मेरा समय

मेरा समय अभी नहीं आया है

काना शहर में एक विवाह के भोज में आश्चर्य कर्म द्वारा अपनी सार्वजनिक सेवकाई का आरम्भ करने से पहले यीशु ने ये शब्द कहे थे।

विवाह के भोज में दाखरस घट जाने पर मरियम ने यीशु से कहा था, “उनके पास दाखरस नहीं रहा”। वह जानती थी कि ऐसे सङ्कट के समय में समाधान की शक्ति और उपाय, दोनों यीशु के पास थे। यीशु ने उत्तर दिया, “हे महिला मुझे तुझ से क्या काम? अभी मेरा समय नहीं आया”।(यूनानी शब्दों का अक्षरस τι εμοι και σοι, γυναι: अर्थ है, “हे महिला, मुझे और तुझे क्या?”)

इन शब्दों ने बाइबल के अर्थविदों को हैरान कर दिया है, क्योंकि इन शब्दों को कहने के तुरत बाद यीशु ने एक बडे आश्चर्यकर्म द्वारा परिस्थिति को सम्भाल लिया था। पहले तो उन्हों ने विवाह के भोज में दाखरस के घट जाने की घटना को अपने या मरियम के लिये महत्त्वहीन करार दिया, लेकिन उसके बाद ही उन्हों ने अपने सार्वजनिक सेवकाई का पहला आश्चर्य कर्म सम्पन्न किया!

मरियम और यीशु के चारों ओर एकत्रित हुए चेलों के लिये यह एक अद्भूत दिन था। यीशु के लिए यह घटना और, हम ऐसा कह सकते हैं, इसके बाद आने वाले तीन वर्षों का अश्चर्यकर्मों से भरपूर सेवकाई, वह जिस काम को पूर्ण करने के लिए वास्तव में आए थे, उसकी तुलना में बहुत ही छोटे थे। जो आश्चर्यकर्म वह करने वाले थे, वह अपने वास्तविक आकार से बडा नहीं दिखे, उनकी इच्छा यही थी। उनके अनुयायियों की नजर में यह महिमित हो सकता था, फिर भी अभी यीशु का समय नहीं आया था, न ही उनकी वास्तविक महिमा। वह समय अभी आना बाकी था।

बहुत वर्षों बाद जब यूहन्ना ने अपने सुसमाचार की पुस्तक लिखी, उसने पिच्छे मुडकर वही चीजें देखीं जिन्हें यीशु ने भविष्य में देखा था। उसने इस अश्चर्यकर्म के साथ साथ यीशु द्वारा किये गये सभी आश्चर्यकर्मों को चिन्ह के रुप में सम्बोधित किया। वे स्वयम् वास्तविकता नहीं थीं, लेकिन महान् चीजों की ओर इशारा करने वाले चिन्ह थे। यीशु के साथ व्यतीत किये गये अपने तीन वर्षों के अनुभव को लेकर वह बडी बडी पस्तकें लिख सकता था, परन्तु ऐसा नहीं कर उसने अपनी पुस्तक के आधे भाग में यीशु के जीवन के अन्तिम सप्ताह में घटित घटनाओं, उनकी मृत्यु और पुनरुत्थान का वर्णन किया है।

यूहन्ना की पुस्तक में उल्लेखित वर्णन के अनुसार बाद में यीशु के भाइयों ने मरियम के समान ही बर्ताव किया। यह सुकोथ अथवा झोपडियों का बडा राष्ट्रीय पर्व का अवसर था। सम्पूर्ण देशी और विदेशी यहूदी इस उत्सव को मनाने यरुशलेम आये थे। यीशु के लिये यह अपने आप को जन समुदाय के सामने प्रकट करने का उपयुक्त समय था। उसके भाइयों ने उस से कहा, “यहां से कूच कर के यहूदिया में चला जा, कि जो काम तू करता है, उन्हें तेरे चेले भी देखें। क्योंकि ऐसा कोई न होगा जो प्रसिद्ध होना चाहे, और छिपकर काम करे: यदि तू यह काम करता है, तो अपने तई जगत पर प्रगट कर”।

यीशु ने फिर कहा, “मेरा समय अभी नहीं आया है”। कुछ दिन और रुकने के बाद वह गुप्त रूप से उस पर्व में सहभागी होने गये। मन्दिर में जन समुदाय के बीच उन्होंने शिक्षा दी। उनके द्वारा बोले गये वचन के कारण कुछ लोग क्रोधित भी हुए, और हम पढते हैं, “इस पर उन्होंने उसे पकड़ना चाहा तौभी किसी ने उस पर हाथ न डाला, क्योंकि उसका समय अब तक न आया था” (यूहन्ना ७:३०) ।

इसके तुरत बाद हम फिर यही शब्द पढते हैं, “किसी ने उसे न पकड़ा; क्योंकि उसका समय अब तक नहीं आया था” (यूहन्ना ८:२०)। अब हम यह समझ सकते हैं कि ‘मेरा समय’ से उसका क्या तात्पर्य था। उसके कहने का अर्थ था उसकी ‘मृत्यु का समय’।

अपनी मृत्यु के चार दिन पूर्व यीशु ने गधे पर सवार होकर बडे धुमधाम के साथ यरुशलेम शहर में प्रवेश किया था। हर्षित भीड जानती थी कि वह उनके आने वाले राजा के रुप में जकरियाह की भविष्यवाणी पूर्ण कर रहा था। यह राज्याभिषेक जैसा ही था। अन्त में ऐसा एहसास हो रहा था कि उनका समय आ पहुँचा था। वास्तव में यह एक महान् घडी थी। लेकिन ऐसा नहीं था।

समय आ गया है

अन्त में जब उनकी सार्वजनिक सेवकाई समाप्त हो गयी और मृत्यु अवश्यम्भावी था, तब यीशु ने ये शब्द कहे थे, “वह समय आ गया है, कि मनुष्य के पुत्र की महिमा हो”। और उसने आगे प्रार्थना किया, “जब मेरा जी व्याकुल हो रहा है। इसलिये अब मैं क्या कहूं? हे पिता, मुझे इस घड़ी से बचा? परन्तु मैं इसी कारण इस घड़ी को पहुंचा हूं। हे पिता अपने नाम की महिमा कर” (यूहन्ना १२:२३, २७-२८)।

अपने अन्तिम फसह के भोज के अवसर पर भी यीशु ने अपने चेलों को ऐसे ही शब्द कहे थे। हम पढते हैं, “फसह के पर्व से पहिले जब यीशु ने जान लिया, कि मेरी वह घड़ी आ पहुंची है कि जगत छोड़कर पिता के पास जाऊं” (यूहन्ना १३:१), और बाद में उसी शाम उसने अपनी अन्तिम महान् प्रार्थना इन शब्दों में आरम्भ किया, “हे पिता, वह घड़ी आ पहुंची, अपने पुत्र की महिमा कर, कि पुत्र भी तेरी महिमा करे ”(यूहन्ना १७:१)।

उसकी मृत्यु का समय ही उसकी महिमा का समय था!

इस विश्व के महान् हस्तियों से यीशु एकदम अलग थे। जब कोई राष्ट्रपति या प्रधान मन्त्री अपने देश के सर्वोच्च पद की शपथ लेता है तो वह समय उसके जीवन की विशेष और अद्भूत घडी होती है। उसका समय आ गया होता है। सम्पूर्ण विश्व की नजर उन्हीं की ओर होती है। चार या पाँच वर्षों का कार्य-काल समाप्त होने के बाद वे विश्व की नजर से गायब हो जाते हैं। उनका काम समाप्त हो जाता है। बीस या पचीस वर्षों का बाद जब उनकी मृत्यु हो जाती है, तब सिर्फ उनका नाम ही इतिहास में बाकी रह जाता है। उनका समाचार पत्रों में या टेलीभीजन में मुख्य समाचार बनना बर्षों पहले रुक गया होता है।

यीशु के लिये उनकी महिमा का समय सन्सार की मान्यताओं के एकदम विपरीत था। उनकी एक साधारण अपराधी की तरह ३३ बर्ष के अल्पायु में दु:खद मृत्यु हुई, उनके सभी अनुयायी उन्हें अकेला छोड गये थे और उनका मिसन असफल हो गया था।

लेकिन यीशु ने अन्धकार से परिपूर्ण उस समय में विश्व के सभी महापुरुषों द्वारा हासिल किये गये सभी चिजों से भी अधिक हासिल कर लिया था, जो शारीरिक आँखों से देखा नहीं जा सकता था। यीशु ने अन्धकार की सारी शक्तियों का सामना करके उनपर विजय पा लिया था। उनके जीवन का वह असहनीय पीडा सम्पूर्ण मानव जाति के लिये अतुलनीय आशिष ले आया था। अनन्त के उस महान् घडी में उन्होंने सभी कष्टों को आनन्द में बदल डाला था, सभी रोगों को स्वास्थ्य में, सभी घृणा को प्रेम में, सभी अन्धकार को ज्योति में और सभी मृत्यु को जीवन में बदल दिया था। उन्हों ने सम्पूर्ण सृष्टी का भविष्य बदल कर इसे सडन के दासता से मुक्त कर दिया था।

अन्य में जब हमारी आँखें खुलेंगी और हम सभी चीजों को उनके वास्तविक स्वरुप में देखेंगे तब हम परमेश्वर की स्तुति करेंगे और जानेंगे कि उन्होंने यीशु की अन्तिम प्रार्थना का उत्तर दे दिया है, “हे पिता, वह घड़ी आ पहुंची, अपने पुत्र की महिमा कर, कि पुत्र भी तेरी महिमा करे”