विश्वव्यापी मिलाप

“क्योंकि पिता की प्रसन्नता इसी में है कि उस में सारी परिपूर्णता वास करे। और उसके क्रूस पर बहे हुए लहू के द्वारा मेल मिलाप कर के, सब वस्तुओं का उसी के द्वारा से अपने साथ मेल कर ले चाहे वे पृथ्वी पर की हों, चाहे स्वर्ग में की” (कलस्सी १: १९, २०) ।

परिचय

जब हम विश्वासियों के अन्तिम भविष्य के विषय में धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं, तो हमें अवश्यम्भावी विरोधाभास का सामना करना पड़ता है।

कुछ पद कहते हैं कि सम्पूर्ण मानव जाति का उद्धार होगा। नीचे दिए गए पदों पर गौर करें:

“और जैसे आदम में सब मरते हैं, वैसा ही मसीह में सब जिलाए जाएंगे। परन्तु हर एक अपनी अपनी बारी से; पहिला फल मसीह; फिर मसीह के आने पर उसके लोग। इस के बाद अन्त होगा; उस समय वह सारी प्रधानता और सारा अधिकार और सामर्थ का अन्त कर के राज्य को परमेश्वर पिता के हाथ में सौंप देगा” (१ कोरिन्थी १५: २२-२४)।

“क्योंकि हम परिश्रम और यत्न इसी लिये करते हैं, कि हमारी आशा उस जीवते परमेश्वर पर है; जो सब मनुष्यों का, और निज कर के विश्वासियों का उद्धारकर्ता है” (१ तिमोथी ४:१०)।

“क्योंकि पिता की प्रसन्नता इसी में है कि उस में सारी परिपूर्णता वास करे। और उसके क्रूस पर बहे हुए लोहू के द्वारा मेल मिलाप कर के, सब वस्तुओं का उसी के द्वारा से अपने साथ मेल कर ले चाहे वे पृथ्वी पर की हों, चाहे स्वर्ग में की” (कलस्सी १: १९,२०)।

दूसरे पद यह शिक्षा देते हैं कि अविश्वासियों को अनन्त काल तक दण्ड मिलेगा:

“तो वह परमेश्वर का प्रकोप की निरी मदिरा जो उसके क्रोध के कटोरे में डाली गई है, पीएगा और पवित्र स्वर्गदूतों के साम्हने, और मेम्ने के साम्हने आग और गन्धक की पीड़ा में पड़ेगा। और उन की पीड़ा का धुआं युगानुयुग उठता रहेगा, और जो उस पशु और उस की मूरत की पूजा करते हैं, और जो उसके नाम की छाप लेते हैं, उन को रात दिन चैन न मिलेगा” (प्रकाशित वाक्य १४:१०,११)।

“ये समुद्र के प्रचण्ड हिलकोरे हैं, जो अपनी लज्ज़ा का फेन उछालते हैं: ये डांवाडोल तारे हैं, जिन के लिये सदा काल तक घोर अन्धकार रखा गया है” (यहूदा १३)।

“और यह अनन्त दण्ड भोगेंगे परन्तु धर्मी अनन्त जीवन में प्रवेश करेंगे” (मत्ती २५:४६)।

हम धर्मशास्त्र के इन विरोधाभासों को कैसे मिलाप में ला सकते हैं? दोनों प्रकार की शिक्षा कैसे सही हो सकते हैं?

विश्वव्यापी उद्धार

हम पहले उन पदों पर विचार करेंगे जो हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि अन्त में सभी का उद्धार होगा। अकेले कोई भी पद इस विचार के लिये पर्याप्त नहीं है पर जब सभी पदों को एक साथ रखकर देखा जाय तो एक मजबूत साक्ष्य बनता है।

प्रकाशित वाक्य ५:१३ कहता है, “फिर मैं ने स्वर्ग में, और पृथ्वी पर, और पृथ्वी के नीचे, और समुद्र की सब सृजी हुई वस्तुओं को, और सब कुछ को जो उन में हैं, यह कहते सुना, ‘कि जो सिंहासन पर बैठा है, उसका, और मेम्ने का धन्यवाद, और आदर, और महिमा, और राज्य, युगानुयुग रहे’”सब सृजी हुई वस्तुएं परमेश्वर की स्तुति कर रहे थे। ऐसा होना असम्भव था क्योंकि मानव जाति के ९० प्रतिशत लोग सदा के लिये अति पीड़ा में कष्ट भोग रहे थे।

१ कोरिन्थी १५:२२ -२४ निश्चित शब्दों में विश्वव्यापी मुक्ति की बात करता हैः “और जैसे आदम में सब मरते हैं, वैसा ही मसीह में सब जिलाये जाएंगे। परन्तु हर एक अपनी अपनी बारी से; पहिला फल मसीह; फिर मसीह के आने पर उसके लोग। इस के बाद अन्त होगा; उस समय वह सारी प्रधानता और सारा अधिकार और सामर्थ का अन्त कर के राज्य को परमेश्वर पिता के हाथ में सौंप देगा”। रूढ़िवादी लोग इसे इस प्रकार अनुवाद करते हैं, “जितने लोग मसीह में हैं वे लोग जीवित किए जायेंगे।” लेकिन पुस्तक ऐसा नहीं कहती। पौलुस यहां सीधे शब्दों में यही कहता है कि आदम में सब मरते हैं, लेकिन मसीह में सब जिलाये जायेंगे, यद्यपि सभी एक ही समय में नहीं या सब इसी युग में नहीं। सबों के लिये उद्धार इसी जीवन में मिलने को नहीं है, लेकिन क्रमिक रूप में विभिन्न युग और अवस्था में।

१ पतरस ३:१९- २० में हमें इस विषय पर और जानकारी मिलती है। हम पढ़ते है, “उसी में उसने जा कर कैदी आत्माओं को भी प्रचार किया। जिन्होंने उस बीते समय में आज्ञा न मानी जब परमेश्वर नूह के दिनों में धीरज धर कर ठहरा रहा, और वह जहाज बन रहा था, जिस में बैठकर थोड़े लोग अर्थात आठ प्राणी पानी के द्वारा बच गए।” इन कठिन पदों के अर्थ आगे ४ अध्याय के ६ पद में स्पष्ट किये गये हैं: “क्योंकि मरे हुओं को भी सुसमाचार इसी लिये सुनाया गया, कि शरीर में तो मनुष्यों के अनुसार उन का न्याय हो, पर आत्मा में वे परमेश्वर के अनुसार जीवित रहें।” पतरस यहां पुराने जमाने के धर्मी संतों की बात नहीं कर रहा, वह तो जल प्रलय आने के पहले के लोगों के विषय में कह रहा है, जिनके विषय मे परमेश्वर ने कहा था, (उत्पत्ति ६:५)। हम ऐसे लोगों को भी अन्त में आत्मा में जीवित होते हुए देखते हैं ।

कलस्सी के पहले अध्याय के १६, १९ और २० पद बहुत महत्त्व पूर्ण हैं । “क्योंकि उसी में सारी वस्तुओं की सृष्टि हुई, स्वर्ग की हो अथवा पृथ्वी की, देखी या अनदेखी, क्या सिंहासन, क्या प्रभुतांए, क्या प्रधानताएं, क्या अधिकार, सारी वस्तुएं उसी के द्वारा और उसी के लिये सृजी गई हैं”। ये सभी पद स्पष्ट बताते हैं कि परमेश्वर ने सारी चीजें यीशु के द्वारा सृजीं और यीशु के द्वारा ही सारी चीजों का अपने साथ मिलाप किया। ये पद तो ये भी स्पष्ट करते हैं कि जो आत्माएं अभी दुष्ट हैं, अन्त में वे भी परमेश्वर के साथ मिलाप में आयेंगी।

एक और पद जो सभी के उद्धार के मुद्दे को स्थापित करता हैः १ तिमोथी ४:१० कहता है, “क्योंकि हम परिश्रम और यत्न इसी लिये करते हैं, कि हमारी आशा उस जीवते परमेश्वर पर है; जो सब मनुष्यों का, और निज कर के विश्वासियों का उद्धारकर्ता है।” यह पद यह स्पष्ट करता है कि परमेश्वर सब का उद्धार करते हैं, लेकिन विश्वासियों का उद्धार विशेष रीति से करते हैं । जैसा मैं समझता हूं, विश्वासियों के लिये पाप से, रोगों से और इस जीवन के दुष्टताओं से मुक्ति मिलता है, साथ ही आने वाले न्याय से भी मुक्ति मिलता है। अविश्वासियों के लिये मुक्ति इन सबसे बहुत बाद में उपलब्ध है।

एक और पद भी विचार करने योग्य हैः “क्योंकि उस की ओर से, और उसी के द्वारा, और उसी के लिये सब कुछ है” (रोमी ११:३६)। क्या हम इसके साथ इन बातों को जोड़ दें, “मानव जाति के ९० या ९९ प्रतिशत को छोड़ कर, जो उसकी सृष्टि के शिरोमणि हैं, जिन्हें उसने सारे संसार पर राज्य करने के लिये अपने स्वरूप में बनाया, जिनका अन्त सदा के लिये नर्क का कष्ट है” ?

अनन्त दण्ड

अब हम अनन्त दण्ड के विषय में बाइबल की शिक्षा पर विचार करेंगे। बाइबल अनन्त अग्नि, अनन्त दण्ड, अनन्त नाश और अनन्त न्याय के विषय में सिखाती है। धर्मशास्त्र पवित्र आत्मा के प्रेरणा से लिखा गया है, इस बात पर विश्वास करने वाले हरेक व्यक्ति को इन बातों को गम्भीरता से लेना आवश्यक है। फिर भी प्रेम करने वाले परमेश्वर पर विश्वास और अनुभव करने वाले किसी भी व्यक्ति को यह बात अच्छी नहीं लग सकती कि मानव जाति के करोड़ों लोग ऐसे कष्ट में पड़ने वाले हैं जिसका कोई अन्त नहीं है। क्या बाइबल निश्चित रूप से ऐसा कहती है कि ऐसा ही होगा?

आइओण और आईओणिओस

बाइबल में अनन्त दण्ड की शिक्षा यूनानी भाषा का शब्द आईओणिओस (αιωνιος) के अर्थ पर आधारित है।

इस शब्द का अनुवाद हिन्दी बाइबल में “अनन्त” किया गया है। यह शब्द आईओणिओस, आइओण (αιων) नामक यूनानी शब्द से आया हुआ विशेषण है। हिन्दी भाषा में आइओण का अर्थ युग होता है।

इस शब्द आईओणिओस का हिन्दी भाषा में क्या ठीक अनुवाद हुआ है? क्या इसका अर्थ अनन्त है? या फिर, इसका अर्थ ‘युग तक’ भी हो सकता है? यदि आइओण का अर्थ ‘युग’ होता है तो आईओणिओस का अर्थ भी ‘युग तक’ होना चाहिए। मासिक का अर्थ महीने में एक बार, वार्षिक का अर्थ वर्ष में एक बार होता है। इसीलिए आईओणिओस का अर्थ भी अनन्त न होकर ‘युग तक’ होना चाहिए।

किसी भी प्राचीन यूनानी या हिब्रू शब्द का ठीक ठीक अर्थ निश्चित रूप से कोई कैसे जान सकता है, जबकि इन भाषाओं को बोलने वाले लोग बहुत पहले इस संसार से कूच कर गये हैं? इसका उत्तर यही है कि बाइबल के सभी भागो में, या उस समय के उपलब्ध अन्य साहित्य में, जहां इन शब्दों का उपयोग हुआ है, हमें देखना आवश्यक है। उसके बाद हमें इनके अर्थ पता लगाना है जो सभी जगह ठीक बैठते हैं । यूनानी भाषा के लिये हम दोनों, नये नियम और सेप्टुजिन्ट (पुराने नियम का यूनानी अनुवाद) में ढूंढ़ सकते हैं ।

आईओणिओस शब्द विशेषण के रूप में मूल यूनानी बाइबल में ७० बार उपयोग हुआ है, जिसमें ४२ बार आईओणिओस जीवन भी उलेख किया गया है। हिन्दी बाइबल में इसे ‘अनन्त जीवन’ उलेख किया गया है। बाकी २८ बार आईओणिओस विभीन्न नामों के साथ आता है जैसे, अग्नि, दण्ड, पाप, परमेश्वर, आत्मा, महिमा, मुक्ति, सुसमाचार ईत्यादि। इनका हिन्दी अनुवाद अनन्त अग्नि, अनन्त दण्ड, अनन्त पाप, अनन्त परमेश्वर, अनन्त आत्मा आदि किये गये हैं।

नये नियम के निम्नलिखित तीन वाक्यांश यह दिखाते हैं कि आईओणिओस का अनुवाद हमेशा 'अनन्त' नहीं किया जा सकता।

“उस भेद के प्रकाश के अनुसार जो सनातन से छिपा रहा” (रोमी १६:२५)। इसका अर्थ अक्षरशः अनुवाद करने पर ‘आईओणिओस’ समय तक छिपा रहा होता है। इस पद में आईओणिओस का अर्थ सनातन नहीं होकर युग-युग तक होना चाहिए।

२ तिमोथी १:९ में हम “आईओणिओस समय से पहले से” लिखा हुआ पाते हैं। हिन्दी बाइबल में इसका अनुवाद ‘सनातन से’ किया गया है। तीतुस १:२ में हम फिर ‘आईओणिओस समय से पहले से’ लिखा हुआ पाते हैं। हिन्दी बाइबल में इसका अनुवाद भी ‘सनातन से’ किया गया है। NIV बाइबल में इसका अनुवाद “Before the beginning of time” किया गया है।

नये नियम के उपरोक्त तीनों वाक्यांश देखकर यही लगता है कि आईओणिओस का अनुवाद अनन्त या सनातन न होकर ‘युग तक’ ही होना चाहिए।

मत्ती २५:४६ पद विचार करें: “और यह अनन्त दण्ड भोगेंगे परन्तु धर्मी अनन्त जीवन में प्रवेश करेंगे”। दण्ड अनन्त नहीं है, युग तक ही है तो जीवन भी अनन्त नहीं पर युग तक ही सीमित है जैसा लगता है। मेरे विचार में दण्ड युग तक ही है पर जीवन युग तक भी है और अनन्त भी है।

यूहन्ना १७:३ में यीशु ने कहा, “और अनन्त जीवन यह है, कि वे तुझ अद्वैत सच्चे परमेश्वर को और यीशु मसीह को, जिसे तू ने भेजा है, जानें”। अनन्त जीवन मृत्यु के बाद मिलने वाली चीज नहीं है वरन् अभी मिलने वाली चीज है। हमें अनन्त जीवन मिला है, स्वयं इस बात का निश्चय होना आवश्यक है।

सदा सर्वदा

हिन्दी बाइबल में सनातन शब्द बार बार उपयोग हुआ है। यूनानी भाषा में यह “आइओण तक” या “आइओणों के आइओण तक” है। अंग्रेजी बाइबल में यह “for ever” अथवा “for ever and ever” के रूप में अनुवाद हुआ है। आईओण का सही अर्थ तो युग है। इसीलिए सनातन के बदले युग तक या युगानुयुग तक अनुवाद करना अच्छा होता।

प्रकाशित वाक्य १४:११ फिर देखें, “और उन की पीड़ा का धुआं युगानुयुग उठता रहेगा” । यही बात प्रकाशित वाक्य १९:३ में भी आती है, “और उसके जलने का धुआं युगानुयुग उठता रहेगा”। यह प्राचीन नगर बेबिलोन के जलने की बात है, जो आज के इराक देश में था। इसका भग्नावशेष आज भी है, लेकिन धुवाँ वहां पर नहीं है। ऐसे देखने पर ‘उसके जलने का धुवाँ’ लम्बे समय तक रह सकता है पर सदा सर्वदा तक नहीं।

धनी व्यक्ति और लाजर

लुका के १६ अध्याय में धनी व्यक्ति और लाजर के विषय में उल्लेखित उस विख्यात कथा का क्या और उस बड़े गड़हे का क्या जो उनकी मृत्यु के बाद उनके बीच स्थापित किया गया था? अधिकांश व्यक्ति इसको विस्तार से नहीं देखते और यह मान लेते हैं कि यीशु व्यक्तिगत उद्धार और मृत्यु के बाद की अवस्था के विषय में बात कर रहे थे। आइये हम जरा करीब से इस घटना को देखें।

इस भाग का पृष्ठभूमि कुछ पद पहले ही बन गया है, “फरीसी जो लोभी थे, ये सब बातें सुन कर उसे ठट्ठों में उड़ाने लगे”। यीशु उस समय के आत्मिक रूप से सौभाग्यशाली लोगों से बात कर रहे थे। धनी व्यक्ति जो बैगनी वस्त्र लगाता था और विलासी जीवन जीता था, उन्हीं लोगों को प्रतिबिंबित करता था। उसके दरवाजे पर पड़ा गरीब लाजर, जो चिथड़े पहनता था और उसके घाव कुत्ते चाटते थे, आत्मिक रूप से बाहर वालों को दर्शाता था। कुत्ते अशुद्ध जानवर हैं ।

इन दोनों की मृत्यु होती है, और लाजर को हम स्वर्ग में, पर इब्राहिम की गोद में पाते हैं । कैसे एक गैर यहूदी अनपढ़ लाजर इब्राहिम की गोद में पहुंच सकता है, जबकि इब्राहिम का वंशज वेदना में था? धनी व्यक्ति बार बार इब्राहिम को पिता कहकर बुलाता रहा, पर इब्राहिम ने कभी भी उसे “मेरे पुत्र” कहकर सम्बोधन नहीं किया। यह कथा चौंकाने वाला और अपने खास सुनने वालों के लिये आक्रामक था।

अब हम उस गड़हे के विषय में विचार करें। २६ पद यूनानी भाषा में इस प्रकार है, “और इन सब चीजों में बहुत बड़ा गड़हा स्थापित किया गया है” न कि “इन सब चीजों के अलावा” (जैसा कि अधिकांश अनुवादों में मिलता है), जो कि ठीक शब्दों के करीब करीब विपरीत है। गड़हा दोनों व्यक्तियों के अन्तर के बीच रखा गया है। उन दोनों के बीच आत्मिक गड़हा था। कभी कभी आप ऐसे लोगों के बीच शिक्षा देते हैं जिन्हें धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञान है, और उन्हें सभी आत्मिक मौका मिले हैं, फिर भी वे आत्मिक बातें ग्रहण करने और समझ पाने में असमर्थ रहते हैं । आपकी कोई भी बात उन तक नहीं पहुंच पाती, न उनकी आप तक। आप दोनों के बीच बहुत बड़ा गड़हा पड़ा है।

यहूदियों और गैर यहूदियों के बीच विगत २००० वर्षों से एक बहुत बड़ा गड़हा पड़ा है। मण्डली ने बड़ी क्रूरता से यहूदियों को यातना दी है, और यहूदियों ने, जिसे वे ईसाई धर्म समझते हैं, घृणा करते रहे हैं । इस गड़हे को पार कर कुछ भी एक दूसरे के पास नहीं पहुंच पाया है। धनी व्यक्ति की ही तरह यहूदी लोग भी इस समय का अधिकांश भाग वेदना में बिताये हैं ।

इस गड़हे का प्रकृति जो भी हो, यह तथ्य कि यह उस समय स्थापित किया गया था, इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यह सदा के लिये उसी तरह रहेगा। यदि परमेश्वर पर्वतों को हटा सकते हैं तो गड़हो को भी भर सकते हैं ।

बहुत से यहूदी लोग, इजराइल देश के और दूसरे देशों में बिखरे हुए, दोनों, इब्राहिम के सच्चे गोद में लौट रहे हैं, और अपने मसीह पर विश्वास कर रहे हैं । बहुत से मंडलियों के सदस्य अपने आप को इब्राहिम की सन्तान समझने के बावजूद परमेश्वर और अपने आप के बीच बहुत बड़ गड़हा बनाये हुए हैं ।

पूर्व – अस्तित्व

बाइबल में इस बात के स्पष्ट प्रमाण है कि शरीर धारण करने से पहले परमेश्वर के साथ हमारा आत्मिक रूप में अस्तित्व था। उपदेशक की पुस्तक इस विषय पर एक स्पष्ट घोषणा करती है, “जब मिट्टी ज्यों की त्यों मिट्टी में मिल जाएगी, और आत्मा परमेश्वर के पास जिसने उसे दिया लौट जाएगी” (उपदेशक १२:७)। “लौट जाना” शब्द का अर्थ सिर्फ यही हो सकता है कि आप जहां से आये हैं फिर वही चले जाते हैं । यदि इस संसार में प्रवेश करने से पहले परमेश्वर के साथ आत्मा के रूप में हमारा अस्तित्व था, तो इस संसार को छोड़ने के बाद अनन्त कष्ट और परमेश्वर से अलगाव की बात मूर्खता पूर्ण है। एक प्रेमी और बुद्धिमान परमेश्वर कैसे आत्माओं को इस संसार में भेज सकते हैं, जिनकी उनके पास लौटने की सम्भावना ही नहीं है, लेकिन इसके बदले वे अनन्त काल तक अवर्णनीय वेदना और कष्ट में व्यतीत करते हैं?

इस विषय पर मैंने Pre-Existence शिर्षक के दूसरे लेख में विस्तृत चर्चा की है।

मंडलियों की पुरातन शिक्षा

क्या मंडलियों ने सदा से अनन्त न्याय की शिक्षा नहीं दी है? क्या करीब करीब सभी विश्वासी इस विषय पर एक मत नहीं हैं? इसका उत्तर है “ना”। कुछ आरम्भिक मंडलियों के गुरुजन विश्व व्यापी उद्धार पर विश्वास करते थे। इनमें से “ओरिगन” एक ख्याति प्राप्त नाम है।

पिछले ४०० वर्षों से बाइबल के करीब करीब सभी अनुवाद अनन्त दण्ड के उसी पुरातन दृष्टिकोण को मानते आये हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसका उस लोकप्रिय विश्वास पर शक्तिशाली प्रभाव था। फिर भी ऐसे लोग हुए हैं जो इससे असहमत थे।

मण्डली हमेशा ठीक ही कहती है, कोई जरूरी नहीं। अपने को ईसाई कहने वाले अधिकांश लोग यह विश्वास करते हैं कि पोप मण्डली के शिर हैं, और इससे जुड़ी सभी बातों पर भी। मण्डली के इतिहास में कभी कभी ऐसे समय भी आये हैं जब ऊपर से नीचे तक सारे पदाधिकारी शिक्षा और व्यक्तिगत जीवन, दोनों में पूर्ण रूप से भ्रष्ट रहे हैं । अधिकांश लोग भूल में हैं ऐसा जानकर हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमे स्वयम् परमेश्वर को ढूढ़ना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो अकेले उनके पीछे चलना चाहिए।

प्रमुख मंडलियां अनन्त न्याय की शिक्षा देने में अभिरुचि रखती हैं । प्रेम, आनन्द और क्षमा जो मसीह में मुफ्त में मिलते हैं, इनके द्वारा लोगों को आकर्षित करने में असमर्थ होने पर ये भविष्य के वेदना का भय दिखाकर अपने सदस्यों पर अपना पकड़ बनाये रखना चाहते हैं । अनन्त न्याय इनकी नीति रही है। वे सभी वचन जो इस विचार के विरोध में हैं, उनका प्रायः उल्लेख नहीं किया जाता, या उन्हें तोड़ मरोड़ कर शिक्षा दी जाती है ताकि उनका कुछ और ही अर्थ लगे। हम इस झूठ के इतने आदि हो चुके हैं कि सत्यता को स्वीकार करना कठिन लगता है।

भविष्य का दण्ड

निस्संदेह नया नियम यीशु मसीह को इनकार करने वालों के लिये दण्ड की शिक्षा देती है। यीशु और प्रेरितों ने इस विषय को एक निश्चयता के रूप में शिक्षा दी। परमेश्वर पश्चाताप नहीं करने वाले पापियों को स्वीकार नहीं कर सकते। ऐसा करने पर वे धर्मी और पवित्र परमेश्वर नहीं ठहरते। हम इस बात पर विचार करेंगे कि यीशु पर विश्वास नहीं करने वालों का भविष्य कैसा होगा।

मत्ती १८:८,९ में यीशु “आईओणिओस अग्नि” और “अग्नि का गेहेना” के विषय में बात करते हैं । प्रकाशित वाक्य में उल्लेखित अग्निकुण्ड में हम ऐसा ही चित्रण देखते हैं । अग्नि जलाकर नष्ट करता है पर यह सभी चीजें नष्ट नहीं करता। कुरिन्थियों को पौलुस ने कहा (१ कोरिन्थी ३:१२-१५), सोने, चांदी और बहुमूल्य पत्थरों से या काठ, घास या भूसा से निर्माण करना सम्भव है। अग्नि से सभी मनुष्यों के काम का जांच होगा। स्पष्ट है कि काठ, घास या भूसा नष्ट हो जायेंगे, सोना, चांदी और बहुमूल्य पत्थर नहीं होंगे। शरीर और आत्मा के बीच बहुत बड़ा अन्तर है। शरीर से जन्मा शरीर है, जो आत्मा से जन्मा है वह आत्मा है। शरीर सस्ता और क्षणिक है, आत्मा बहुमूल्य और स्थायी है। ५:५ में पौलुस किसी व्यक्ति को शैतान को सौंपने की बात करता है, ताकि उसका शरीर नष्ट हो जाय और उसकी आत्मा प्रभु यीशु के दिन उद्धार पाये। यह बात १ पतरुस ४:६ से मिलती जुलती है, “․․․ शरीर में तो मनुष्यों के अनुसार उन का न्याय हो, पर आत्मा में वे परमेश्वर के अनुसार जीवित रहें।”

अग्नि से बहुत चीजें शुद्ध की जाती हैं । सिनाई पर्वत पर व्यवस्था दिये जाते समय यह वहां थी। सम्पूर्ण धर्मशास्त्र में यह परमेश्वर की उपस्थिति को दर्शाती है। “हमारे परमेश्वर भस्म करने वाले आग हैं” (इब्रानियो १२:२९)। यह विशेषकर पवित्र आत्मा के पवित्रीकरण को दिखाता है। गन्धक जो अग्नि के साथ रहता है, यह भी शुद्धिकरण का काम करता है, पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था। यूनानी भाषा में इसका नाम थियोन है, थियोस विशेषण का एक वचन, जिसका अर्थ होता है “स्वर्गीय”। निस्सन्देह यह परमेश्वर से सम्बन्धित है।

मत्ती २५:४६ में यीशु आईओणिओस दण्ड के विषय में बात करते हैं । दण्ड के लिये यूनानी भाषा में दो शब्द हैं । कोलासिस, जिसका यहां उपयोग हुआ है, निश्चित रूप से सुधार करने के अर्थ में उपयोग होता है, और ऐसे मूल शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है छांटना। हम पेड़ों को और अधिक फल देने के लिये छांटते हैं, क्रोध से भरकर दण्ड देने के लिये नहीं।

१ थिस्सलुनिकियो १:९ में, बाइबल के अधिकांश अनुवादों के अनुसार हम प्रभु की उपस्थिति से “आईओणिओस नष्ट होना” पाते हैं । मेरे विचार में इसका अनुवाद “खो जाना” होना चाहिये न कि नष्ट होना। यीशु खोये हुओं को ढूंढ़ने और उन्हें बचाने आये थे। ऐसे लोग जो पश्चाताप और विश्वास नहीं करते, उनके लिये पिता की उपस्थिति से दूर खो जाना तब तक रहेगा जब तक वे उड़ाऊ पुत्र की तरह अन्त में पिता के पास लौट नहीं जाते।

हमें फिर प्रकाशित वाक्य १४:१०,११ देखना आवश्यक है: “तो वह परमेश्वर का प्रकोप की निरी मदिरा जो उसके क्रोध के कटोरे में डाली गई है, पीएगा और पवित्र स्वर्गदूतों के साम्हने, और मेम्ने के साम्हने आग और गन्धक की पीड़ा में पड़ेगा। और उन की पीड़ा का धुआं युगानुयुग उठता रहेगा, और जो उस पशु और उस की मूरत की पूजा करते हैं, और जो उसके नाम की छाप लेते हैं, उन को रात दिन चैन न मिलेगा।” क्या कोई कल्पना कर सकता है कि यीशु मानव जाति के असंख्य लोगों की लगातार, कभी अन्त नहीं होने वाली पीड़ा की रेख देख कर रहे हैं? कितना भी कठोर हृदय वाला पिड़क ऐसा कभी नहीं कर सकता। लेकिन यीशु स्वेच्छा से ऐसे लोगों का रेख देख कर सकते हैं जिन्हें शुद्धिकरण और पवित्रीकरण की आवश्यकता है। यह एक ऐसे व्यक्ति, जिसने अति कष्ट सहते हुए अपना जीवन सबों के उद्धार के लिये अर्पण कर दिया हो, उसके चरित्र के लिये उचित लगता है।

अन्त में हम “आईओणिओस न्याय” वाक्यान्श का अर्थ इब्रानियो ६:२ में देखेंगे। यह आरम्भिक, नींव डालने वाली शिक्षा कही जाती है। न्याय का असली अर्थ “अलग होना” है। यहां फिर, शरीर आत्मा से अलग होना आवश्यक है। यह एक प्रक्रिया है जिसे हम इस जीवन में अनुभव करते हैं । यदि हम चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारा न्याय न करें तो हमें खुद का न्याय करना चाहिये और हमें शरीर के कामों को मार देना चाहिये कि हम आत्मा में जियें। यदि हम न्याय के लिये अभी तैयार नहीं हैं तो यह भविष्य में आयेगा ही।

हमारे अध्ययन से जो तस्वीर उभर कर आती है वह यही है कि नर्क अनियंत्रित, अन्तहीन कष्ट की जगह नहीं है। बल्कि यह न्याय की ऐसी जगह है जहां सुधार की जाती है। हम एक ऐसे प्रेमी सृष्टिकर्ता को देखते हैं जिन्हें तब तक संतुष्टि नहीं मिलती जब तक उनकी सृष्टि पूरी तरह पाप से मुक्त नहीं हो जाती। उनकी सिद्धता के लिये वे असीमित वेदना सहते हैं । उनका उद्देश्य पूर्ण होने में हो सकता है लम्बा समय लगे, लेकिन आन्त में वे सम्पूर्ण रीति से पूरे होंगे।

सुन्दर सिंह की साक्षी

यहां मेरा विश्वास है कि एक भारतीय साधु सुन्दर सिंह की साक्षी समावेश करना लाभदायक होगा। दिसम्बर १९०४ में यीशु सुन्दर के सामने प्रकट हुए जब सुन्दर आत्म हत्या करने जा रहे थे, और उसी समय उनका हृदय परिवर्तन हो गया। इसके बाद उनके जीवन में बहुत सारे अलौकिक अनुभव हुए, जिसमें वे स्वर्ग दूतों और आत्माओं से बातचीत करते थे। नर्क के विषय में उन्होंने सुन्दर को क्या बताया नीचे उद्धृत किया गया है।

“मुझे यह भी कहा गया कि परमेश्वर का प्रेम नर्क में भी काम करता है। परमेश्वर अपना पूरा प्रकाश नहीं चमकाते हैं, क्योंकि वहां रहने वाले इसे सह नहीं सकते, लेकिन वे धीरे धीरे और अधिक प्रकाश देते हैं और धीरे धीरे उनके विवेक को अच्छी अवस्था की ओर आगे बढ़ाते हैं, यद्यपि वे सोचते हैं कि सब कुछ उनकी इच्छा से हो रहा है। इस प्रकार परमेश्वर उनके मन के अन्दर से काम करते हैं, कुछ उसी तरह लेकिन विपरीत दिशा में, जिस प्रकार यहां शैतान हमें परीक्षा के लिये सुझाव देता है। इस प्रकार मन के अन्दर परमेश्वर का काम और बाहर उनकी ज्योति के कारण नर्क में पड़े हुए सभी लोग अन्त में मसीह के चरणों में लाये जायेंगे। हो सकता है इस काम में युगों लग जाये, लेकिन जब यह काम पूरा होगा, वे लोग परमेश्वर के प्रति धन्यवादी और आनन्द से भरपूर होंगे यद्यपि वे लोग इस पृथ्वी पर यीशु को स्वीकार करने वालों की तुलना में कम ही आनन्दित होंगे। इस प्रकार नर्क भी एक तालीम केन्द्र है, एक ऐसा स्थान जहां घर जाने के लिये लोग तैयार किये जाते हैं । नर्क में रहने वाले यह जानते हैं कि यह उनका घर नहीं है, क्योंकि वहां उन्हें कष्ट में रहना पड़ता है। नर्क में रहने के लिये मानव जाति की सृष्टि नहीं हुई थी, इस लिये इस स्थान पर वे आनन्दित नहीं हो पाते, और जब वहां पहुंचते हैं तो स्वर्ग में भागना चाहते हैं । वे ऐसा करते भी हैं, लेकिन वहां पहुंचने पर उसे और अधिक असुविधाजनक पाते हैं, इसलिये नर्क में लौट जाते हैं । लेकिन इससे वे एक बात समझ जाते हैं कि उनके जीवन में कोई कमी रह गयी है, और इस प्रकार उन्हें धीरे धीरे पश्चाताप करने में अगुवाई की जाती है। कम से कम बहुसंख्यक लोगों की अवस्था तो ऐसी ही है, लेकिन वहां कुछ ऐसे लोग हैं, जैसे शैतान, जिनके विषय में मुझे कहा गया था, “इनके विषय में मत पूछना, इसलिये मैंने कुछ पूछना ठीक नहीं समझा, लेकिन मुझे लगता था कि उनके लिये भी कुछ आशा होगी।

“उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि नर्क में प्राण के उद्धार के काम में सन्त लोग भी सहायता करते हैं, क्योंकि स्वर्ग में कोई निकम्मापन नहीं है। जो नर्क में हैं, अन्त में उन्हें स्वर्ग में लाया जाएगा, उड़ाउ पुत्र के तरह, लेकिन कुछ लोगो के अन्त के विषय में तुम कभी मत पूछना।” साधु ऐसा सोचते है कि ये थोड़े लोग अन्त में नष्ट हो जायेंगे।

एक बार मैंने कहा, “इतनी बड़ी संख्या में लोग नष्ट हो जायेंगे क्योंकि इन्होंने मसीह के विषय में नहीं सुना है। उन्होंने जबाब दिया, “ऐसा नहीं होने वाला, बहुत थोड़े नष्ट होंगे। एक प्रकार की स्वर्गीय हास्य है - नहीं, हास्य शब्द ठीक नहीं होगा। बहुत कम लोग नष्ट होंगे लेकिन बहुत से लोग बचा लिये जायेंगे। ऐसा ही होगा, लेकिन किसी से कहना नहीं” उन्होंने कहा, जैसे चेतावनी दे रहे हों, “लोग असावधान हो जायेंगे, और हमारी इच्छा यह है कि वे प्रथम स्वर्ग का भी आनन्द लें - जो कि पृथ्वी पर का स्वर्ग है। “यदि अविश्वासी लोग और ऐसे विश्वासी जो पाप में मरते हैं, इनके लिये कोई आशा नहीं रहती तो परमेश्वर मनुष्यों को बनाना बन्द कर देते। पापियों के उद्धार के लिये इस पृथ्वी पर हमें अपना उत्तरदायित्व पूरा करना आवश्यक है, फिर भी यदि वे इनकार करते हैं तो हमें उनके लिये आशा छोड़ने की आवश्यकता नहीं है।

परमेश्वर की सम्पूर्ण योजना

हमें अभी पीछे खड़े होकर अपने अध्ययन का व्यापक प्रभाव देखना चाहिये। यदि प्रचलित दृष्टिकोण सही है, तो आदम और हव्वा ने अपनी मर्जी से शैतान के धोखा में पड़कर परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया जिससे सम्पूर्ण मानव जाति पाप के अधीन हो गया। यीशु ने दुख सहा और अपना प्राण मानव जाति के लिये अर्पण कर दिया, लेकिन मानव जाति के एक छोटे अंश को परमेश्वर के लिये बचा पाये, और बहुसंख्यक लोगों को सदा के लिये शैतान के हाथ में छोड़ दिया, ताकि वे जियें और मरें और लगातार अवर्णनीय वेदना सहते रहें। हम में से बहुतों ने न चाहते हुए भी इसी दृष्टिकोण को स्वीकार कर लिया है, क्योंकि धर्मशास्त्र में हम कोई दूसरा दृष्टिकोण देख नहीं पाये।

इस तरह के दृष्टिकोण का प्रभाव ऐसा पड़ता है कि शैतान करीब करीब परमेश्वर के बराबर लगता है। शायद यह मूर्तिपूजक धर्मों से लिया गया विचार है जहां अच्छे और बुरे के देवता समान स्तर पर एक दूसरे से युद्ध करते हैं । मूर्ति पूजक धर्म हमेशा दुष्ट को ऊंचा स्थान देते हैं, और अपने अनुयायियों को इनकी आराधना करने को प्रोत्साहित करते हैं । मुझे ऐसा लगता है वैज्ञानिक कथाएं भी इसी विचार पर आधारित हैं, हालांकि मैं यह स्वीकार करता हूं कि इस विषय पर मेरा खास अध्ययन नहीं है।

क्या हम दुष्ट के विषय में धर्मशास्त्र पर आधारित दृष्टिकोण स्थापित कर सकते हैं? आइये हम सर्वप्रथम रोमी ८:२० और २१ देखें: “क्योंकि सृष्टि अपनी इच्छा से नहीं पर आधीन करने वाले की ओर से व्यर्थता के आधीन इस आशा से की गई। कि सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा पाकर, परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता प्राप्त करेगी”। इस भाग में परमेश्वर स्पष्ट रूप से सृष्टि के पतन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेते हैं । उन्होंने सृष्टि को इस आशा में व्यर्थता के अधीन किया कि भविष्य में इसे छुटकारा मिल सके। यह सृष्टि के उनके सम्पूर्ण योजना का ही एक भाग था। पहली पारी में ही वे शैतान से हार गये, ऐसा नहीं है। उन्होंने योजना ही ऐसी बनायी कि घटना क्रम ऐसे ही हों।

अन्त में हमें यह देखना आवश्यक है कि परमेश्वर दुष्ट का उत्तरदायित्व लेते हैं और उसे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उपयोग करते हैं । यशायाह ४५ अध्याय में परमेश्वर ने अपनी सार्वभौमिकता की बात की है। उनका कहना है कि उन्होंने एक मूर्तिपूजक राजा कुस्रू को अपने उद्देश्य के लिये खड़ा किया है। ५ पद में वे कहते हैं, “मेरे सिवा और कोई परमेश्वर नहीं है”। ७ पद में वे फिर कहते हैं, “मैं उजियाले का बनाने वाला और अन्धियारे का सृजनहार हूं, मैं शान्ति का दाता और विपत्ति को रचता हूं, मैं यहोवा ही इन सभों का कर्त्ता हूं।” कुछ अंग्रेजी अनुवाद दुष्ट(evil) के बदले विपत्ति(calamity) शब्द का उपयोग करते हैं । हिब्रू शब्द का अर्थ इन दोनों में कोई भी हो सकता है। अच्छा और बुरा एक दूसरे का विरोध करने वाली शक्तियां नहीं हैं, जैसा कि चेसबोर्ड है, जो ब्रह्मांड पर विजय पाना चाहती हों। परमेश्वर ने अपना उद्देश्य पूरा करने के लिये सभी चीजों की सृष्टि की, जिसमें दुष्ट भी है, और सब चीजें उनके नियंत्रण में हैं ।

भविष्यवक्ता हबक्कुक इस समस्या से संघर्ष करता रहा। पहले अध्याय का ५ और ६ पद देखें: “अन्यजातियों की ओर चित्त लगा कर देखो, और बहुत ही चकित हो। क्योंकि मैं तुम्हारे ही दिनों में ऐसा काम करने पर हूं कि जब वह तुम को बताया जाए तो तुम उसकी प्रतीति न करोगे। देखो, मैं कसदियों को उभारने पर हूं, वे क्रूर और उतावली करने वाली जाति हैं, जो पराए वासस्थानों के अधिकारी होने के लिये पृथ्वी भर में फैल गए हैं।” परमेश्वर ने इजराइल के न्याय और सुधार का अपना उद्देश्य पूरा करने के लिये एक दुष्ट जाति को खड़ा किया। हमारी तरह ही हबक्कुक को भी यह बात समझने में कठिनाई हुई। रोमी ९:१७ में पौलुस ने निर्गमन ९:१६ को उद्धृत करते हुए बल पूर्वक कहता है कि परमेश्वर ने फिरौन को खड़ा किया। फिरौन शैतान जैसा ही है, जो परमेश्वर के लोगों को क्रूर बन्धन और दासता में तब तक रखता है जब तक छुड़ाने वाला उन्हें स्वतन्त्र करने नहीं आता। पौलुस परमेश्वर की सार्वभौमिकता बताते हुए अपनी बात पूरी करता है।

जब हम शैतान, दुष्ट और दुष्ट देशों को परमेश्वर का उद्देश्य पूरा करने के लिये परमेश्वर के हथियार के रूप में देखना आरम्भ करते हैं, तब सभी चीजों का अर्थ स्पष्ट होने लगता है। परमेश्वर ने सारी सृष्टि को पाप में नीचे गिरने दिया ताकि पाप का ग्यान पाकर अच्छे को चुनने के बाद इसे फिर ऊपर ला सकें।

अय्युब अपने अबोध अवस्था के इमान्दारिता में निश्चित रूप से परमेश्वर की दृष्टि में अच्छा था। लेकिन परमेश्वर का काम अभी पूरा नहीं हुआ था। कष्ट उठाने के बाद अय्युब के मन में परमेश्वर के किये कितना अधिक धन्यवादिता, प्रेम और समझ था! सारी सृष्टि की तरह ही, और अधिक ऊंचाई पर जाने से पहले उसे नीचे जाना आवश्यक था। औरों से अधिक स्वयं यीशु के जीवन में हम ऐसा ही नमूना देखते हैं । एक एक पायदान करके वह सर्वोच्च स्थान से उतरकर सबसे नीचे स्थान पर आये ताकि परमेश्वर उन्हें अपने दायें हाथ की ओर सर्वोच्च महिमा पर खड़ा कर सकें।

सारांश

यदि ये बातें सत्य हैं तो परमेश्वर और मनुष्य के प्रति हमारे धारणाओं पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या हम अनन्त दण्ड के डर को अलग हटाकर पापियों को अपने दुष्ट कामों में लिप्त रहने के लिये प्रोत्साहित करते हैं? नहीं! “जीवते परमेश्वर के हाथों में पड़ना भयानक बात है” (इब्रानियो १०:३१), इस सत्यता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। इस संसार के अपने दिन अन्धकार और पाप में व्यतीत करने की तुलना में यीशु की संगति और परमेश्वर के साथ मिलाप में जीना बहुत ही अच्छी बात है। पौलुस मसीह का राजदूत होने के लिये बाध्य था, नर्क के भय से नहीं, परन्तु प्रभु के भय और मसीह के प्रेम के कारण (२ कुरि ५:११, १४, २०)। हम मानव जाति को नर्क जाने वाले पापियों के समूह के रूप में नहीं देखते, जो अन्त में पूरी तरह मिट जायेंगे। हम प्रत्येक को परमेश्वर की सृष्टि के रूप में देखते हैं जिनके लिये परमेश्वर का निश्चित उद्देश्य है जो पूरा होगा। मानव जाति के लिये हमारा प्रेम बढ़ेगा।

इस नये उजाले में हम परमेश्वर को किस प्रकार देखते हैं? सर्वप्रथम हम उनकी शक्ति की महानता को देखते हैं । हम उन्हें सर्वोच्च पर उठाये गये देखते हैं और जो अपनी सृष्टि पर सम्पूर्ण अधिकार करते हैं । दूसरी बात, हम ताजी महिमा में उनकी बुद्धि देखते हैं । जितना हम पहले समझते थे उससे भी अधिक उनकी योजना बुद्धि से भरा हुआ और अधिक गहरा है, । तीसरी बात, हमें उनके प्रेम का नया दर्शन मिला है। वे वास्तव में मानव जाति के करोड़ों सदस्यों को ऐसे प्रेम से प्रेम करते हैं जो अन्त में सबों को सिद्धता तक पहुंचायेगा। “आहा! परमेश्वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं, - क्योंकि उस की ओर से, और उसी के द्वारा, और उसी के लिये सब कुछ है: उस की महिमा युगानुयुग होती रहे: आमीन” (रोमी ११:३३, ३६)।

अन्त में

योना न चाहते हुए भी निनवे शहर में गया और वहां के लोगों को कहा कि शहर के नष्ट होने से पहले पश्चाताप करने के लिये उनके पास ४० दिन बचे हैं । आश्चर्य की बात है - कम से कम हमारे लिये- पुरे शहर ने परमेश्वर पर विश्वास किया, और उपवास की घोषणा की और टाट ओढ़ा। इस बात पर योना की प्रतिक्रिया क्या थी? योना दुखी और क्रोधित हो गया। तब परमेश्वर ने योना से कहा, “फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिस में एक लाख बीस हजार से अधिक मनुष्य हैं, जो अपने दाहिने बाएं हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत घरेलू पशु भी उस में रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊं?”

यदि आप वर्षों से पापियों के अनन्त दण्ड पर विश्वास करते आये हैं और अनन्त वेदना के विषय में चेतावनी देते आये हैं, और अभी आप देखते हैं सत्यता ऐसी नहीं है जैसा आपने सोचा था, तो क्या आप परमेश्वर के दया और प्रेम के प्रति योना के समान ही क्रोध से भरकर प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे या आप आनन्दित होंगे कि उनका अनुग्रह और प्रेम से भरी दया आप जो पहले कल्पना करते थे, उससे भी दूर तक काम करते हैं?

अनुवादक - डा. पीटर कमलेश्वर सिंह

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