निर्देश से हुए थे या जिनमें मुहम्मद ने हिस्सा लिया था। सर्व प्रथम उन्होंने मक्का पर विजय प्राप्त की उसके बाद अपनी मृत्यु से पहले करीब करीब पूरे अरब प्राय द्वीप पर जीत हासिल की।

यहूदियों का नर संहारः मुहम्मद और उनके लोगों ने एक बानू कुरायजा नामक यहूदी समुदाय के चारों ओर २५ दिनों तक घेरा डाला। अन्त में जब इस समुदाय ने आत्म समर्पण किया तब मुहम्मद ने ६०० पुरुषों की हत्या के निर्देश दिये और औरतों और बच्चों को गुलाम बनाकर ले गये।

हत्याः Killings Ordered or Supported by Muhammad' नामक वेब साइट पर ऐसे ४३ व्यक्ति या समूह दर्ज है जिनकी हत्या के लिये मुहम्मद ने निर्देश दिये थे। इनमें से अधिकांश हत्याएं सिर्फ मुहम्मद का अपमान करने या उन पर हंसने के कारण हुई थी। हत्या के दूसरे कारणों में व्यभिचार, स्वधर्म त्याग या यहूदी होना आदि है।

मुस्लिम वेब साइट मुहम्मद के इन हत्याओं को स्वीकार करते है, लेकिन इन्हें विभिन्न कारणों से उचित भी ठहराते है।

यीशु के शब्दों को मैं यहां दुहराना चाहता हूं “चोर किसी और काम के लिये नहीं परन्तु केवल चोरी करने और घात करने और नष्ट करने को आता है। मैं इसलिये आया कि वे जीवन पाएं, और बहुतायत से पाएं।”

यह स्मरण रखे कि मुहम्मद का जीवन हर मुस्लिम के लिये एक उदाहरण है जिसका वे अनुसरण करते है।

निष्कर्ष

अधिकांश व्यक्ति, विशेषकर मुस्लिम ऐसा कहते है कि ईसाई धर्म और इसलाम दोनों में समान रूप से हिंसा व्याप्त है। उनके इस विचार का आधार ईसाई धर्म के इतिहास को मानते है - जैसे, क्रूसेड (धार्मिक अभियान), इनक्वीजिसन (कैथोलिक चर्च द्वारा स्थापित न्यायाधिकरण जो विधर्मी लोगों के विरुद्ध कार्यवाही करती थी), और यूरोपीय देशों के धार्मिक युद्ध, इसके साथ ही पुराने नियम में पाये जाने वाले हिंसा से सम्बन्धित पद। इस प्रकार के तर्क वितर्क में सबसे बड़ी त्रुटि है कि ये सभी हिंसा नये नियम की शिक्षा और यीशु के जीवन अौर शिक्षा के विपरीत है। यीशु ने अपने अनुयायियों को कभी भी अपने शत्रुओं या अविश्वासियों से झगड़ा करने, सताने या हत्या करने के निर्देश नहीं दिये। उनकी साधारण आज्ञा थी, “अपने शत्रुओं से प्रेम करो”

इतिहास में उल्लिखित हिंसा और इसलाम का वर्तमान स्वरूप पूर्ण रूप से कुरान की शिक्षा और मुहम्मद के जीवन के अनुरूप है। उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया के अधिकांश भाग पर मुस्लिम विजय सिर्फ मुहम्मद के जीवन के मकसद को पूरा करना था। बड़ी संख्या में अविश्वासियों का संहार कुरान में दिये गये उनके निर्देश का सिर्फ पालन करना था।

क्या इसलाम शांतिप्रिय धर्म है? हमारे चार गवाह - इसलाम का आधुनिक गतिविधि, इसका इतिहास, इसका पवित्र धर्म शास्त्र और इसके संस्थापक - सभी का एक ही जबाब है। स्पष्ट और ऊंची आवाज में नहीं!

मुहम्मद के नजदीकी अनुयायी, वे बहु संख्यक शान्ति प्रेमी कानून का पालन करने वाले लोग नहीं है जिन्हें हम अपने देश में हरेक दिन देखते है। बल्कि वे तो इस्लामिक स्टेट में पाये जाते है (थे)।

क्या ईसाई शान्तिप्रिय धर्म है? इसके इतिहास के कुछ अंश, खास कर क्रूसेड और इनक्वीजिसन, भीषण हिंसा से भरे है, लेकिन ये नये नियम की शिक्षा और इसके संस्थापक यीशु के जीवन के नितान्त विपरीत है।

मैं फिर मेरी आरम्भिक बातों को दुहराना चाहता हूं:

यह बड़े आनन्द की बात है कि बहुत कम लोग जो अपने आप को विगत १४०० वर्षों से मुस्लिम कहते आ रहे है, मुहम्मद के सच्चे अनुयायी है, नहीं तो आज संसार की अवस्था कुछ और ही होती, सभी गैर मुस्लिम आज या तो द्वितीय श्रेणी के नागरिक होते या मार दिये गये होते, हरेक व्यक्ति जो कुरान या मुहम्मद की आलोचना करता उसे मृत्यु दण्ड मिलता, औरतें निरक्षर होती और शिर से पाव तक कपड़े में लिपटी रहती और पुरुषों की लालसा पूरी करने के लिये जीती, सभी सम लिङ्गी मारे जाते।

बड़े दुख की बात है कि विगत २००० वर्षों से जो अपने आप को ईसाई कहते आ रहे है, उनमें से बहुत कम लोग यीशु के सच्चे अनुयायी है, नहीं तो आज संसार की अवस्था कुछ और ही होती - यह पृथ्वी पर स्वर्ग होता, युद्ध होते ही नहीं, सेना रहते भी तो कम संख्या में, प्रहरी को ट्राफिक व्यवस्था तक ही सीमित रहना पड़ता, बहुत कम चिकित्सक और नर्सों की आवश्यकता होती, अकाल पड़ते ही नहीं, परमेश्वर का राज्य संसार में आ गया होता।

अधिक जानकारी के लिये देखेंः

बाइबल
कुरान
इन्टरनेट
बहुत से, शायद सैकड़ों वेब साइट है जो इन दोनों धर्मों की तुलना करते है। अधिकांश वेब साइट, ईसाई और इसलाम दोनों, इन तथ्यों से सहमत है जो मैंने यहां उद्धृत किया है। लेकिन उनके द्वारा निकाले गये निष्कर्ष बिलकुल ही अलग है।

अनुवादक - डा. पीटर कमलेश्वर सिंह

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