यहोवा के साक्षी

और

यीशु के साक्षी

प्राचीन और आधुनिक


प्राचीन यहोवा के साक्षी

मेरे पूर्वज यहोवा के साक्षी थे! यशायाह अगमवक्ता द्वारा परमेश्वर ने उनसे तीन बार बातें कीं:

इस प्रकार वे यहोवा के साक्षी बन गये!

(आरम्भिक हिब्रू नाम में केवल चार अक्षर थे - यहवह, जिसमें कोई स्वर अर्थात् ईकार, आकार ईत्यादि नहीं था। बहुत वर्षों के बाद इसमें स्वरों को जोड़ा गया और य को बदल कर ज किया गया ताकि अंग्रेजी शब्द जेहोवा - हिन्दी यहोवा बनाया जा सके।)

यशायाह नबी के समय के ७०० वर्ष बाद यीशु ने इस संसार में जन्म लिया, जीवन व्यतीत किया, मारे गये और मृतकों में से जी उठे। अपने स्वर्गारोहण के वक्त इस संसार से विदा लेने से पहले अपने चेलों को कहे गये उनके अन्तिम शब्द थे, “तुम मेरे गवाह होगे” (प्रेरित १:८)। चेलों को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था! क्या यीशु यहोवा के कहे शब्द दुहरा रहे थे? पिछले ७ शताब्दियों तक सारे यहूदी यहोवा के साक्षी रहे थे। क्या यीशु यहोवा का स्थान ले रहे थे?

इसके बाद चेलों ने क्या किया? क्या उन्होंने यशायाह द्वारा बोले गये वचन के अनुसार यहोवा के साक्षी बने रहे? या उन्होंने यीशु की आज्ञा का पालन किया और उनके साक्षी बने? हम इस प्रश्न पर फिर लौटेंगे, लेकिन पहले हम यीशु के विषय में विचार करेंगे।

क्या यीशु यहोवा के साक्षी थे?

क्या यीशु यहोवा के साक्षी थे?

उन्होंने अपने पिता के नाम के विषय में बातें की। उन्होंने चेलों को इस प्रकार प्रार्थना करना सिखाया, “आपका नाम पवित्र माना जाये”। अपने पिता को की गयी उनकी आखिरी प्रार्थना में उन्होंने कहा, “मैं ने तेरा नाम उन मनुष्यों पर प्रगट किया” और “ मैं ने तेरा नाम उन को बताया और बताता रहूंगा” (यूहन्ना १७:६, २६)।

इससे ऐसा लगता है कि यीशु सबों को बता रहे थे कि परमेश्वर का नाम क्या था, पर इसका अर्थ क्या यही है? कृपया मत्ती, मर्कुस, लुका और यूहन्ना की पुस्तकें पढ़े। क्या यीशु ने अपनी सभी शिक्षाओं के क्रम में कभी भी लोगों को यह बात कही कि उनके पिता का नाम यहोवा था? ये चार हिब्रू अक्षर - यहवह- जिनसे यहोवा शब्द बना था, उनके धर्मशास्त्र के प्रत्येक पृष्ठ पर पाये जाते थे।

अतः “परमेश्वर का नाम बताने” और “परमेश्वर का नाम प्रगट करने” से यीशु का मकसद क्या था? परमेश्वर का नाम सिर्फ चार अक्षरों - यहवह - में सीमित नहीं था। यह उनका स्वभाव और उनका चरित्र दर्शाता था। यीशु ने परमेश्वर का चरित्र प्रगट किया। जो कुछ यीशु ने कहा और किया, सब परमेश्वर के स्वभाव को प्रगट करता था। उनका जन्म, उनका जीवन, उनकी शिक्षा, उनकी मृत्यु और उनका पुनरुत्थान, सब परमेश्वर को दर्शाते थे। यीशु ने, “शरीर मे परमेश्वर को प्रगट” किया था” (१तिमु ३:१६)। इस प्रकार उन्होंने परमेश्वर के नाम को बताया और प्रगट किया।

क्या पतरस और पौलुस यहोवा के साक्षी थे?

पतरस और पौलुस के विषय में क्या कहेंगे? क्या वे यहोवा के साक्षी थे? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने के लिये हमें प्रेरितों के काम और पतरस तथा पौलुस के पत्रों को पढ़ना आवश्यक है। क्या पतरस ने लोगों को कभी यहवह के विषय में बताया? यहवह शब्द हमें एक बार भी पतरस की शिक्षाओं और उसके पत्रों में नहीं मिलता। यहां तक कि उसने अपने प्रवचनों में पुराने नियम से उद्धृत करते समय भी यहूदी प्रचलन का पालन करते हुए कभी भी परमेश्वर के नाम का उच्चारण तक नहीं किया।

तो क्या पतरस यूशु का साक्षी था? आइये देखें कि उसने क्या कहाः

“और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों ४:१२)। विशेषकर अन्तिम पद को फिर से देखें:

“और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों ४:१२)

यहवह के नाम के विषय में क्या कहेंगे? क्या परमेश्वर ने स्वयं इस नाम को मूसा के सामने प्रगट नहीं किया था? क्या यीशु का नाम परमेश्वर के नाम से अधिक महत्त्वपूर्ण था? अथवा क्या पतरस को धर्मशास्त्र का ज्ञान नहीं था?

यदि पतरस को धर्मशास्त्र का ज्ञान नहीं था ऐसा मान भी लें तो भी पौलुस को तो पूर्ण ज्ञान था। पौलुस ने कितनी बार यहवह के नाम के विषय में बातें कीं? वह भी पतरस जैसा ही था। उसके प्रवचन या पत्रों में एक बार भी यहवह का उल्लेख नहीं मिलता। यीशु के नाम के विषय में उसने क्या कहा? “इस कारण परमेश्वर ने उसको अति महान भी किया, और उसको वह नाम दिया जो सब नामों में श्रेष्ठ है। कि जो स्वर्ग में और पृथ्वी पर और जो पृथ्वी के नीचे है; वे सब यीशु के नाम पर घुटना टेकें” (फिलिपियो २:९-१०)।

पतरस और पौलुस, उस समय से लेकर आज तक बहुत सारे विश्वासियो की तरह, वे भी यहोवा के साक्षी नहीं थे। वे सम्पूर्ण हृदय से “यीशु के साक्षी” थे।

यहोवा के नाम का क्या हुआ?

तो फिर यहवह के नाम का क्या हुआ? पूरे नये नियम में क्यों यह शब्द एक बार भी नहीं मिलता? इसका एक साधारण, पर विशेष कारण हैः ग्रीक भाषा - जिस भाषा में नया नियम लिखा गया है- इसमें य, ह और व या भ अक्षर नहीं हैं। हिब्रू भाषा की तरह अंग्रेजी भाषा में ये सभी अक्षर हैं। बहुत सी दूसरी भाषाएं, जैसा कि फ्रेंच में भी इन अक्षरों द्वारा उच्चारण होने वाली आवाज उपलब्ध नहीं है। इस लिये जब नया नियम लिखने का समय आया तो एक समस्या सामने आयी। ग्रीक भाषा में परमेश्वर का नाम लिखना असम्भव था! तो क्या परमेश्वर के सामने समस्या कोई चीज है? बिलकुल नहीं! स्वर्ग और पृथ्वी के सृष्टिकर्ता ने ग्रीक भाषा भी बनायी है!

तो हम इसे किस प्रकार समझेंगे? आइये हम फिर से निर्गमन के ३ अध्याय को देखें जहां परमेश्वर ने मूसा को अपना नाम “यहवह” प्रगट किया था। परमेश्वर ने मूसा को इस प्रकार अपना परिचय दिया था, “इब्राहीम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर, और याकूब का परमेश्वर हूं” (निर्गमन ३:६)। मूसा का पालन पोषण मिश्र देश में हुआ था जहां अनगिनत देवी देवता होते थे। गोलमाल से बचने के लिये प्रत्येक देवी देवता का अलग अलग नाम होता था। बिना नाम के लोगों को कैसे पता चलता कि वे किसे पूज रहे हैं? इसी लिये मूसा ने भी परमेश्वर को अन्य देवी देवताओं की श्रेणी में रखकर यह प्रश्न पूछा था कि उनका नाम क्या था? उनका प्रश्न था, “मूसा ने परमेश्वर से कहा, जब मैं इस्राएलियों के पास जा कर उन से यह कहूं, कि तुम्हारे पितरों के परमेश्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, तब यदि वे मुझ से पूछें, कि उसका क्या नाम है? तब मैं उन को क्या बताऊं?” (निर्गमन ३:१३)

परमेश्वर ने मूसा को इस प्रश्न का सीधा जबाब नहीं दिया। उनका उत्तर था, “मैं जो हूं सो हूं”। पर ऐसा कोई नाम नहीं होता। वास्तव में मुझे ऐसा लगता है कि यह नाम बताने से इंकार करने जैसा ही है। इसके बाद लगता है, परमेश्वर ने मूसा की परिस्थिति और उस समय के अज्ञान अवस्था को सहूलियत देते हुए मूसा को यहवह नाम उपयोग करने की स्वीकृति दे दी। ये चार अक्षर हिब्रू भाषा के (एहे) हैं, जिसका अर्थ होता है “हूं”। वास्तव में एक मात्र सत्य परमेश्वर का कोई नाम नहीं है। दूसरी बात, स्वर्ग में या पृथ्वी पर ऐसा कौन है जो परमेश्वर का नाम लेकर उन्हें सम्बोधित कर सकता है? अन्य सभी पुत्रों के समान ही उनके अपने पुत्र ने उन्हें “पिता” कहकर सम्बोधित किया।

इस विषय के सम्बन्ध में अधिक जानकारी लिये देखें परमेश्वर का नाम और यीशु का नाम

इसके बाद फिर क्या हुआ?

मेरे पूर्वजों ने क्या किया? बड़े दुख की बात है बहुसंख्यकों ने यीशु को स्वीकार नहीं किया। उनकी शिक्षाओं को उन्होंने ईश्वर निन्दा समझा। कोई भी मनुष्य कैसे अपने आप को परमेश्वर के समकक्ष बना सकता है? अतः वे “यहोवा के साक्षी” बने रहे। बहुत कम संख्या में लोगों ने यीशु को स्वीकार किया और “यीशु के साक्षी” बन गये।

यीशु द्वारा कही बातें और यशायाह नबी द्वारा परमेश्वर की बातों में एक बड़ा फर्क थाः यीशु ने अपने चेलों से कहा था, “जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ पाओगे; और मेरे गवाह होगे”। आश्चर्यजनक रूप से ये बातें पूरी हुईं। इन साक्षियों के ऊपर पवित्र आत्मा आये और उन्हें सामर्थ मिला। जहां जहां वे गये, चिह्न और आश्चर्य कर्म हुए और उन्होंने सम्पूर्ण रोमी साम्राज्य में यीशु के नाम का प्रचार किया।

यीशु की बातों के विपरीत यशायाह की बातों में पवित्र आत्मा और सामर्थ का कोई उल्लेख नहीं था। इसके फलस्वरूप पुराने “यहोवा के साक्षी” (अर्थात् यहूदी) यहवह के अच्छे साक्षी बनने में असफल रहे। उन्होंने पवित्र आत्मा नहीं पाया था और उनमें सामर्थ का अभाव था। जब यीशु, “विश्वास योग्य और सत्य” साक्षी इस संसार में आये तब अधिकांश यहूदियों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और यीशु के साक्षियों को सताने लगे। रोमी अधिकारी भी इन्हें सताने लगे और बहुतों ने अपने विश्वास को बचाये रखने के लिये अपने प्राणों की बलि दी।

इसके कुछ सदियों के बाद रोमी सम्राट कौन्सटेनटाइन ने अपने जीवन में कुछ परिवर्तन अनुभव करने के बाद क्रिश्चियन धर्म स्वीकार किया। उसने क्रिश्चियन धर्म को रोमी साम्राज्य का राष्ट्रीय धर्म बना दिया और यीशु के साक्षियो का प्रत्यक्ष सतावट रुक गया। सदियां बीतती गयी और मण्डली क्रमिक रूप से भ्रष्ट होती गयी। झूठे “यीशु के साक्षियों” ने नियन्त्रण अपने हाथों में ले लिया और पुराने “यहोवा के साक्षियों” तथा नये पर सच्चे “यीशु के साक्षियों” को सताना आरम्भ कर दिया। सदियों तक बुरी तरह खून बहता रहा और यह कहना कठिन है कि किसे अत्यधिक हानि हुई। अनगिनत यहूदियों को बपतिस्मा लेने, देश- निकाला या मृत्यु वरण करने को कहा गया। लाखों यीशु के सच्चे साक्षियों को असह्य शारीरिक पीड़ा देने के बाद मार दिया गया। प्रकाश की पुस्तक में हमें इन घटनाओं के विषय में अगमवाणी मिलते हैं: “भेद – बड़ा बाबुल पृथ्वी की वेश्याओं और घृणित वस्तुओं की माता। और मैं ने उस स्त्री को पवित्र लोगों के लोहू और यीशु के गवाहों के लोहू पीने से मतवाली देखा” (प्रकाश १७:५,६)। बाबुल यीशु के झूठे साक्षियों एवं झूठी मण्डली को दर्शाता है।

आधुनिक “यहोवा के साक्षी”

हमारे लिये उस आधुनिक धार्मिक सम्प्रदाय के विषय में विचार करना आवश्यक है जो अपने आप को “यहोवा के साक्षी” कहते हैं। इस सम्प्रदाय को १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध में चार्ल्स तेज रस्सेल ने स्थापित किया था। उसने बाइबल का अध्ययन किया और उस समय के विभिन्न मण्डली और सम्प्रदाय की शिक्षाओं और प्रचलन का अवलोकन किया, और उनमें बहुत सी गलतियां पायीं। वह और उसके अनुयायी यह सोचने लगे कि उन्हें और सिर्फ उन्हें ही सत्यता मिली है। बाकी जितने मण्डली और धर्म प्रचलित थे, सब उन्हें “बेबीलोन” दिखता था, और कुछ हद तक उनका सोचना ठीक भी था। यशायाह नबी की पुस्तक में उन्होंने उन पदों को देखा, जहां लिखा है, “तुम मेरे साक्षी हो”, यहोवा कहता है, और यह कथन उनके विश्वास के अनुकूल था क्योंकि वे समझते थे वे ही सत्य के एक मात्र साक्षी थे। इसी लिये उन्होंने अपने लिये “यहोवा के साक्षी” नाम को अपनाया। वे अभी अधिकांश देशों में फैल चुके हैं और उनकी संख्या करीब ८० लाख है।

“यहोवा के साक्षी” यह मानते हैं कि सिर्फ वे ही ठीक हैं और सिर्फ वे ही सत्य जानते हैं। वे यह शिक्षा देते हैं कि अन्य सभी धर्म, यहां तक कि सभी क्रिश्चियन धर्मावलम्बी भी शैतान के अधीन हैं। अपनी शिक्षा को वे “एक मात्र सत्य” की संज्ञा देते हैं। यीशु ने कहा, “मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता।” यहोवा के साक्षी कहते हैं, “हमारे पास सत्यता है, हमारे बिना कोई भी परमेश्वर के पास नहीं जा सकता”। किसका कहना ठीक है? यहोवा के साक्षी या यीशु? यदि यहोवा के साक्षी ठीक हैं तो मैं गलत हूं, आप गलत हैं (यदि आप भी यहोवा के साक्षी नहीं हैं तो!), और लाखों लोग जिन्होंने यीशु पर विश्वास किया है, उनका विश्वास भी व्यर्थ है। उनका मानना है कि वे परमेश्वर के विश्वास योग्य सेवक हैं और बाकी हम सब शैतान के नियन्त्रण में हैं। यदि आप यीशु मसीह के द्वारा पिता के पास आये हैं और अपने जीवन मे उनका प्रेम और उनकी शक्ति को अनुभव किया है तो अपने अनुभव के कारण ही आप यह जानते हैं कि “यहोवा के साक्षियों” का ऐसा दावा करना पूरी तरह झूठ है।

“यहोवा के साक्षी” पुरातन पन्थी क्रिश्चियनो के कुछ बड़े और बहुत सी छोटी छोटी शिक्षाओं के सम्बन्ध में अलग विश्वास रखते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यीशु, पवित्र आत्मा, मुक्ति और मृत्यु के बाद जीवन के सम्बन्ध में उनकी शिक्षा बिलकुल अलग है। मेरा मानना है कि उनकी कुछ शिक्षायें ठीक हैं। इसी तरह मेरा मानना है कि उनकी कुछ शिक्षायें निश्चय ही गम्भीर रूप से त्रुटि पूर्ण हैं। बहुत सी पुस्तकों और वेब साइट पर इन अंतरों को दिखाया गया है, इस लिये मैं यहां उनका जिक्र नहीं करूंगा।

साक्षी क्या होता है?

अब हम एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर आते हैं: साक्षी क्या होता है? अपने प्रथम पत्र मे प्रेरित यूहन्ना ने हमे इस प्रश्न का बहुत ही अच्छा उत्तर दिया हैः “उस जीवन के वचन के विषय में जो आदि से था, जिसे हम ने सुना, और जिसे अपनी आंखों से देखा, वरन जिसे हम ने ध्यान से देखा; और हाथों से छूआ, —जो कुछ हम ने देखा और सुना है उसका समाचार तुम्हें भी देते हैं, इसलिये कि तुम भी हमारे साथ सहभागी हो; और हमारी यह सहभागिता पिता के साथ, और उसके पुत्र यीशु मसीह के साथ है।” (१ यूहन्ना १:१, ३)। साक्षी का सार यही है कि जो कुछ हम अपनी आंखों से देखा है और अपने कानों से सुना है, उसकी घोषणा करना।

हमने विभिन्न प्रकार के साक्षियों के विषय में बातें की हैं। इन साक्षियों ने क्या देखा और सुना था? हम देखेंगे कि कुछ लोगों ने अपनी शारीरिक आंखों से सांसारिक चीजें देखी थीं। औरों ने आत्मिक आंखों से स्वर्ग की चीजों को देखा था। और कुछ लोगों ने तो, ऐसा लगता है कि, कुछ भी नहीं देखा था। हम एक एक करके इन में से प्रत्येक के विषय में विचार करेंगे।

प्राचीन यहोवा के साक्षी

पहली बात, यहोवा के प्राचीन साक्षी, यहूदी लोगः उन्होंने क्या देखा और सुना था? वे किस बात की साक्षी बन सकते थे? उनका एक अलग इतिहास चला आ रहा है, जो उनके पूर्वज इब्राहिम के जन्म से आरम्भ होकर वर्तमान समय तक कायम है और जो पृथ्वी के अन्य सभी जातियों के इतिहास से बिलकुल अलग है। परमेश्वर, जिन्हें वे यहवह के रूप में जानते हैं, बार बार और प्रत्यक्ष रूप से उनके राष्ट्रीय घटनाओं में हस्तक्षेप किया है। विशिष्ट जाति के रूप में उन्होंने परमेश्वर के हाथों बहुत से काम होते हुए देखा है। उन्हीं ने अनगिनत छुटकारे और आशीषों के साथ साथ कठोर न्याय भी देखा है। उनके धर्मशास्त्र को, जिसमें उनके साथ किये गये परमेश्वर के सम्पूर्ण बर्ताव का वर्णन लिखा गया है, संसार की सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया है।

यहां मैं एक बात पर जोर देना चाहता हूं: परमेश्वर द्वारा किये गये ये सारे काम शारीरिक आंखों से ही देखे जा सकते हैं। आश्चर्य कर्म परमेश्वर द्वारा किये गये अलौकिक काम हैं, लेकिन उन्हें सिर्फ पृथ्वी पर ही देखा जा सकता है। प्राचीन यहूदी समुदाय परमेश्वर के सांसारिक साक्षी थे।

यीशु, विश्वास योग्य और सच्चे साक्षी

प्रकाशित वाक्य ३:१४ में यीशु को “विश्वास योग्य, और सच्चा गवाह” कहा गया है। उन्होंने कहा था, “हम जो जानते हैं, वह कहते हैं, और जिसे हम ने देखा है उस की गवाही देते हैं, और तुम हमारी गवाही ग्रहण नहीं करते” (यूहन्ना ३:११)। वे क्या जानते थे और उन्होंने क्या देखा था? उन्होंने इसका उत्तर यूहन्ना ८:३८ में दिया था, “मैं वही कहता हूं, जो अपने पिता के यहां देखा है”। यीशु परमेश्वर को जानते थे, वे परमेश्वर के यहां से आये थे, और वे परमेश्वर के विषय में बात कर सकते थे। जिस प्रकार हम और आप अपने शारीरिक पिता के विषय में पूरी जानकारी और निश्चयता से बात कर सकते हैं, उसी प्रकार यीशु भी अपने स्वर्गीय पिता के विषय में बात कर सकते थे और गवाही दे सकते थे।

यीशु पूरे इजराइल देश में घुम घुम कर अपनी सेवकाई में जो बड़े बड़े आश्चर्य कर्म देखे थे, उनका वर्णन कर सकते थे। उन्होंने पानी से दाख मद्य बनते देखा था, उनके आदेश से आन्धी शान्त हो गया था, जब वे समुद्र में चले थे तब उनके पैर के नीचे पानी स्थिर/ ठोस हो गया था, सभी प्रकार के रोगी चङ्गे हो गये थे और यहां तक कि मुर्दे भी जी उठे थे। फिर भी ये सारी बातें सांसारिक थीं जो सिर्फ शारीरिक आंखें ही देख सकती थीं।

पर यीशु तो स्वर्गीय गवाह थे।

इस विषय पर अधिक जानकारी के लिये यीशु को समझना देखें।

यीशु के साक्षी

यीशु ने अपने चेलों से कहा था, “जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ पाओगे; और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में, और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे” (प्रेरित १:८)। वे किस प्रकार के गवाह बनने वाले थे? क्या वे अपने पूर्वजों की तरह सांसारिक गवाह बनने वाले थे? अथवा क्या वे यीशु की तरह ही स्वर्गीय साक्षी बनने वाले थे?

अपनी शारीरिक आंखों से उन्होंने आश्चर्य जनक चीजें देखीं थीं। उन्होंने यीशु को पानी से दाख मद्य बनाते देखा था, पानी पर चलते हुए देखा था, रोगियों को चङ्गा करते और मुर्दों को जीवित करते हुए देखा था। उन्हें क्रूस पर चढ़ाए जाने और कब्र में गाड़े जाने के बाद जीवित भी देखा था। उन्होंने अपने कानों से आश्चर्यजनक बातें सुनी थी। उन्होंने यीशु के वचन और उनकी शिक्षाओं को तीन वर्षों तक प्रति दिन सुना था।

क्या उन्होंने अपने जीवन के बाकी वर्ष इन आश्चर्य जनक बातों की गवाही देते हुए व्यतीत किए जो उनकी शारीरिक आंखों ने देखा था और कानों ने सुना था? इस प्रश्न का उत्तर हमें सावधानी पूर्वक ढूंढ़ना पड़ेगा।

“प्रेरितो के काम” के आरम्भ में ही हम यह स्पष्ट विवरण पाते हैं: “इसी यीशु को परमेश्वर ने जिलाया, जिस के हम सब गवाह हैं” (प्रेरित २:३२)। “और प्रेरित बड़ी सामर्थ से प्रभु यीशु के जी उठने की गवाही देते रहे” (प्रेरित ४:३३)। इस आश्चर्यजनक घटना को उन्होंने अपनी शारीरिक आंखों से देखा था और अब अन्य लोगों को बताना आवश्यक था। लेकिन समय व्यतीत होने के साथ साथ बहुत से लोगों ने यीशु पर विश्वास किया जिन्होंने यीशु को कभी भी शरीर में नहीं देखा था।

पौलुस ने यीशु को एक दर्शन में देखा, लेकिन उसने कभी भी यीशु को शरीर में नहीं देखा था। उसने लिखा, “सो अब से हम किसी को शरीर के अनुसार न समझेंगे, और यदि हम ने मसीह को भी शरीर के अनुसार जाना था, तौभी अब से उसको ऐसा नहीं जानेंगे” (२ कोरिन्थियो ५:१६)। तो क्या पौलुस ने दूसरों को वही सिखाया जो उसने बारह प्रेरितों से सिखा था? कदापि नहीं। वास्तव में यह आश्चर्य जनक बात है कि उसने उनके साथ बहुत कम समय व्यतीत किया था। वह उन्हीं बातों का गवाह बना जो उसकी आंखों ने देखी थी और उसके कानों ने सुना था - उसकी शारीरिक आंखें और कान नहीं, बल्कि उसकी आत्मिक आंखें और कान।

यूहन्ना ने, जैसा मैंने कहा है, लिखा, “जो कुछ हम ने देखा और सुना है उसका समाचार तुम्हें भी देते हैं” (१यूहन्ना १:३) और इसके तुरत बाद उसने लिखा, “जो समाचार हम ने उस से सुना, और तुम्हें सुनाते हैं, वह यह है; कि परमेश्वर ज्योति है: और उस में कुछ भी अन्धकार नहीं” (१यूहन्ना १:५)। यूहन्ना ने अपनी आत्मिक आंखों से जो चीजें देखी थी वे यही हैं। क्या पतरस और यूहन्ना ने अपने पत्रों में पहाड़ी उपदेश की शिक्षाओं और उद्धरणों और यीशु द्वारा सिखाये गये दृष्टांतों से भर दिया था? क्या उन्होंने औरों को वही शिक्षा दी जो उनके महान् गुरु ने सिखाया था? नहीं! ऐसा नहीं था। उन्होंने दूसरों को वही बताया जो उन्होंने अपनी खुद की आंखों से देखा था- अपनी आत्मिक आंखों से।

पतरस, पौलुस और यूहन्ना के साथ साथ और चेलों ने निःसंदेह उन्हीं बातों को कहना आरम्भ किया था जो उनकी शारीरिक आंखों ने देखी थी, परन्तु परमेश्वर के साथ लम्बे समय तक सङ्गति करने के बाद जो बातें उनकी आत्मिक आंखों ने देखी थी, उन्हें बताने में वे सक्षम हुए थे। सांसारिक साक्षी से प्रगति करके वे स्वर्गीय साक्षी बन गये थे। वे यीशु के समान हो गये थे।

यहोवा के वर्तमान साक्षी और अन्य लोग

उन बहुत सारे संप्रदायों के विषय में क्या कहेंगे जिनसे वर्तमान क्रिश्चियन धर्म भरा पड़ा है? उन्होंने क्या देखा और सुना है? क्या वे सांसारिक गवाह हैं या स्वर्गीय गवाह हैं? या वे किसी प्रकार का गवाह हैं भी या नहीं?

क्या वे ऐसा कह सकते हैं, “जो कुछ हम ने देखा और सुना है उसका समाचार तुम्हें भी देते हैं, इसलिये कि तुम भी हमारे साथ सहभागी हो; और हमारी यह सहभागिता पिता के साथ, और उसके पुत्र यीशु मसीह के साथ है” (१ यूहन्ना १:३)। या इसके जगह उन्हें ऐसा कहना चाहिए, “हमने अपने शिक्षकों से जो कुछ सिखा है और अपनी पुस्तकों में जो कुछ पढ़ा है वे बातें तुम्हें बताते हैं, क्या तुम हमारे सम्प्रदाय में सम्मिलित होगे? क्या वे यीशु के साथ अपने अनुभव को आपके सामने बता सकते हैं? या सिर्फ इतना बता सकते हैं कि वे बाइबल से किस प्रकार अर्थ ढूंढ़ते हैं?

कृपया मुझे इस बात को दुहराने दीजिए कि असली गवाह वही कहेंगे जो उन्होंने देखा और सुना है, न कि बाइबल अध्ययन या बाइबल स्कूल में उन्होंने क्या सिखा है, न ही मण्डली में उन्हें क्या बताया गया है, और न उन्होंने किताबों में क्या पढ़ा हैः यहां तक कि बाइबल क्या कहती है। ये सारी बातें अपनी जगह बहुमूल्य हैं, लेकिन ये बातें गवाही नहीं हैं। सच्चे गवाह सिर्फ यही बताते हैं जो उन्होंने स्वयं देखा और सुना है।

यीशु ने निकुदेमुस से कहा, “मैं तुझ से सच सच कहता हूं, यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता” (यूहन्ना ३:३)। यीशु के सच्चे गवाह वे ही हैं जिन्होंने नया जन्म पाया है और परमेश्वर के राज्य को देखने में सक्षम हैं। उन्होंने जो देखा और सुना है, दूसरों के सामने घोषणा कर सकते हैं।

सारांश

हमने यीशु के गवाह और यहोवा के गवाह, स्वर्गीय गवाह और सांसारिक गवाह, सच्चे गवाह और झूठे गवाह, प्राचीन गवाह और आधुनिक गवाह और ऐसे गवाह जो वास्तव में गवाह हैं ही नहीं, इनके विषय में विचार किया है। हमने इससे क्या सिखा है?

हमने दो मुख्य विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया हैः हमने “यहवह” के नाम और यीशु के नाम पर विचार किया है और साक्षी शब्द का अर्थ ढूंढ़ने का प्रयास किया है। मूसा ने जब परमेश्वर का नाम पूछा था, तब परमेश्वर ने यह नाम “यहवह” मूसा को बताया था और यह नाम यहूदियों के लिए बहुमूल्य बन गया - इतना बहुमूल्य कि वे इसका उच्चारण ही नहीं करते। आज तक यह ऐसा ही है।

परमेश्वर ने यहूदियों को संसार में उनका गवाह होने के लिये बुलाया, लेकिन वे सिर्फ सांसारिक गवाह बन सके। उन्होंने इजराइल के साम्राज्य को तो देखा, लेकिन वे परमेश्वर के राज्य को नहीं देख सके। उन्हें नया जन्म के विषय में कोई ज्ञान नहीं था। (कुछ विशेष व्यक्ति और नबियों के सिवा) वे पवित्र आत्मा की शक्ति के विषय में भी अनभिज्ञ थे।

जब यीशु, यानि मसीह का आगमन हुआ, तब सब कुछ परिवर्तित हो गया। वे पिता के यहां से आये थे और इस पृथ्वी पर उन्होंने अपना जीवन पिता के साथ निर्बाध रूप से सङ्गति में व्यतीत किया। जब भी उन्होंने पिता को सम्बोधित किया, उन्होंने यूनानी शब्द “पाटेर” या हिब्रू शब्द “अब्बा” का उपयोग किया, इन दोनों शब्दों का अर्थ पिता होता है। “यहवह” नाम पूरी तरह ओझल हो गया। अपनी सारी शिक्षाओं में यीशु ने कभी इसका उल्लेख तक नहीं किया। यहां तक कि पतरस, पौलुस, यूहन्ना या नये नियम के समय के किसी भी लेखक तक ने नहीं किया। यीशु ने अपने अनुयायियों से कहा था कि वे उनके गवाह बनेंगे।

सच्चे गवाह यह कहते हैं कि उन्होंने अपनी आंखों से क्या देखा और अपने कानों से क्या सुना है। अन्य व्यक्तियों से उन्होंने क्या सिखा है या पुस्तकों में क्या पढा है, यह आधिकारिक गवाही नहीं है। न्यायालय में कोई भी दण्डाधिकारी ऐसी गवाही स्वीकार नहीं करेगा।

यीशु के प्रथम अनुयायियों ने यीशु को शारीरिक रूप में देखा था, और अपनी शारीरिक आंखों से यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान को देखा था। जिन बातों को उन्होंने देखा था और सुना था, शीघ्र ही वे उनके शक्तिशाली गवाह बन गये। लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके बाद उन्होंने नया जन्म का अनुभव किया और स्वर्ग के राज्य को देखने लगे। उन्होंने पवित्र आत्मा के बपतिस्मा का भी अनुभव किया और उनकी शक्ति का रहस्य यही था। यीशु के सदृश ही वे भी स्वर्गीय गवाह बन गये।

यीशु के जीवन काल के बाद बहुत सारी बातें बदल गयी हैं। अनगिनत मंडलियां, सम्प्रदाय और धार्मिक शाखायें स्थापित हुई हैं और इनमें अधिकांश यही दावा करते हैं कि सिर्फ वे ही सत्य जानते हैं। लेकिन एक बात में कोई परिवर्तन नहीं है। यीशु के सच्चे गवाह वे ही हैं जिन्होंने नया जन्म पाया है और स्वर्ग के राज्य को देखा है और जो उन्होंने देखा और सुना है उसे दूसरों को बताने के लिये पवित्र आत्मा की शक्ति पायी है।

अनुवादक - डा. पीटर कमलेश्वर सिंह

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