चिह्न और आश्चर्य कर्म

परिचय

“मैं तुम से सच सच कहता हूं, कि जो मुझ पर विश्वास रखता है, ये काम जो मैं करता हूं वह भी करेगा, वरन इन से भी बड़े काम करेगा, क्योंकि मैं पिता के पास जाता हूं” (यूहन्ना १४:१२)

यीशु ने रोगियों को चंगाई दी, दुष्टात्माओं को निकाला, अंधों की आंखें खोली, पानी के ऊपर चले, पानी को दाख मद्य में बदल दिया और मरे हुओं को जीवित किया। ये सभी काम और इनसे भी अधिक करने के बाद उन्होंने स्पष्ट कहा कि दूसरे लोग भी ये सभी काम और इनसे भी बड़े काम करेंगे। क्या उनके अनुयायियों ने उनके वचन को पूरा किया? उन लोगों ने निश्चय ही रोगियों को चंगाई दी, और दुष्टात्माओं को निकाला, और मृतकों को जीवित किया, इसके साथ साथ और भी बहुत आश्चर्य कर्म किए, लेकिन क्या उन्होंने वास्तव में यीशु की तुलना में महान् काम किये?

कौन से महान् काम वे कर सकते थे? क्या मृतकों को जीवित करने से बढ़कर भी कोई महान् काम हो सकता है?

क्या यीशु ने जो कहा, उनके कहने का तात्पर्य वही था? उनके द्वारा किए गये कामों की तुलना में हम उनसे भी बड़े काम करेंगे, ऐसा कहना ईश्वर निंदा जैसा ही है। वास्तविक ईश्वर निंदा तो यह है कि हम उनके द्वारा बोले गये शब्दों को इनकार करें और कहें कि वे गलत हैं। अपने चेलों को उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उन पर विश्वास करने वाले सभी लोग उनके द्वारा किये गये कामों से भी महान् काम करेंगे।

कुछ व्यक्तियों का कहना है कि शरीर में यीशु सिर्फ एक व्यक्ति थे जो समय और स्थान में सीमित थे। उनके अनुयायी सम्पूर्ण रोमी साम्राज्य में फैले हुए थे, जो अन्त में पूरे विश्व में फैल गये और यीशु की तुलना में बहुत अधिक काम करने में सफल हुए। यह बात पूरी तरह सत्य है, पर बहुत काम और महान् काम में अन्तर है। चेलों ने कौन सा ऐसा काम किया, और हम क्या कर सकते हैं जो यीशु के द्वारा किये गये काम से महान् हो?

उनकी सहायता से हम इन कठिन शब्दों के अर्थ ढूंढ़ेगे और ऐसा करते समय बहुमूल्य नये आत्मिक पाठ सीखेंगे।

यीशु ने क्या काम किये?

यीशु ने जनता के बीच अपनी सेवकाई का आरम्भ नाजरथ के सभाघर में खड़ा होकर, यशायाह नबी की पुस्तक से पढ़कर की। ये शब्द उन्होंने पढ़े थे, “प्रभु का आत्मा मुझ पर है, इसलिये कि उसने कंगालों को सुसमाचार सुनाने के लिये मेरा अभिषेक किया है, और मुझे इसलिये भेजा है, कि बन्धुओं को छुटकारे का और अन्धों को दृष्टि पाने का सुसमाचार प्रचार करूं और कुचले हुओं को छुड़ाऊं। और प्रभु के प्रसन्न रहने के वर्ष का प्रचार करूं” (लुका ४: १८, १९)।

यीशु ने उनसे यह भी कहा, “आज ही यह लेख तुम्हारे साम्हने पूरा हुआ है” (लुका ४: २१)। यह एक बहुत बड़ी बात थी। एक बढ़ई का बेटा, जो उन्हीं लोगों के बीच पलकर बड़ा हुआ था, एकाएक इतनी बड़ी बात बोल रहा था। उसका कहना था कि यह ७०० वर्ष पुरानी अगम वाणी उसी में पूरी हुई थी।

नाजरथ के सभाघर के सदस्यों के लिये यशायाह नबी की पुस्तक के ६१वें अध्याय में उल्लिखित इन शब्दों का महत्त्व क्या था? पहली बात जो उन्होंने याद की होगी, जैसा कि प्रत्येक वर्ष फसह के समय वे याद करते हैं, वह यह कि इनके पूर्वज मिश्र देश में गुलाम थे। उस देश में इन लोगों ने तब तक कष्ट और सतावट में जीवन बिताया था, जब तक मूसा का प्रादुर्भाव नहीं हुआ और परमेश्वर के हाथों अनेक चिह्न और आश्चर्य कर्म करके वह इन्हें वहां से छुड़ा नहीं लिया।

दूसरी बात, उन्होंने जुबली वर्ष, परमेश्वर की कृपा का वर्ष को याद किया होगा। यह विशेष ५० वां वर्ष अधिकांश व्यक्तियों के जीवन काल में सिर्फ एक बार आता था। पुराने जमाने में जुबली वर्ष आने पर सभी गुलाम स्वतन्त्र कर दिये जाते थे और सभी जमीन उनके पुराने मालिकों को लौटा दिये जाते थे। लेकिन रोमी साम्राज्य में इसका क्या अर्थ हो सकता था? यीशु धर्मशास्त्र के ये वचन कैसे पुरा कर सकते थे?

बाद के तीन वर्षों में क्या हुआ, मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं है। मत्ती, मर्कुस, लुका और यूहन्ना, सबों ने बड़े विस्तार से लिखा है। यीशु भले काम करते रहे। यशायाह द्वारा भविष्यवाणी की गयी सभी बातें पुरी हुईं। यीशु ने परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार गलील के गरीबों तक पहुंचाया। कितने रोगी चंगे हुए और कितने लोगों ने प्राण -घातक रोगों से छुटकारा पाया, कोई नहीं जानता। अन्धकार की शक्तियों के द्वारा सताये गये और कष्ट पा रहे लोगों ने छुटकारा पाया। ऐसे ऐसे आश्चर्य कर्म हुए जो विश्वास से परे थे। जो लोग जन्म से अन्धे थे, उन्होंने भी दृष्टि पायी। इससे भी बड़ी बात यह कि, उन्होंने मरे हुओं को भी पुनर्जीवित किया। पुराने जमाने में एलिया और एलिशा ने ऐसे आश्चर्य कर्म किये थे, लेकिन उस जमाने में किये गये आश्चर्य कर्म आज भी होने की आशा नहीं कर सकते!

जिन लोगों ने चंगाई पायी थी और छुटकारा पाया था, हम उनके हर्षोल्लास की कल्पना कर सकते हैं। यह भी सत्य है कि हम में से बहुतों ने अपने जीवन में इनमें से कुछ चीजों का अनुभव किया है। चेलों ने कितना उत्साह अनुभव किया होगा, जब उन्होंने न सिर्फ ये आश्चर्यजनक काम अपनी आंखों से देखा बल्कि ऐसे आश्चर्य कर्म स्वयं करने की शक्ति भी पायी। उन्होंने इन बातों के विषय में धर्मशास्त्र में पढ़ा था, लेकिन उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसे काम उनकी आंखों के सामने नहीं बल्कि उनके अपने हाथों से होगे।

इन सब चीजों का अन्त क्या होगा? क्या यीशु दूसरे मूसा थे जो इस्राएलियों को रोमी शासन से छुड़ाते, जैसा मूसा ने मिश्रियों से छुड़ाया था? क्या वे दूसरे दाऊद थे जो इसराइल की सैन्य शक्ति पुनर्स्थापित करने आए थे? क्या यीशु की आश्चर्य कर्म करने की शक्ति के द्वरा इस संसार में प्रतिज्ञा की गयी शान्ति, सुस्वास्थ्य और समृद्धि से भरा परमेश्वर का राज्य स्थापित कर सकते थे? क्या यह मनुष्य को सताने वाले रोग, गरीबी और कष्ट जैसी समस्याओ का अन्त था? यीशु के पीछे चलने वाले लोगों का उत्साह और आशा असीमित रहा होगा।

यीशु के विचार क्या थे?

एक व्यक्ति जो मेरे विचार से जरा भी उत्तेजित नहीं थे, वह स्वयं यीशु थे।

जब भिड़ उनकी शिक्षा सुनने के लिये और उनके द्वारा किये जाने वाले आश्चर्य कर्म देखने या अनुभव करने के लिये उनके पिछे लगता था तब वह प्रार्थना करने और परमेश्वर के साथ अकेले समय व्यतीत करने के लिये पहाड़ पर चले जाते थे। जब यहूदिया में यह खबर फैली कि यीशु बपतिस्मा देने वाले यूहन्ना से अधिक चेले बना रहे हैं, तब वह इस इलाके को छोड़ कर सामरिया चले गये।

भीड़ के बीच अपने आशीष और सहायता करने की आश्चर्यजनक सेवकाई पर अपने प्रयास और ध्यान केन्द्रित करने के बदले उन्होंने अपना समय ऐसी शिक्षा देने में लगाया जो उनके अपने चेले ही नहीं समझ सकते थे। जब वे उनके किये आश्चर्य कर्मों के विषय में सोच रहे होते, यीशु का मन किसी दूसरी बात में उलझा रहता था। कुछ समय बाद उन्होंने चेलों से यह कहना आरम्भ कर दिया कि वह मरने और फिर जी उठने जा रहे हैं। वे चाहते थे कि यीशु की विशेष और आश्चर्यजनक सेवकाई यूं ही सदा के लिये चलता रहे। उनके और उनके पिता के पास इससे भी अच्छी पर अलग योजना थी, जो उस अवस्था में वे समझने में पूरी तरह असमर्थ थे।

एक बार यीशु ने कहा, “मुझे तो एक बपतिस्मा लेना है; और जब तक वह न हो ले तब तक मैं कैसी सकेती में रहूंगा?” (लुका १२:५०) यीशु यह बात जानते थे कि उनकी सेवकाई, जिससे चेलों को आनन्द मिलता था, एकदम सीमित था। वह ऐसे काम करना चाहते थे जो उस समय उनके लिये असम्भव था, पर बाद में चेलों के द्वारा कर सकते थे। ये सब बड़े काम थे जो तभी सम्भव थे जब यीशु पिता के पास जाते।

मैं पिता के पास जा रहा हूं

मृत्यु से पूर्व संध्या यीशु ने अपने चेलों को भविष्य के लिये तैयार करने में बिताई। उस अविस्मरणीय रात में यीशु ने क्या कहा, इस विषय में मत्ती, मर्कुस और लुका की तुलना में यूहन्ना ने बहुत अधिक लिखा है। मत्ती की तरह यूहन्ना भी स्वयं वहां उपस्थित था, पर वह यीशु के बहुत करीब था और औरों से अधिक यीशु की बातें समझता था। साथ ही, वास्तव में लिखने से पहले इन बातों पर मनन करने के लिये उसके पास पर्याप्त समय भी था। ये बातें यूहन्ना के सुसमाचार के १४, १५ और १६ वें अध्याय में लिखी गयी हैं।

पहले जैसे ही इस बार भी यीशु की बातें चेलों के लिये समझ पाना कठिन था। ऐसा क्यों था? मैं इस बात से सहमत नहीं कि चेले साधारण व्यक्ति होने के कारण ऐसा था। मेरा विश्वास है कि वे लोग भी हम में से अधिकांश व्यक्तियों जैसे तीक्ष्ण बुद्धि थे। यह तो निश्चय ही इस कारण नहीं था कि यीशु अपनी बातें स्पष्ट नहीं कर पा रहे थे। मैं निश्चय हूं कि वे एक अच्छे प्रवक्ता थे।

या यह इस कारण था कि चेले सब आत्मिक रूप से बालक थे? कम से कम आज की तुलना में तो ऐसा नहीं था। बचपन से ही उन सभी ने सभा घर में धर्मशास्त्र का पढ़ा जाना और उसकी व्याख्या सुनते आये थे। इसके साथ ही उन्होंने पिछले तीन सालों से पहले यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला और फिर यीशु की शिक्षा सुन रहे थे। उन्होंने आश्चर्य कर्म करते देखा भी और फिर अपने ही हाथों से किया भी था। आप ऐसे लोगों को सिखारु नहीं कह सकते जिन्होंने सर्व श्रेष्ठ शिक्षा पायी हो और जिन्होंने आज के सभी धर्म गुरुओं से भी अधिक आश्चर्य कर्म देखे हों!

चेले यीशु को नहीं समझ पाये, इसका कारण यह था कि उन्होंने अभी तक पवित्र आत्मा की भरपूरी नहीं पायी थी। पवित्र आत्मा का बपतिस्मा और हृदय के अन्दर उनकी उपस्थिति के बिना यीशु की बातों को समझने के लिये उनका अंतरमन सक्षम नहीं था।

आज भी बुनियादी अवस्था वैसी ही है। पवित्र आत्मा के प्रकाश के बिना यीशु की बातें किसी भी व्यक्ति के लिये आज भी समझना उतना ही कठिन है जितना उस समय था। अन्तिम शाम उन्होंने चेलों से जो बातें कहीं, वे बातें हमारे लिये उसी अनुपात में अर्थ पूर्ण होंगी जिस अनुपात में हमने पवित्र आत्मा की उपस्थिति और प्रकाश अनुभव किया है।

इस लिये आइये हम प्रार्थना और ईश्वरीय सहायता से उस रात यीशु ने चेलों से जो बातें कही थीं उन्हें समझने का प्रयत्न करें।

१४ अध्याय इन शब्दों से आरम्भ होता हैः “तुम्हारा मन व्याकुल न हो, तुम परमेश्वर पर विश्वास रखते हो मुझ पर भी विश्वास रखो। मेरे पिता के घर में बहुत से रहने के स्थान हैं, यदि न होते, तो मैं तुम से कह देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूं। और यदि मैं जा कर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूं, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहां ले जाऊंगा, कि जहां मैं रहूं वहां तुम भी रहो” (यूहन्ना १४:१-३)।

बहुत से व्यक्ति इस विचार से आगे सोच ही नहीं सकते कि “यदि कोई यीशु पर विश्वास करे तो मृत्यु के बाद स्वर्ग जाएगा”। ऐसे लोग किंग जेम्स बाइबल के अनुवाद के आधार पर विश्वास करते हैं कि यहां यीशु आकाश में एक महल की प्रतिज्ञा करके चेलों को सान्त्वना दे रहे थे, यह महल या तो उनकी मृत्यु के बाद या यीशु के दूसरे आगमन पर उन्हें मिलेगा। यदि हम पूरे अध्याय को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि यीशु के कहने का अर्थ यह कदापि नहीं था।

इस पृथ्वी पर कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करने के बाद कहीं ऊपर आकाश में सुन्दर नया भवन की आशा दिलाकर यीशु चेलों को सान्त्वना नहीं दे रहे थे। उन्हें देने के लिये उनके पास इससे भी अच्छी चीज थी। वे उन्हें यह बता रहे थे कि तत्काल उन्हें एक आत्मिक स्थान ग्रहण करना था। वे भविष्य की नहीं परन्तु वर्तमान की बात कर रहे थे।

यीशु जब इस संसार में थे तब उनके चेले शरीर में तो उनके साथ थे पर आत्मा में नहीं। भौतिक रूप में सब एक साथ होते हुए भी आत्मिक रूप में यीशु उनसे भिन्न स्थान पर थे। जैसा उन्होंने फरिसियों से कहा था, यीशु ऊपर से आये थे और वे सब नीचे से। वे परमेश्वर के थे और वे सब आदम के। यीशु स्वर्ग से आए थे और वे सब पृथ्वी से। वे अपने अनुयायियों को भी अपने साथ उसी आत्मिक स्थान पर रखना चाहते थे, जहां वे स्वयं थे। यह सब उनकी मृत्यु, पुनरुत्थान और पिता के पास लौटने से ही सम्भव था।

यीशु की अन्तिम उल्लिखित प्रार्थना में उन्होंने पिता से विनती की थी, “और अब, हे पिता, तू अपने साथ मेरी महिमा उस महिमा से कर जो जगत के होने से पहिले, मेरी तेरे साथ थी” (यूहन्ना १७:५)। आरम्भ में जब परमेश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी की सृष्टि की उससे पहले, यीशु अपने पिता की महिमा में सहभागी थे। महिमा के लिये उपयोग किया गया हिब्रू शब्द ‘कावोद’ का अर्थ वजन या महत्त्व होता है। यूनानी शब्द ‘डोक्सा’ का वास्तविक अर्थ उच्च प्रतिष्ठा है जो भव्यता और चमक के अर्थ में भी उपयोग हुआ है। पिता के साथ जिस आदर, महिमा, शक्ति और महत्ता में यीशु सहभागी हुए थे उसे कोई भी सांसारिक शब्द पूरी तरह व्यक्त नहीं कर सकता।

एक समय ऐसा आया जब उन्होंने इन सब चीजों को छोड़कर मानव शरीर धारण किया और मरियम की कोख से जन्म लिया। उन्होंने अपने आपको सीमा और बन्धन के अधीन कर लिया जो हम मनुष्य के रूप में कल्पना भी नहीं कर सकते। अपने प्रस्थान के पूर्व सन्ध्या पर आनन्द पूर्वक पिता की महिमा में अपने पुनर्स्थापन की आशा कर रहे थे, यद्यपि पहले उन्हें मृत्यु का कष्ट सहन करना था। अपनी मृत्यु और पुनरुत्थान के बाद उनका पुनर्स्थापन होना था। मानवीय इतिहास की कोई भी घटना या कल्पना की तुलना इस आश्चर्य और महिमा से भरपूर अपने घर लौटने की उल्लास पूर्ण विजय यात्रा से नहीं की जा सकती।

अपने युवावस्था में एक धनी और प्रतिष्ठित व्यक्ति के पुत्र के रूप में युसुफ का महत्त्वपूर्ण स्थान था। उसे दास बना दिया गया और मिश्र देश में एक हाकिम के घर में वह नौकर का काम करने लगा। संसार में वह निम्न स्तर पर चला गया। वह इससे भी निम्न स्तर पर चला गया जब उसे अन्याय पूर्वक कारागार में डाल दिया गया। अचानक, एक ही दिन में उसका देश के सर्वोच्च स्थान पर पदोन्नति हो गया। शक्तिशाली मिश्री साम्राज्य पूरी तरह उसके नियन्त्रण में आ गया और उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा में रहने लगा। उसे सारा अधिकार दे दिया गया था।

युसुफ की यह नाटकीय और आश्चर्य जनक कथा यीशु की असीमित और महान् कथा की छोटी सी तस्वीर है। उनका पिता के पास लौट जाना अति निम्न स्थान से अति उच्च शक्ति और महिमा के पद पर पदोन्नति होना है जो कोई भी मरणशील मनुष्य कभी भी नहीं पा सकता।

जब यीशु अपने पिता के पास अपने पद पर लौट गये, तब उनकी प्रार्थना पूरी हो गयी, “हे पिता, मैं चाहता हूं कि जिन्हें तू ने मुझे दिया है, जहां मैं हूं, वहां वे भी मेरे साथ हों कि वे मेरी उस महिमा को देखें जो तू ने मुझे दी है, क्योंकि तू ने जगत की उत्पत्ति से पहिले मुझ से प्रेम रखा” (यूहन्ना १७:२४)। अपने पिता के दाहिने हाथ अपनी महिमा में सिर्फ यीशु ही नहीं लौटे पर आश्चर्यों का आश्चर्य, उनके चेले भी उनके साथ सहभागी बने। आत्मा में उनके पास रहने के लिये वे भी चले गये। उन्होंने उनको अपने पास ग्रहण किया। उनको अपने साथ स्वीकार करने के लिये यीशु ने उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं की। उन्होंने भौतिक शरीर में दूसरी बार इस संसार में आकर उन्हें ग्रहण नहीं किया। उन्होंने पवित्र आत्मा के द्वारा इस संसार में मरणशील शरीर में जीवन व्यतीत करते समय ही चेलों को अपने पास ग्रहण किया।

जो बड़े काम वे सब करने वाले थे, उसका रहस्य यही था। वे सब पवित्र आत्मा के असीमित महान् अवस्था में प्रवेश कर गये थे। उन्होंने ऐसे क्षेत्र में प्रवेश किया था जो आज तक किसी ने देखा नहीं था - एक ऐसा क्षेत्र जो अनुग्रह के द्वारा आत्मा में जन्मे बिना और परमेश्वर के राज्य को देखे बिना कोई भी नहीं देख सकता।

यह सब उस समय हुआ जब पेन्तिकोस के दिन पवित्र आत्मा का अवतरण हुआ। चेलों ने परमेश्वर के साथ एक नये स्थान में प्रवेश किया। वे वहां रहने लगे जहां यीशु थे। एफिसियो की पत्री में जैसा पौलुस ने लिखा है, “और मसीह यीशु में उसके साथ उठाया, और स्वर्गीय स्थानों में उसके साथ बैठाया” (एफिसी २:६)। वे स्वाभाविक रूप से आश्चर्य कर्म करते रहे, लेकिन पहले की तुलना में अभी की अवस्था भिन्न थी। अब वे जानते थे कि ये आश्चर्य कर्म सिर्फ दृश्य चीजें हैं जो लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं। वे ऐसे महान काम करने लगे जो लोगों को नहीं दिखते पर परमेश्वर को दिखते हैं। ये बड़े काम पवित्र आत्मा के अदृश्य क्षेत्र के थे। वे सब यीशु के द्वारा किये गये भौतिक चिह्नों के आत्मिक पक्ष थे।

चिह्न

यीशु के द्वारा किये गये आश्चर्य कर्मों का वर्णन करने के लिये मत्ती, मर्कुस और लुका ने प्रायः यूनानी शब्द δυναμις (डुनामिस) का उपयोग किया है, जिसका अर्थ होता है ‘सामर्थ्य के काम’। यूहन्ना ने σημειον (सेमैओन) शब्द का उपयोग किया है जिसका अर्थ है ‘चिह्न’।

कोई भी चिह्न अपने आप में महत्त्वहीन है। इसे किसी चीज की ओर संकेत करना चाहिये। इसका अवश्य कोई अर्थ होना चाहिये। यात्रा के क्रम में आप उस चिह्न के पास तो नहीं रुक जाते जो आपके गन्तव्य की ओर संकेत करता है। बल्कि आप और उत्साहित होकर आगे बढ़ते हैं कि आप ठीक मार्ग पर जा रहे हैं। ऐसे चिह्न जो अस्तित्व हीन स्थानों की ओर संकेत करते हैं, व्यर्थ होते हैं ।

औरों की तुलना में यूहन्ना ने बहुत ही स्पष्ट रूप से देखा कि जो आश्चर्य कर्म या चिह्न यीशु ने किये, वे सब अपने से दूर, आत्मिक वास्तविकता की ओर संकेत कर रहे थे। यीशु पर विश्वास करने वाले जो महान् काम करने वाले थे, वे सब उनकी ओर संकेत कर रहे थे।

अब हम यीशु और उनके प्रथम अनुयायियों द्वारा किये गये चिह्नों के विषय में विचार करेंगे और वे जिस आत्मिक वास्तविकता की ओर संकेत करते हैं उसे समझने का प्रयत्न करेंगे।

चिह्नों के अर्थ

पानी से दाख मद्य बनाना

यीशु का पहला आश्चर्य कर्म या चिह्न पानी को दाख मद्य में परिवर्तन करना था। एक विवाह के भोज में दाख मद्य समाप्त हो जाने से समस्या हो गयी थी। पानी के छः मटके नजदीक पड़े थे। यीशु ने नौकरों को कहा कि इन मटको में पानी भर दें। फिर उसने नौकरों से कहा कि इनमें से थोड़ा निकालकर भोज के मालिक को दें। पानी दाख मद्य बन चुका था। मानवीय स्तर पर एक बहुत ही शर्मनाक परिस्थिति का आश्चर्य जनक रूप से समाधान हो गया था। लोग कितने आनन्दित हुए होंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह खबर काना गांव और उसके चारों ओर के क्षेत्र में आग की तरह फैली होगी। शताब्दियों से इस तरह की कोई घटना नहीं हुई थी। किसने सोचा था कि पड़ोसी गांव के बढ़ई के बेटे में ऐसा काम करने की शक्ति है।

लेकिन इस चिह्न का अर्थ क्या है? मेरा विश्वास है कि इसके बाद होने वाले सभी चिह्नों के लिये यह एक आरम्भ था।

पत्थर के छः मटको में पानी भरा था। पानी और छः की संख्या, दोनों प्राकृतिक अवस्था या शरीर की ओर संकेत करते हैं । दाख मद्य, दूसरी ओर, आत्मा की ओर संकेत करता है। पेन्तिकोस के दिन जब सारे प्रेरित पवित्र आत्मा से भर गये थे, तब उन्हें नये दाख मद्य के नशे में चूर होने का दोष लगाया गया था। बाहरी दर्शक ठीक भिन्नता नहीं पहचान पाते।

इसके बाद यीशु ने जितने आश्चर्य कर्म किये वे सब प्राकृतिक अवस्था की घटनाएं थीं जिन्हें बाइबल ‘शरीर’ कहती है। हरेक घटना भविष्य में होने वाली आत्मिक बातों की ओर संकेत करता था। जैसे जैसे हम एक एक करके उन पर विचार करेंगे, हम पायेंगे कि वे अपने आप में आश्चर्य जनक होते हुए भी भविष्य में होने वाली और भी अच्छी बातों की ओर संकेत करती थी। वे सब आने वाले आत्मिक वास्तविकता का बाहरी प्रतिनिधित्व करते थे।

हमें यह क्यों जानकारी दी गयी कि मटके पत्थर के बने थे? पत्थर एक निर्जीव वस्तु है। पुराना नियम पत्थर के टुकड़ों पर लिखा गया था और यह जीवन देने में सर्वथा असमर्थ था। जीवन देने वाले यीशु के नियम हृदय पर लिखे गये हैं । सुलैमान का मन्दिर पत्थर से निर्माण किया गया था, और यह एक जीवित मन्दिर कभी नहीं हो सकता था जिसमें परमेश्वर वास करना चाहते थे। पुराने नियम के सभी वेदी पत्थर के बने थे, परन्तु परमेश्वर तो जीवित वेदी चाहते थे।

छः निर्जीव पत्थर के मटको से पानी निकालना आवश्यक था ताकि यह नये नियम का जीवित दाख मद्य बन जाये।

मुर्दों को जीवित करना

तबीता नाम की एक महिला जो प्राचीन शहर जोप्पा की रहने वाली थी, बीमार हुई और उसकी मृत्यु हो गयी। अपने अच्छे कामों और दूसरों को की गई सहायता के कारण वह बहुत ही लोकप्रिय महिला थी। चेलों ने शीघ्र ही पतरस को बुला भेजा जिन्होंने उसकी कोठरी में जाकर प्रार्थना की। तब उन्होंने उसे उठ खड़े होने की आज्ञा दी और वह उठ खड़ी हुई। हम उसके मित्रो की खुशी और आनन्द की कल्पना कर सकते हैं । शीघ्र ही यह खबर पूरे शहर में फैल गयी।

एक दुःखद घटना घट गयी जब पौलुस के प्रवचन सुनते समय गहरी नींद सोने के कारण यूतुखुस दूसरी मंजिल की खिड़की से गिरा और उसकी मृत्यु हो गयी। पौलुस के भ्रमण का आनन्द और उत्साह, और यीशु के विषय में जो प्रकाश वह बता रहे थे, एक युवक की दुःखद मृत्यु के कारण वे अकस्मात् सदमा और भय में परिवर्तन हो गये थे। ये सभी बातें फिर नाटकीय हो गयीं जब पौलुस नीचे जाकर विश्वास की प्रार्थना की और उस व्यक्ति को पुनर्जीवित कर दिया। ऐसी घटनाओं का मानव मस्तिष्क पर प्रभाव जीवन पर्यन्त रहता है।

पेन्तिकोस के दिन यरुशलेम में ऐसे बहुत लोग थे जो आत्मिक अन्धकार और मृत्यु के अधीन थे। पतरस ने उनके बीच पवित्र आत्मा की सामर्थ्य में जीवन के वचन बोले। अनगिनत लोगों ने उनकी बातें सुनीं और उन्हीं पवित्र आत्मा के द्वारा आत्मिक जीवन में प्रवेश पाया। इस घटना के प्रति निश्चय ही लोगों में मिश्रित प्रतिक्रिया थी। शायद नये विश्वासी के मित्र और सम्बन्धी उनके जीवन में जो हुआ था उससे अत्यधिक विचलित थे, और धर्माधिकारी भी इस घटना से प्रसन्न नहीं थे। संसार में मिश्रित प्रतिक्रिया थी पर स्वर्ग में अति आनन्द था। स्वर्ग दूत इसे आश्चर्यजनक समझ रहे थे। यह सभी आश्चर्य कर्मों से भी महान् था। मानव जाति के सदस्य, इस पृथ्वी के बासिन्दे, “जो अपने पापों और अधर्मों में मरे हुए थे”, आत्मिक रूप से जीवित हो गये थे। यीशु के द्वारा बोले गये वचन पूरे हो गये थे। यह उन महान् कामों का आरम्भ था, जिनके विषय में उन्होंने कहा था।

किसी व्यक्ति को आत्मिक मृत्यु से आत्मिक जीवन में लाना, मृत व्यक्ति को पुनः जीवित करने से भी बड़ा काम है। यह वास्तव में परमेश्वर का दृष्टिकोण है और यही सत्य है। मानवीय दृष्टिकोण में शारीरिक मृत्यु से किसी को पुनर्जीवित करना सम्भवतः सबसे बड़ा काम है। परमेश्वर का दृष्टिकोण और मानवीय दृष्टिकोण, दो अलग अलग चीजें है और हम परमेश्वर का दृष्टिकोण अपनाना सिख रहे हैं ।

अंधों को दृष्टि

जिसने पहले कुछ नहीं देखा हो, ऐसे व्यक्ति की शारीरिक आंखें खुलना एक आश्चर्यजनक बात हो सकती है। उस व्यक्ति की खुशी की कल्पना कीजिये जो अपने जीवन में पहली बार, प्रौढ़ावस्था में, विभिन्न रंग देख पा रहा है। निश्चय ही इस संसार में यह अति आनन्द की बात है जब कोई पहली बार दृष्टि पुनर्स्थापित करने के कारण देख पा रहा हो। स्वर्ग में इस बात से आनन्द होता है जब किसी को आत्मिक दृष्टि मिलती है। यीशु ने फरीसियों को “अन्धे लोगों का अन्धे अगुवा” कहा था। वह उनकी शारीरिक दृष्टि की बात नहीं कर रहा था। न ही वह उनकी बौद्धिक ज्ञान के विषय में चिंतित था। उन्हें धर्मशास्त्र का पर्याप्त ज्ञान था और वे ठीक शिक्षा दे सकते थे। उनकी समस्या थी ‘आत्मिक अन्धापन’। वे न तो परमेश्वर को, न ही उनके राज्य को देख सकते थे। उनका जन्म ऊपर से नहीं हुआ था।

दमिश्क के रास्ते पर जब पौलुस गिरा तो उसने दोपहर के सूरज से भी चमकीला प्रकाश देखा। शारीरिक रूप से वह तीन दिनों तक अन्धा बना रहा और कुछ भी देखने में असमर्थ था। इस अवधि में उसने न कुछ खाया न कुछ पिया। तब अननियास नाम का चेला उसके पास भय और कम्प के साथ आया और उसके लिये प्रार्थना की कि उसे दृष्टि मिले और वह पवित्र आत्मा की भरपुरी पाए। इसके बाद तुरत उसकी आंखों से छिलके जैसा कुछ गिरा और उसकी शारीरिक दृष्टि वापस मिल गयी। उसकी आत्मिक दृष्टि का क्या? वह यह भी पाने लगा जो अति महत्त्वपूर्ण है। उसकी आत्मिक आंखें खुल गयी थीं।

पौलुस के धार्मिक जीवन के इस भाग तक उसने सिर्फ संसार की चीजें देखी थीं। नैतिक नियम, रीति और व्यवस्था के अनुसार किये जाने वाले बलिदान के विषय में सारी बारीकियां वह जानता था, लेकिन वह स्वर्ग के राज्य को नहीं देख सकता था। अभी तक वह ऊपर से नहीं जन्मा था। आत्मिक दृष्टि पाने के कारण उसके द्वारा लिखी गयी चिट्ठियां हमारे पवित्र शास्त्र का हिस्सा हैं और संसार के सभी भाग के लाखों लोगों के लिये आशीष और सहायता का श्रोत हैं ।

भीड़ को भोजन

पांच रोटी और दो मछली से भीड़ को भोजन कराना आज के समाचार पत्रों में प्रमुख स्थान पाते। पर स्वर्ग के समाचार पत्र सिर्फ उन्हीं को स्थान देते हैं जो भूखों को आत्मिक भोजन से तृप्त करते हैं । भीड़ को भोजन देने के बाद यीशु ने कहा, “नाशमान भोजन के लिये परिश्रम न करो, परन्तु उस भोजन के लिये जो अनन्त जीवन तक ठहरता है, जिसे मनुष्य का पुत्र तुम्हें देगा” (यूहन्ना ६:२७)। जो हुआ था उसे देखकर यीशु की तुलना में भीड़ बहुत अधिक उत्तेजित थी। वह जानते थे कि अगले दिन वे सब फिर भूखे होंगे।

कोई भी ठीक मनःस्थिति वाला व्यक्ति नंगे और भूखे बच्चों को देखकर निश्चय ही दुखी होगा और उनकी सहायता करना चाहेगा। परमेश्वर की स्तुति हो कि बहुत से व्यक्ति अपना समय, अपना धन और अपना जीवन इस काम मे लगाते हैं ताकि बहुत से लोग जो ऐसी नितान्त अभाव की अवस्था में रहते हैं, उनका जीवन स्तर अच्छा हो सके। जो लोग गरीबी और कष्ट में जीते हैं, परमेश्वर उनकी पुकार सुनता है। परन्तु परमेश्वर इससे भी अधिक देखते हैं । वह इसके पीछे के आत्मिक अन्धकार, अन्धापन और गरीबी को देखते हैं जिसके कारण यह सब हुआ है।

हमारे लिये यह जानना आवश्यक है कि सत्य आत्मिक भोजन क्या है। हमें दूध और ठोस भोजन में क्या अन्तर है, यह पता लगाना आवश्यक है ताकि जिन्हें हम खिलाते हैं उन्हें ठीक भोजन दे सकें। सही आत्मिक भोजन स्वस्थ आत्मिक व्यक्ति का निर्माण करेगा। जो आत्मिक रूप से स्वस्थ हैं वे अपने और अपने आस पास के लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिये भी बहुत कुछ करेंगे।

रोगियों को चङ्गा करना

यरुशलेम, सामरिया, एसिया माइनर से लेकर रोम तक प्रचार करते समय, जहां जहां वे गये,प्रत्येक शहर में प्रेरितो की चङ्गा करने की शक्ति से लोग आश्चर्यचकित और आनन्दित हुए। शरीर का रोग खुशी की बात नहीं है। आधुनिक उपचार पद्धति और सामाजिक सुरक्षा के प्रादुर्भाव से पहले की अवस्था और भी दयनीय थी। लोग सिर्फ शारीरिक कष्ट और कठिनाई ही नहीं सहन करते थे, बल्कि काम करने में असमर्थ होने के कारण और भी मुसीबत बढ़ जाती थी। शरीर का चङ्गा होना, परमेश्वर की शक्ति के द्वारा अलौकिक रूप से हो या स्वाभाविक रूप से आधुनिक उपचार से हो, एक बहुत बड़ा आशीष है। परन्तु यह तो केवल कुछ समय के लिये होता है और सदा के लिये नहीं होता। जो लोग पौलुस के हाथों चङ्गा हुए थे, वे आज स्वस्थ नहीं हैं! उनका शरीर बहुत पहले ही सड़ चुका है।

आत्मिक रूप से चङ्गा करना शारीरिक चङ्गाई से महान् है। शारीरिक और मानसिक रोग डौक्टर और दवा से ठीक हो सकते हैं । पर आत्मिक रोग सिर्फ परमेश्वर की सामर्थ्य से ठीक होते हैं । यदि हम पवित्र आत्मा की सहायता से जीवन के वचन बोलें तो आत्मिक रोगियों को हम चङ्गा करते हैं । हमारे द्वारा परमेश्वर का प्रेम और सामर्थ्य भित्री मनुष्य के गहरे रोगों तक पहुंचता है और स्वास्थ्य और जीवन देता है। इससे प्रायः बाहरी मनुष्य को अच्छा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य मिलता है।

पानी पर चलना

पानी पर चलना एक ऐसा आश्चर्य कर्म है जो गुरुत्वाकर्षण के भौतिक नियम को झूठा ठहराता है। चेले सब आश्चर्य और भय से देखते रह गये जब उन्होंने ने यीशु को पानी पर चलकर अपनी ओर आते हुए देखा। पतरस जीवन भर इस बात को नहीं भुला सका कि जब उसने नाव से पैर बाहर निकाला तो पाँव के नीचे का पानी ठोस था।

आज हवाई जहाज आकाश में उड़ते हैं और सेटेलाइट बहुत अधिक ऊंचाई पर पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं । विज्ञान की सहायता से गुरुत्वाकर्षण के नियम को झूठा ठहराना मनुष्य सिख गया है।

सर आइजक न्यूटन के वैज्ञानिक संसार को चकाचौंध करने से बहुत पहले पौलुस ने एक दूसरे प्रकार का गुरुत्वाकर्षण के नियम का पता लगाया था। उसने इसे पाप और मृत्यु का नियम कहा। यह भी उतनी ही शक्ति से नीचे खिंचता था। उसने इसके विषय में ऐसा लिखा है, “क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूं, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता वही किया करता हूं। परन्तु यदि मैं वही करता हूं, जिस की इच्छा नहीं करता, तो उसका करने वाला मैं न रहा, परन्तु पाप जो मुझ में बसा हुआ है। सो मैं यह व्यवस्था पाता हूं, कि जब भलाई करने की इच्छा करता हूं, तो बुराई मेरे पास आती है। क्योंकि मैं भीतरी मनुष्यत्व से तो परमेश्वर की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न रहता हूं। परन्तु मुझे अपने अंगो में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है, और मुझे पाप की व्यवस्था के बन्धन में डालती है जो मेरे अंगों में है” (रोमी ७: १९-२३)। शरीर के द्वारा नीचे की तरफ का खिंचाव का सिर्फ हम आत्मा के ऊपर की तरफ के खिंचाव से ही रोक सकते हैं ।

यीशु का संसार के पानी के ऊपर चलना एक आश्चर्य कर्म था, परन्तु उन्होंने उन सब चीजों पर विजय पूर्वक चलकर दिखाया जिन चीजों का पानी प्रतिनिधित्व करता है - शरीर। उन्होंने आत्मिक गुरुत्वाकर्षण के नियम को झूठा कर दिया। यह एक ऐसा बड़ा अनदेखा आश्चर्य कर्म था जो अपने जीवन में वे हरेक दिन किया करते थे।

पौलुस ने भी इस विजय को पा लिया, और लिखा, “क्योंकि जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की, और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया” (रोमी ८:२)।

क्रमिक प्रगति

हमने जिन बातों का वर्णन किया है वह परमेश्वर के ज्ञान और अनुभव में क्रमिक प्रगति है। सम्पूर्ण बाइबल में मानव के सामने परमेश्वर के क्रमिक प्रकाश का वर्णन मिलता है। हमारे अपने जीवन में और हमारे द्वारा दूसरों को परमेश्वर के क्रमिक और बढ़ते हुए प्रकाश के अनुभव की आशा करनी चाहिए।

नये नियम में हम प्रायः और महान्, और अच्छा, और ऊंचा जैसे तुलनात्मक शब्द पाते हैं । वे सब प्राकृतिक स्तर से ऊपर आत्मिक स्तर पर जाने की बात करते हैं । पुराना नियम अच्छा था, नया नियम और अच्छा, और महान् और ऊंचा है।

यीशु ने यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के विषय में ये बातें कही थीं, “मैं तुम से सच कहता हूं, कि जो स्त्रियों से जन्मे हैं, उन में से यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले से कोई बड़ा नहीं हुआ; पर जो स्वर्ग के राज्य में छोटे से छोटा है वह उस से बड़ा है” (मत्ती ११:११)। कितनी बड़ी बात! यहूदिया में रहने वाले सभी लोगों पर बपतिस्मा देने वाले यूहन्ना का गहरा प्रभाव पड़ा था। उसके द्वारा निर्भयता पूर्वक किये गये प्रचार के फलस्वरूप बहुतों ने अपने पापों से पश्चाताप किया और बपतिस्मा ली। फिर भी यूहन्ना यह जानता था कि वह तो उसके पीछे आने वाले के लिये सिर्फ मार्ग तैयार कर रहा था। वह तो लोगों को सिर्फ आने वाले समय के लिये तैयार कर सकता था, पर वह स्वयं नया जीवन नहीं दे सकता था। उसका बपतिस्मा सिर्फ पानी का था, पर आग या पवित्र आत्मा से नहीं। इससे भी और महान् अभी आना बाकी था।

सामरिया में कुंए के पास उस स्त्री ने यीशु से पूछा, “हमारे पिता याकुब जिसने हमें यह कुंआ दिया”, उसकी तुलना में क्या यीशु महान् थे। हां, वह महान् थे। जो पानी देने के लिये वह आये थे, वह पानी याकुब के पानी से भिन्न और श्रेष्ठ था। यह परमेश्वर के पूर्णतया नयी व्यवस्था का पानी था।

यहूदियों ने यीशु से पूछा, “क्या आप हमारे पिता अब्राहम से महान् हैं ”? उनका उत्तर था, “अब्राहम के पहले मैं हूं”। अब्राहम एक महान व्यक्ति था, आज भी संसार के तीन धर्म उसे स्वीकार करते हैं । पर यीशु सर्वथा ऊंचे स्थान पर थे।

झूठे चिह्न

अब हम अपने विषय के नकारात्मक पक्ष की ओर मुड़ेंगे और झूठे एवं धोखा देने वाले चिह्नों से सम्बन्धित खतरों पर विचार करेंगे।

यदि आप किसी अनजान शहर में जाते हैं और वहां कोई संकेत (चिह्न) नहीं मिलता है तो आपको अपना मार्ग ढूंढ़ने में बहुत कठिनाई होगी। दूसरी तरफ यदि वहां सैकड़ों संकेत (चिह्न) हों जो किसी दिशा की ओर संकेत न करते हों या गलत दिशा की ओर संकेत करते हों तो यह और कठिन स्थिति होगी।

आत्माओं को पूजने वाले, बौद्ध धर्मावलम्बी, मुसलमान, ओझा, शमन और बहुत दूसरे लोग, सब विभिन्न प्रकार के आश्चर्य कर्म करते हैं । जाहिर है, चिह्न और आश्चर्य कर्म करने के लिये सिर्फ यीशु के अनुयायियों को एकाधिकार नहीं दिया गया है।

झूठे चिह्नों के विषय में धर्मशास्त्र में स्पष्ट लिखा है। फिरौन के सामने मूसा के द्वारा किये गये प्रथम तीनों चिह्न मिश्र के जादूगरों ने भी करके दिखा दिया था। जब हारून ने अपना डण्डा जमीन पर फेंका और वह सर्प बन गया, तो मिश्र के जादूगरों ने भी वैसा ही किया। जब मूसा ने पानी को लहू में परिवर्तन किया तो मिश्र के जादूगरों ने भी वैसा ही कर दिखाया। जब मूसा और हारून ने मेढ़को को पानी से बाहर ला दिया तो मिश्र के जादूगरों ने इसको भी दुहराया।

इन तीनों अन्तिम उद्धरणों में विषय वस्तु समान है। वे सब युग के अन्त की ओर आगे देखते हैं । वे सब वर्तमान के लिये हैं । हम सब इनके पूर्ण होने के युग में जी रहे हैं ।

कौन धोखा खायेगा? ये सम्भाव्य लोग कौन हैं? क्या ये अशिक्षित लोग हैं? क्या ये अस्थिर विश्वासी लोग हैं? क्या ये वे लोग हैं जिन्हें अपनी बाइबल का ज्ञान नहीं? इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने आप को धोखा से कैसे बचा सकते हैं?

कुछ लोगों को लगता है कि इसका समाधान है, बाइबल का ज्ञान। यदि किसी को धर्मशास्त्र के तथ्यों का अच्छा ज्ञान है, तो उनका कहना है, वह सुरक्षित है। लेकिन थोड़ा ठहरें। यहोवा साक्षी के विषय में क्या कहेंगे? वे और उनके जैसे और लोग भी बाइबल अध्ययन और शिक्षा में बहुत समय लगाते हैं । उनका मानना है कि सिर्फ वे ही बाइबल के सच्चे अनुयायी हैं । या तो वे धोखा में हैं या फिर और सब। बाइबल अध्ययन और शिक्षा बहुमूल्य हो सकते हैं पर यह धोखा से सुरक्षा देते हैं यह आवश्यक नहीं।

मैं कुछ ऐसे सच्चे विश्वासियों को जानता हूं जिन्हें धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञान था पर वे गहरे धोखा में पड़ गये। वे कुछ ऐसे तथाकथित विश्वासियों से मिले जिनकी शिक्षा इनके समान थी और ऐसा लगता था कि इनके पास परमेश्वर का सामर्थ्य था। चिह्न और आश्चर्य कर्म हो रहे थे। बाहर से सब बहुत अच्छा दिखता था पर वास्तव में वे झूठे भविष्यवक्ता थे। वे भेड़ की खाल में भेड़िये थे।

नये नियम के समय में फरिसी लोग बाइबल के विद्यार्थी और शिक्षक थे। उन्हें धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञान था पर यह उन्हें भूल करने से बचा नहीं सकता था। यह उन्हें सत्यता से दूर अवश्य रखता था। जब लोग यीशु की ओर फिरने लगे तो फरिसियों ने कहा, “फरीसियों ने उन को उत्तर दिया, क्या तुम भी भरमाए गए हो? क्या सरदारों या फरीसियों में से किसी ने भी उस पर विश्वास किया है? परन्तु ये लोग जो व्यवस्था नहीं जानते, श्रापित हैं” (यूहन्ना ७:४७-४९)। इस भयंकर सत्यता की ओर देखें। फरिसियो के विचार में, लोग यीशु के द्वारा भरमाए जा रहे थे, क्योंकि उन्हें धर्मशास्त्र का ज्ञान नहीं था।

बड़ी दुःखद बात है कि आजकल भी प्रायः ऐसा ही होता है। धर्मशास्त्र का ज्ञान लोगों को भूल करने से नहीं वरन् सत्यता से दूर रखता है। अधिकांश जिसे लोग ठोस शिक्षा कहते हैं, वह वास्तव में लोगों को उस समूह, झुण्ड या सम्प्रदाय में बंधे रहने का एक उपाय है जिसके द्वारा वह शिक्षा दी जाती है।

दूसरे लोग यह विश्वास करते हैं कि बड़ी संख्या में सुरक्षा है। व्यक्ति या छोटे झुण्ड गलत मार्ग पर जा सकते हैं, लेकिन बड़े झुण्ड के साथ संगति करने से हम सुरक्षित रहेंगे। मण्डली के इतिहास का छोटे से अध्ययन करने पर ही हमें ज्ञात होता है कि ऐसा नहीं है। छोटे समूह से लेकर लाखों सदस्य वाले झुण्ड भी गम्भीर भ्रम में पड़े हैं । इतिहास का सबसे बड़ा कृश्चियन समूह अपने विरोधियों की आम हत्या करने का दोषी रहा है। छोटे और बड़े, दोनों समूहों ने अनूठी शिक्षाओं पर विश्वास किया है और हर तरह के अनूठे काम किये हैं । कुछ ने तो अपने आप को बहुत बड़ा मूर्ख भी बनाया है। औरों ने बहुत ही गम्भीर आत्मिक और शारीरिक हानी पहुंचाई है। जैसा कि हम जानते हैं, कुछ अतिवादी समूहों ने आम आत्म हत्या कर अपना अन्त किया है।

प्रथम पुराने लोग जिनका विश्वास था कि बड़ी संख्या में सुरक्षा है, उन्होंने बाबुल का धरहरा निर्माण किया। उन्होंने विचार किया कि यदि उन्होंने अपना नाम स्थापित किया और अपने चारों ओर दीवार खड़ी कर ली तो सबकुछ ठीक हो जाएगा। उसके बाद बहुत लोगों ने उनका तरीका अपनाया है।

बाइबल अध्ययन करना अच्छा है और दूसरे विश्वासियों के साथ गहरी संगति करना भी अच्छा है, पर इनमें से कोई भी परमेश्वर का दिया आशीष हमें धोखा से बचाने की निश्चयता नहीं दिलाता।

यीशु ने कहा, जैसे पहले उद्धृत किया जा चुका है, झूठे मसीह और झूठे भविष्यवक्ता आयेंगे और बड़े बड़े चिह्न और आश्चर्य कर्म करेंगे - यदि सम्भव होता तो- चुने हुए लोगों को भी भ्रम में डालेंगे। इस भ्रम से हम कैसे बचेंगे? यूहन्ना, जिस पद को मैंने उद्धृत किया है, कहते हैं, कैसे लोग भ्रम में पड़ेंगे। ये वे लोग हैं जो पृथ्वी पर रहते हैं । ऐसे लोग नहीं जो शरीर अनुसार पृथ्वी पर रहते हैं, पर वे लोग जो आत्मिक रूप से पृथ्वी पर रहते हैं । ऐसे लोग निकोदिमस जैसे हैं, जो यीशु के द्वारा किये गये चिह्नों को तो देखते हैं पर परमेश्वर के राज्य को नहीं। शारीरिक आंखें चिह्न और आश्चर्य कर्म तो देखते हैं पर उसके आगे नहीं। वे उन बड़ी चीजों की ओर नहीं देख सकते जिनकी ओर ये संकेत करते हैं ।

यीशु ने दो बार फरीसियो से कहा था, “इस युग के बुरे और व्यभिचारी लोग चिन्ह ढूंढ़ते हैं” (मत्ती १२:३९ और १६: ४)। यदि हम सिर्फ चिह्नों को देखते हैं तो हम धोखा को निमन्त्रण देते हैं । हम उन दुष्ट और व्यभिचारी लोगों में से ही हैं । यहां यीशु ने व्यभिचारी शब्द का उपयोग उसी प्रकार किया जैसा धर्मशास्त्र में हर जगह किया गया है। जब परमेश्वर के लोग उनकी आराधना करना छोड़कर मूर्ति पूजा करना आरम्भ करते हैं तब वे व्यभिचार करते हैं । परमेश्वर की इच्छा है कि हम उन्हें आत्मा और सत्यता में पूजें। जब हम इस अदृश्य परमेश्वर को छोड़कर किसी दृश्य वस्तु की ओर मुड़ते हैं, तो हम मूर्तियों की ओर मुड़ते हैं और आत्मिक व्यभिचार करते हैं ।

सुरक्षा का स्थान वही है जो यीशु हमारे लिये तैयार करने गये हैं । जब हम ऐसे व्यक्ति बन जायेंगे जो स्वर्ग में वास करते हैं, उनके साथ बिठाये गये हैं, तो हम ऐसी जगह पर हैं जहां हम धोखा नहीं खायेंगे।

तिमोथी को लिखे गये पौलुस के ये शब्द, जब इनको आत्मिक रूप से समझा जाता है, इसी सत्यता को निश्चित करते है, “और आदम बहकाया न गया, पर स्त्री बहकाने में आकर अपराधिनी हुई” (१ तिमोथी २:१४)। यहां भी शारीरिक स्त्री नहीं, पर आत्मिक स्त्री! धर्मशास्त्र में पुरुष आत्मा का और स्त्री शरीर का प्रतिनिधित्व करते हैं । जब तक हम शरीर में जीते हैं, हमारे विचार प्राकृतिक स्तर पर नियन्त्रित और सिमित रहते हैं और हम भ्रम मे पड सकते हैं । जैसे ही हमारे मन परमेश्वर के आत्मा के द्वारा नये किये जाते हैं, हम सुरक्षित हो जाते हैं ।

सारांश

चिह्न और आश्चर्य कर्म और अलौकिक काम आजकल विश्व व्यापी रूप में मंडलियों और संगतियो में व्याप्त हैं । जो कुछ हो रहा है उससे कुछ लोग उत्साहित हैं, कुछ लोग सावधान हैं और कुछ इसके विरुद्ध हैं ।

चिह्न और आश्चर्य कर्म अपने आप में तटस्थ घटना है। वे महान् आत्मिकता के प्रमाण नहीं हैं । पेन्तिकोस के दिन पवित्र आत्मा का महान् बपतिस्मा पाने से पहले ही चेलों ने बिमारियों को चङ्गा किया था और दुष्ट आत्माओं को निकाला था। अन्य धर्मावलम्बी व्यक्ति और बहुत सारे शक्ति धारकों ने भी ऐसे काम किये हैं ।

जब चिह्न और आश्चर्य कर्म लोगों को परमेश्वर के मन और हृदय की महान् बातों की और संकेत करते हैं तो हम और कुछ नहीं पर खुश और आनन्दित होते हैं । परमेश्वर क्षमा करें कि हम इसके विरोध में बोलें।

जब ये किसी एक व्यक्ति की सेवकाई या संस्था को लाभ पहुंचा रहे हों, या जब लोग इसे अपने लाभ के लिये ढूंढें, तो हमें सावधान रहना चाहिये।

पौलुस ने कलस्सियो की पत्री में लिखा है, “सो जब तुम मसीह के साथ जिलाए गए, तो स्वर्गीय वस्तुओं की खोज में रहो, जहां मसीह वर्तमान है और परमेश्वर के दाहिनी ओर बैठा है। पृथ्वी पर की नहीं परन्तु स्वर्गीय वस्तुओं पर ध्यान लगाओ” (कलस्सी ३:१,२)। जैसा हमने देखा है, चिह्न और आश्चर्य कर्म सांसारिक बातें हैं । यदि हम एक तरफ भ्रम से बचना चाहते हैं और दूसरी तरफ परमेश्वर के साथ आगे बढ़ते रहना चाहते हैं तो हमें पौलुस का सुझाव मान लेना चाहिए।

अनुवादक - डा. पीटर कमलेश्वर सिंह

इस पुस्तक मुद्रण के लिए रंगिन [Colour] फ़ाइल

इस पुस्तक मुद्रण के लिए श्‍याम-स्‍वेत [Black & White] फ़ाइल