मैं हूं

परिचय

भविष्यवक्ता यहेजकेल और प्रकाशित वाक्य के पुस्तक में यूहन्ना, दोनों ने चार जीवित प्राणियों के दर्शन देखे थे। दोनों ने ही सिंह, बैल, मनुष्य और उड़ते हुए उकाब देखे थे। परमेश्वर के अद्भुत अलौकिक योजना के अनुसार ये चार प्राणी क्रमिक रूप से नया नियम के चार सुसमाचार की पुस्तकों को दर्शाते हैं। मत्ती लिखित यीशु का जीवन चरित्र उन्हें राजा के रूप में चित्रित करता है जो सिंह को दर्शाता है। मर्कुस उन्हें दास के रूप में चित्रित करता है जो बैल का स्वभाव है। लुका ने यीशु को मनुष्य के रूप में चित्रित किया है। यूहन्ना ने उन्हें परमेश्वर के रूप में चित्रित किया है जो आकाश में उड़ते हुए उकाब द्वारा दर्शाया गया है।

यीशु के परस्पर विरोधी दो काम हैं राजा और दास। वह एक दूसरे से अलग परमेश्वर और मनुष्य के स्वभाव को भी एक साथ मिलाते हैं। एक दूसरे से बिलकुल अलग, उनके पहले आये लोगों के मन, उनके बाद जन्मे अधिकांश लोगों के मन और उनके अनुयायियों के मन भी जो परमेश्वर के मन से पूरी तरह अलग मनके थे।

यीशु राजा और दास के साथ साथ परमेश्वर और मनुष्य दोनों हो सकते हैं, यह सांसारिक मन के लिये अविश्वसनीय प्रकाश है। लेकिन इससे भी बढ़कर आश्चर्यचकित कर देने वाला प्रकाश और है जो चार जीवित प्राणि के दर्शन में छुपा है। सिर्फ यीशु ही राजा और दास, मनुष्य और परमेश्वर नहीं हैं, उनके अनुयायी भी ऐसे ही भविष्य के लिये बुलाये गये हैं। वे भी राजा और दास, मनुष्य और उनके अलौकिक स्वभाव में सहभागी होने वाले हैं।

इस विषय पर मैंने विस्तार से चार जीवित प्राणी शीर्षक वाली पुस्तिका में लिखा है। यह लेख इसी पुस्तिका का भाग है और जो लोग “चार जीवित प्राणि” पढ़ चुके हैं, उन्हें यह समझने में आसान होगा। यह लेख चौथे जीवित प्राणी “उड़ते हुए उकाब” पर केन्द्रित है और इसी विषय का व्याख्या करता है। उड़ता हुआ उकाब यीशु को जो शिर हैं, उनके शरीर के सदस्यों के साथ परमेश्वर के रूप में चित्रित करता है।

ईश्वरीय नाम

जलती हुई झाड़ी के पास खड़ा होकर मूसा ने परमेश्वर से यही प्रश्न किया था, “आपका नाम क्या है?” परमेश्वर ने यह कहकर उत्तर दिया था, “मैं जो हूं सो हूं।”। हिब्रू भाषा के ‘मैं हूं’ (אֶהְיֶה (एह्ये)) शब्द से यहवेह (YHWH) नाम आया है। इसलिये यहवेह या यहोवा कहना ‘मैं हूं’ कहना ही है।

विगत और वर्तमान के यहूदियों के लिये “मैं हूं” ईश्वरीय नाम का एक भाग है और अति पवित्र भी। तीसरी आज्ञा कहती है, “तू अपने परमेश्वर का नाम व्यर्थ न लेना; क्योंकि जो यहोवा का नाम व्यर्थ ले वह उसको निर्दोष न ठहराएगा।” कहीं इस आज्ञा का उल्लंघन न हो जाय, इस भय से यहूदी लोग इस नाम का उच्चारण भी नहीं करते। ऊंची आवाज में धर्मशास्त्र का पाठ करते समय वे इसके स्थान पर अदोनाई (प्रभु) या हा-शेम (नाम) शब्द रखकर पढ़ते हैं।

क्या यीशु ने भी इसी प्रचलन का पालन किया? इसका एक ही उत्तर है, जोरदार “ना, उन्होंने ऐसा नहीं किया”। यूहन्ना के सुसमाचार में, जो इस अध्ययन का आधार है, “मैं हूं” शब्द यीशु ने कम से कम २१ बार कहे हैं। २१ “मैं हूं” का जेमेट्रिया है और ३ और ७ का गुणन फल भी, और ये दोनों अंक परमेश्वर से सम्बन्धित हैं।

इस विषय पर और जानकारी के लिये परमेश्वर का नाम और यीशु का नाम देखें।

हम लोग सामान्य बातचीत में हमेशा “मैं हूं” का उपयोग करते हैं। कोई भी परमेश्वर के अर्थ में उपयोग किये बिना यह कह सकता है, “मैं भूखा हूं”, “मैं रमेश हूं”। यीशु ने इन शब्दों को किस प्रकार उपयोग किया, हम लोग और नजदीक से देखेंगे।

कितनी बार उन्होंने “मैं हूं” का उपयोग अपने विषय में अविश्वसनीय दावों की घोषणा करने के लिये की जैसे, “मैं जगत की ज्योति हूं”, “मार्ग, सच्चाई और जीवन मैं ही हूं”। इन दावों के विषय में हम एक एक कर बाद में देखेंगे। कई बार उन्होंने “मैं हूं” का उपयोग अकेले ही किया। यूहन्ना ८:२४ में उन्होंने यहूदियों से कहा, “क्योंकि यदि तुम विश्वास न करोगे कि मैं वहीं हूं, तो अपने पापों में मरोगे।” बाद मे बात चीत के क्रम में ५८ पद में उन्होने कहा, “ मैं तुम से सच सच कहता हूं; कि पहिले इसके कि इब्राहीम उत्पन्न हुआ मैं हूं।” यहूदियों की प्रतिक्रिया कैसी थी? उन्होंने यीशु को मारने के लिये पत्थर उठा लिये थे। उनको लगा था वे परमेश्वर होने का दावा कर रहे थे। यीशु ने स्पष्ट रूप से तीसरी आज्ञा तोड़ी थी और मूसा के व्यवस्था के अनुसार इसकी सजा मौत थी, पत्थरों से मारकर।

इस घटना के तुरत बाद यहूदियों ने फिर यीशु को पत्थर से मारने का प्रयास किया। इसका कारण भी पहले जैसा ही था। उन्होंने अभी अभी कहा था, “मैं और पिता एक हैं।” यहूदियों ने अपनी बात स्पष्ट रखी, “हम तुम्हें इनमें से किसी भी (अच्छे कामों) के लिये नहीं मार रहे,” यहूदियों ने उत्तर दिया, “परन्तु ईश्वर निन्दा के लिये, क्योंकि मनुष्य होकर तुम अपने आप को परमेश्वर बना रहे हो।”

यीशु ने कभी भी सीधा नहीं कहा, “मैं परमेश्वर हूं।” लेकिन उन्होंने ऐसे शब्दों का उपयोग किया जो उनके श्रोताओं के लिये समान अर्थ वाले थे।

हम देख सकते हैं कि यीशु अपने आप को क्या समझते थे। उन्हें अपना परिचय पता था। उन्हें पता था कि पिता के साथ वे एक थे। अभी हमें यह पूछना चाहिये कि वे अपने अनुयायियों को क्या समझते थे। जैसे जैसे हम पढ़ते हैं कि उन्होंने अपने चेलों को और चेलों के विषय में क्या कहा, हम पाते हैं कि उन्होंने चेलों को हमेशा ही अपने समान स्तर पर रखा। उन्होंने कहा, “मैं और पिता एक हैं” (यूहन्ना १०:३०)। इसके कुछ ही देर बाद उन्होने चेलों के लिये प्रार्थना की कि, “जैसा तू हे पिता मुझ में हैं, और मैं तुझ में हूं, वैसे ही वे भी हम में हों, इसलिये कि जगत प्रतीति करे, कि तू ही ने मुझे भेजा” (यूहन्ना १७:२१)।

ईश्वरीय परिवार

यीशु परमेश्वर को अपना पिता समझते थे। उनके अनुयायियों का क्या? क्या परमेश्वर उनके पिता भी थे? उन्होंने चेलों को “हे हमारे पिता” कहकर प्रार्थना करना सिखाया। उन्होंने कहा, “तु मेरे भाइयों के पास जा कर उन से कह दे, कि मैं अपने पिता, और तुम्हारे पिता, और अपने परमेश्वर और तुम्हारे परमेश्वर के पास ऊपर जाता हूं” (यूहन्ना २०:१७)।

यीशु परमेश्वर के पुत्र थे। उनके बपतिस्मा के समय कबूतर के रूप में पवित्र आत्मा उन पर उतरे थे और परमेश्वर ने ये शब्द कहे थे, “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिस से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं” (मत्ती ३:१७)। शायद इन शब्दों से हम इतनी अच्छी तरह परिचित हैं कि इनके प्रभाव पर विचार करना भूल जाते हैं। पुराने नियम के सम्पूर्ण इतिहास में कभी भी किसी मनुष्य ने अपने आप को, या किसी दूसरे व्यक्ति ने परमेश्वर के पुत्र के रूप में सम्बोधन नहीं किया है। यह बात बिलकुल नयी और क्रांतिकारी थी।

क्या यह पुत्रत्त्व केवल यीशु के लिये सुरक्षित था या उनके अनुयायियों के लिये भी था? यूहन्ना के सुसमाचार के आरम्भ में हम ये शब्द पाते हैं, “जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं” (यूहन्ना १:१२)। पौलुस इससे भी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, “और तुम जो पुत्र हो, इसलिये परमेश्वर ने अपने पुत्र के आत्मा को, जो हे अब्बा, हे पिता कह कर पुकारता है, हमारे हृदय में भेजा है” (गलाती ४:६)।

इसलिये यीशु के शब्द स्पष्ट हैं। परमेश्वर हमारे भी पिता हैं। हम उनकी सन्तान हैं। यीशु हमारे बड़े भाई हैं। हम सब एक ही परिवार के हैं।

धर्मशास्त्र के अनुसार भी और साधारण दृष्टि से भी, हरेक प्राणी और हरेक पौधा अपने तरह का सन्तान उत्पन्न करता है। उत्पत्ति के पुस्तक के पहले अध्याय में इस सत्यता को कम से कम पांच बार दुहराया गया है। बड़े बड़े जल -जंतुओं और चलने वाले सभी जीवित प्राणी अपने तरह के, पंखों वाले हरेक पक्षी अपने तरह के, भूमि हरेक जीवित प्राणी उन्हीं के तरह उत्पन्न करें। जब परमेश्वर ने यह घोषणा की कि यीशु उनके पुत्र हैं, उनका कहना था कि उन्होंने अपने तरह का सन्तान उत्पन्न किया था। यीशु का स्वभाव और उनके गुण परमेश्वर के समान ही थे। यीशु परमेश्वर के पुत्र थे और हैं।

परमेश्वर एक ही पुत्र से सन्तुष्ट नहीं थे। वे अपने तरह के बहुत सारे सन्तान चाहते हैं। वे ऐसे पुत्र और पुत्रियां चाहते हैं जो उनके स्वभाव और गुण के उत्तराधिकारी बनेंगे। उत्पत्ति के आरम्भ में उल्लेखित उनका मूल उद्देश्य परिवार स्थापित करना था। फिर परमेश्वर ने कहा, “हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएं” (उत्पत्ति १:२६)।

मैं हूं

जैसा कि हमने देखा है, यूहन्ना रचित सुसमाचार में अविश्वसनीय बातें लिखी गयी हैं, जो “मैं हूं” के रूप में यीशु ने अपने लिये कहीं थीं।

“जीवन की रोटी मैं हूं” (६:३५), “जगत की ज्योति मैं हूं” (८:१२), “अच्छा चरवाहा मैं हूं” (१०:११), “द्वार मैं हूं” (१०:७), “पुनरुत्थान और जीवन मैं ही हूं” (११:२५), “मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं” (१४:६), “सच्ची दाखलता मैं हूं” (१५:१)।

जब हम उनके स्वरूप में परिवर्तन होंगे, क्या हम भी इसी तरह के दावे करेंगे? क्या हम कह सकते हैं कि जीवन की रोटी, जगत की ज्योति, अच्छा चरवाहा, द्वार, पुनरुत्थान, मार्ग और सच्चाई और जीवन हम हैं?

यीशु ने इस बात पर जोर दिया था कि उन्होंने अपने मन से कुछ नहीं किया। पिता जो उनमें वास करते थे, उन्होंने ही सब कुछ किया था। “क्या तू प्रतीति नहीं करता, कि मैं पिता में हूं, और पिता मुझ में हैं? ये बातें जो मैं तुम से कहता हूं, अपनी ओर से नहीं कहता, परन्तु पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है” (यूहन्ना १४:१०)। इसके बाद उन्होंने चेलों से आश्चर्यजनक प्रतिज्ञा कर डाली कि वह और पिता उनमें भी वास करेंगे। “यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे” (यूहन्ना १४:२३)।

यीशु में जो आत्मा वास करती थी वही आत्मा हमारे अन्दर भी वास करती है, जो उनके लोग हैं। यीशु में वास करने वाली आत्मा ही जीवन की रोटी थी, जगत की ज्योति थी, अच्छा चरवाहा, द्वार, पुनरुत्थान, मार्ग, सच्चाई और जीवन थी। हममें वास करने वाली वही आत्मा भी जीवन की रोटी थी, जगत की ज्योति, अच्छा चरवाहा, द्वार, पुनरुत्थान, मार्ग, सच्चाई और जीवन है।

जीवन की रोटी

यीशु ने सबसे बड़ा “मैं हूं” का दावा सर्व प्रथम कपर्नहुम में किया था। उन्होंने कहा था, “जीवन की रोटी मैं हूं” (यूहन्ना ६:४८)। यीशु जीवन की रोटी हैं। क्या हम भी जीवन की रोटी हैं या हो सकते हैं?

यीशु ने अन्तिम भोज के समय फिर रोटी की बात की थी। “फिर उसने रोटी ली, और धन्यवाद कर के तोड़ी, और उन को यह कहते हुए दी, कि यह मेरी देह है, जो तुम्हारे लिये दी जाती है: मेरे स्मरण के लिये यही किया करो” (लुका २२:१९)। उन्होंने यह कहा कि रोटी उनकी देह थी। “मेरी देह है” कहने से उनका तात्पर्य क्या था? इस पृथ्वी पर उनके जीवन भर और विशेषकर जब उन्होंने कलवरी के क्रूस पर अपना जीवन अर्पण किया, उनका भौतिक शरीर हमारे लिये अर्पण किया गया था। मसीह का आत्मिक शरीर उनके लोग हैं। पौलुस ने कुरिन्थियों से यह कहा, “तुम मसीह के शरीर हो” (१ कोरि १२:२७), और कुलुस्सियों को, “उनका शरीर, जो उनकी मण्डली है” (१:२४), और इनसे मिलते जुलते शब्दों में रोमियों और इफिसियो को भी। उसने रोटी को शरीर के साथ उस समय भी जोड़ा जब उसने लिखा, “इसलिये, कि एक ही रोटी है सो हम भी जो बहुत हैं, एक देह हैं” (१ कोरि १०:१७)।

इस लिये यीशु रोटी हैं, रोटी उनका शरीर है और उनका शरीर उनके लोग हैं। उन्होंने अपने लोगों के लिये अपने आप को दे दिया है, और उनके लोगों को संसार के लिये दे दिया गया है। मानव जाति के बहुसंख्यक भूख से पीड़ित लोगों के लिये यीशु के लोग जीवन की रोटी हैं। वे और यीशु उनके शिर, दोनों एक साथ संसार की भूख मिटाने वाले भोजन हैं। सिर्फ मसीह का सम्पूर्ण शरीर, शिर और इसके सदस्य, संसार की आवश्यकताएं पूरी कर सकते हैं।

गेहूं के बहुत सारे दानों को मिलाकर रोटी बनती है को पकते समय आपस में मिल जाते हैं। यीशु ने अपने आप को गेहूं का दाना बताया। “जब तक गेहूं का दाना भूमि में पड़कर मर नहीं जाता, वह अकेला रहता है परन्तु जब मर जाता है, तो बहुत फल लाता है” (यूहन्ना १२:२४)। गेहूं के वे बहुत सारे दाने उनका शरीर हैं।

यीशु हमारे लिये जीवन की रोटी हैं और हम - अर्थात हमारे अन्दर वास कर रहे यीशु - औरों के लिये जीवन की रोटी बन जाते हैं।

जगत की ज्योति

यीशु ने कहा, “जगत की ज्योति मैं हूं” (यूहन्ना ८:१२), लेकिन उन्होंने अपने चेलों से भी स्पष्ट कहा था, “तुम जगत की ज्योति हो” (मत्ती ५:२४)। यह बात उन्होंने अपने पुनरुत्थान के बाद या पवित्र आत्मा प्रदान करने के बाद या पृथ्वी पर अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद नहीं कही थी। उनके साथ अपनी सेवकाई के आरम्भ में ही यह बात बतायी थी कि वे जगत की ज्योति थे। वे अपने विश्वास की आंखों से उनकी कमजोरियों और असफलताओं के पार उनकी सिद्धता और पूर्णता देख सकते थे।

मेरा मानना है कि वे विश्वास में हमारी ओर देखकर कह सकते हैं, “तुम जगत की ज्योति हो”

यीशु के बिना इस संसार और इसमें रहने वालों की अवस्था केवल अन्धकार है। यीशु और उनका शरीर ऐसी ज्योति हैं जो चमकते हैं, अंतर्दृष्टि देते हैं और सम्पूर्ण सृष्टि को अंतर्दृष्टि देते रहेंगे।

हम यीशु को स्वीकार करते हैं और उनके पीछे चलते हैं जो जगत की ज्योति हैं और हम स्वयं भी जगत की ज्योति बन जाते हैं।

द्वार

यूहन्ना रचित सुसमाचार के १० वें अध्याय के आरम्भ में यीशु कहते हैं, “जो द्वार से भीतर प्रवेश करता है वह भेड़ों का चरवाहा है”। वह स्वयं ही द्वार से प्रवेश करने वाले चरवाहा हैं। बाद में (९ वे पद में) वह कहते हैं, “द्वार मैं हूं: यदि कोई मेरे द्वारा भीतर प्रवेश करे तो उद्धार पाएगा और भीतर बाहर आया जाया करेगा और चारा पाएगा”। वह चरवाहा और द्वार दोनों हैं।

रात के समय भेड़शाला भेड़ों के लिये सर्वश्रेष्ठ स्थान है। इसके अन्दर उन्हें सुरक्षा और आराम मिलता है। यीशु भेड़शाला का द्वार हैं। जब सुबह होती है और सूर्य निकलता है, सब कुछ बदल जाते हैं। अब भेड़ों के लिये भेड़शाला के अन्दर बने रहना ठीक नहीं। उन्हें बाहर निकलना चाहिये। उन्हें चारागाह और पानी ढूंढ़ना चाहिये और इधर उधर चलना चाहिये। फिर, यीशु द्वार हैं, उनके बिना भेड़शाला में जाने का मार्ग नहीं है और बाहर रहने वालों की सुरक्षा भी नहीं है। जो भेड़शाला के अन्दर हैं, उनके लिये भी हरी चराई में जाने का मार्ग नहीं है जो उनके जीवन और वृद्धि के लिये आवश्यक है।

सर्वप्रथम हम यीशु के द्वारा, जो द्वार हैं, भेड़शाला में प्रवेश करते हैं। उसके बाद हम द्वार से होकर, और चरवाहा के साथ, जो यीशु हैं, बाहर जाते हैं। तब हमारे अन्दर वह द्वार बन जाते हैं जिनसे होकर और लोग भी भेड़शाला में प्रवेश करें, अन्दर और बाहर आयें जायें और चराई पायें।

अच्छा चरवाहा

यीशु ने कहा, “अच्छा चरवाहा मैं हूं; अच्छा चरवाहा भेड़ों के लिये अपना प्राण देता है” (यूहन्ना १०:११)। पतरस के साथ अपनी अन्तिम बातचीत में यीशु ने ये शब्द कहे थे, “मेरी भेड़ों की रखवाली कर” (यूहन्ना २१:१६)। यदि हम यूनानी शब्द को अक्षरशः लेते हैं तो यीशु के कहने का तात्पर्य था, “मेरी भेड़ों को चराओ”। इसके तुरत बाद उन्होंने यह बात भी बता दी कि पतरस को अपना प्राण देना होगा।

प्राचीन काल के महान् व्यक्तियों में से दो चरवाहा थे। मूसा और दाऊद दोनों ही अपनी भेड़ें चरा रहे थे जब परमेश्वर ने उन्हें अपने लोगों का चरवाहा होने के लिये बुलाया।

आज हमारे बीच सच्चे और झूठे, दोनों तरह के चरवाहा हैं। सच्चे चरवाहा वे हैं जो अपनी भेड़ों के लिये अपने प्राण तक देने को तैयार हैं। कुछ लोगों के लिये उनके समर्पित जीवन का यह अन्तिम बलिदान हो सकता है। सभी सच्चे चरवाहों के लिये यह दैनिक जीवन का अनुभव भी हो सकता है।

पहले हम अच्छा चरवाहा को पहचानते हैं, उसके बाद हम स्वयं अच्छा चरवाहा बनते हैं।

पुनरुत्थान

“पुनरुत्थान और जीवन मैं ही हूं, जो कोई मुझ पर विश्वास करता है वह यदि मर भी जाए, तौभी जीएगा। और जो कोई जीवता है, और मुझ पर विश्वास करता है, वह अनन्तकाल तक न मरेगा, क्या तू इस बात पर विश्वास करती है” (यूहन्ना ११:२५,२६)।

यीशु ने ये बातें मार्था से उस समय कहीं थीं जब उसका भाई लाजर कब्र में मृत पड़ा था। उसके लिये इन शब्दों का सिर्फ एक ही अर्थ था - उसके मृत भाई का शारीरिक पुनरुत्थान। जैसा कि हम सब जानते हैं, ऐसा ही होने वाला था। शारीरिक मृत्यु से लौटकर लाजर ने पुनः शारीरिक जीवन पा लिया। इसके कुछ ही दिनों बाद, ऐसा लगता था कि यीशु स्वयं ने भी ऐसा ही किया। लेकिन इनके बीच दो बड़े अन्तर थे। लाजर के विपरीत यीशु अपने पुनरुत्थान के बाद सशरीर इस पृथ्वी पर नहीं रहे। और इसके बाद फिर कभी उनकी मृत्यु नहीं हुई।

लाजर के पुनरुत्थान में यीशु की कही बातें पूरी हुई लेकिन सिर्फ सांसारिक रूप से। यह महान और महत्त्वपूर्ण आत्मिक पुनरुत्थान का सिर्फ दृश्य प्रदर्शन और शारीरिक प्रकटीकरण था।

मृत्यु का अर्थ है अलग होना। शारीरिक मृत्यु शरीर को छोड़ना है। आत्मिक मृत्यु परमेश्वर से अलग होना है। आदम में परमेश्वर से अलग होने की आत्मिक मृत्यु सभी मरते हैं। मसीह में परमेश्वर के साथ आत्मिक मिलाप में सभी जीवित किये जायेंगे। यीशु भौतिक शरीर के लिये अमरत्व की प्रतिज्ञा नहीं करते। इसके बदले वह परमेश्वर के साथ अनन्त एकता पुनर्स्थापित करते हैं। यह पुनरुत्थान और जीवन है।

यीशु हमारे पुनरुत्थान और जीवन हैं, और पुनरुत्थान और जीवन की आत्मा हमारे अन्दर वास करते हैं।

मार्ग, सच्चाई और जीवन

यीशु ने कहा, “मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं” (यूहन्ना १४:६)। कैसे कोई एक छोटे से वाक्य में इतना कुछ कह सकता है? इन तीनों शब्दों में से प्रत्येक के पृष्ठभूमि में एक बहुमूल्य तस्वीर छुपा है जो हमें आत्मिक सत्यता की ओर संकेत करता है और नमूना भी दिखाता है।

मार्ग (अथवा सड़क)

आजकल अधिकांश देशों में सैकड़ों, हजारों सड़कें हैं जो प्रत्येक कस्बा और गांव को आपस में जोड़ते हैं और यहां तक कि प्रत्येक घर को सड़क के संजाल से जोड़ते हैं। प्राचीन काल में चीजें भिन्न थीं। गलील वासियों के लिये सिर्फ एक महत्त्वपूर्ण सड़क थी। यह दक्षिण की ओर यरुशलेम को जाती थी। हरेक सक्षम पुरुष इस सड़क से वर्ष में तीन बार यात्रा करता था। धर्मशास्त्र के अनुसार, “वर्ष में तीन बार, अर्थात अखमीरी रोटी के पर्व्व, और अठवारों के पर्व्व, और झोंपडिय़ों के पर्व्व, इन तीनों पर्व्व में तुम्हारे सब पुरूष अपने परमेश्वर यहोवा के साम्हने उस स्थान में जो वह चुन लेगा जाएं” (व्यवस्था १६:१६)। बाद में परमेश्वर ने इस स्थान के रूप में यरुशलेम को चुना। चेलों ने अपने जीवन काल में इस मार्ग से होकर अनेकों बार यात्रा की होगी, और अभी अभी यीशु के साथ इस सड़क से अन्तिम यात्रा की थी। इस्राएल के लोगों के लिये यह सड़क लोगों को पवित्र नगर और परमेश्वर के भवन को पहुंचाती थी।

इस यात्रा का अर्थ था अपने गांव या गृह नगर की जानी पहचानी चीजों के साथ साथ अपने व्यवसाय को छोड़कर उस महत्त्वपूर्ण गन्तव्य तक पहुंचने के लिये कम से कम एक सप्ताह की यात्रा करना। चेलों के लिये यह यात्रा गलील की तराई से आरम्भ होकर यहूदिया की पहाड़ियों से होते हुए यरुशलेम तक की चढ़ाई के साथ पूरी होती थी।

जब यीशु ने कहा, “मार्ग मैं हूं”, श्रोताओं के मन में यही तस्वीर आयी होगी। लेकिन वह तो अपने पिता के सांसारिक भवन तक जाने वाले मार्ग के विषय में नहीं, पर स्वर्गीय भवन के विषय में बात कर रहे थे।

यह यात्रा भी हमारे सांसारिक अनुभवों के परिचित तराई से आरम्भ होती है। यह भी लम्बी और थकान भरी है। यह भी अनजान पहाड़ियों और वादियों से गुजरते हुए अन्त में पिता के भवन तक पहुंचती है।

यीशु स्वयं हमारे मार्ग हैं, और “हम उनमें और वह हममें” दूसरे लोगों के लिये मार्ग बनते हैं।

सच्चाई

पिलातुस ने यह प्रश्न पूछा था, “सत्य क्या है?” लेकिन यीशु ने इसका उत्तर नहीं दिया। कुछ प्राचीनों का विश्वास था कि इसका उत्तर प्रश्न में ही छुपा हुआ था। लैटीन भाषा, जो पिलातुस उपयोग करता था, के इस प्रश्न (Quid est veritas?)के अक्षरों को फिर से थोड़ा सा परिवर्तित रूप में रखने से इसका अर्थ बनता था, “उपस्थित व्यक्ति वही है” (Est vir qui adest) । हो सकता है यह कथा वास्तविक नहीं हो, पर इसका सारांश स्पष्ट है। व्यक्ति के रूप में सत्य पिलातुस के सामने खड़ा थे। यदि वह अपने सामने एक व्यक्ति के रूप में खड़े सत्य को पहचान नहीं पा रहा था तो यीशु के कहे गये शब्दों के द्वारा वह किस प्रकार अंतर्दृष्टि पा सकता था?

यीशु के द्वारा बोले गये एक एक शब्द सत्य थे। लेकिन सत्यता शब्दों से कहीं अधिक होता है। यीशु के द्वारा किये गये हरेक काम सत्य थे। हरेक काम, हरेक दृष्टि, उनके चेहरे पर डाली गयी हरेक नजर सत्यता प्रकट करती थी। वह सत्य बोलते थे, वह सत्य जीते थे, और वह सत्य थे उसी प्रकार जिस प्रकार वह परमेश्वर का वचन बोलते थे, वह परमेश्वर का वचन जीते थे, और वह परमेश्वर का वचन थे। यीशु में जो आत्मा थी वह सत्य की आत्मा थी।

यीशु में जो आत्मा थी वही आत्मा उनके शरीर में भी है। इसके सदस्य भी सत्य बोलेंगे, सत्य करेंगे और सत्य होंगे। वे बाकी मानव जाति के लिये गतिशील सुसमाचार और परमेश्वर के दृश्य प्रदर्शक होंगे। जिस प्रकार यीशु सत्य हैं, उसी प्रकार हम भी सत्य होते जा रहे हैं।

जीवन

यीशु ने दो बार कहा कि वह जीवन हैं / थे। “पुनरुत्थान और जीवन मैं ही हूं” (यूहन्ना ११:२५) और “मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं” (यूहन्ना १४:६)। इस आत्मिक रहस्य को हम कैसे समझ सकते हैं?

भौतिक जीवन आत्मा, प्राण और शरीर के एकता की अवस्था है। मृत्यु के समय इस एकता का अन्त हो जाता है। जीवित व्यक्ति शरीर और मन से सम्बन्धित विभिन्न गतिविधि में संलग्न हो सकते हैं। वे भोजन कर सकते हैं, पानी पी सकते हैं, सो सकते हैं, चल सकते हैं और दौड़ सकते हैं। वे बोल सकते हैं, विचार कर सकते हैं, हंस सकते हैं और रो सकते हैं। मृत्यु के समय ये सारी गतिविधियां रुक जाती हैं। प्राण और आत्मा शरीर छोड़कर चले जाते हैं, जो जल्द ही सड़ने लगता है और अन्त में इसका सारा अस्तित्व नष्ट हो जाता है। हम न तो इसका आरम्भ और न ही इसका अन्त नियन्त्रण कर सकते हैं।

यह आश्चर्य की बात है कि हमारे जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण दो घटनाओं पर हमारा कोई नियन्त्रण नहीं है। दो युवा व्यक्तियों के बिना किसी पूर्वनियोजित, आवेग में किये गये काम के फलस्वरूप किसी का जन्म होता है। मृत्यु भी इसी प्रकार हमारे नियन्त्रण के बाहर की परिस्थितियों के कारण किसी भी समय आ सकती है। ये दोनों ही बड़ी घटनाएं परमेश्वर के नियन्त्रण में हैं।

भौतिक जीवन आत्मिक जीवन की तस्वीर है। आत्मिक जीवन परमेश्वर के साथ एक होना है। आत्मिक मृत्यु उनसे अलग होना है। यीशु ने कहा, “और अनन्त जीवन यह है, कि वे तुझ अद्वैत सच्चे परमेश्वर को और यीशु मसीह को, जिसे तू ने भेजा है, जानें” (यूहन्ना १७:३)।

आत्मिक जन्म आत्मिक जीवन का आरम्भ है। उसके बाद ही सारी आत्मिक गतिविधि सम्भव होती है। हम आत्मा में खा सकते हैं, पी सकते हैं, चल सकते हैं और बात कर सकते हैं। हम प्रार्थना कर सकते हैं और परमेश्वर की आराधना कर सकते हैं।

यीशु हमें यह आत्मिक जीवन देते हैं। वह न सिर्फ हमें यह जीवन देते हैं, बल्कि वे स्वयं जीवन हैं। जब हम उन्हें ग्रहण करते हैं, हम जीवन ग्रहण करते हैं।

उन्होंने अपने चेलों से कहा, “जो तुम्हें ग्रहण करता है, वह मुझे ग्रहण करता है; और जो मुझे ग्रहण करता है, वह मेरे भेजने वाले को ग्रहण करता है” (मत्ती १०:४०)। हम उनमें हैं और वह हममें हैं। इसका अर्थ यह है कि हमें ग्रहण करने वाला कोई भी साथ साथ उन्हें ग्रहण करता है। जब लोग उन्हें ग्रहण करते हैं, तब वे जीवन ग्रहण करते हैं।

मसीह की आत्मा यीशु में और हममें, दोनों में यह आत्मिक जीवन हैं।

सच्ची दाख लता

यीशु ने कहा, “मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो” (यूहन्ना १५:५)। यह “मैं हूं” का अन्तिम बड़ा दावा था। उन्होंने अपनी मृत्यु के पूर्व सन्ध्या की लम्बी बातचीत में यह बात कही थी। इस बातचीत का केन्द्रीय विषय पवित्र आत्मा को ग्रहण करने के बाद चेलों के जीवन में आने वाला बहुत बड़ा परिवर्तन था।

इस्राएल के सभी पेड़ों में से यीशु ने सिर्फ दाख लता को चुना। वह आसानी से कह सकते थे, “मैं खजूर का पेड़ हूं, तुम सब इसकी डालियां हो”। दाख लता और खजूर के पेड़, दोनों में फल लगते हैं, लेकिन दोनों एक दूसरे से बिलकुल अलग दिखते हैं। खजूर का पेड़ लम्बा होता है और इसकी डालियां पत्तों के बने होते हैं। इसकी डालियां पेड़ के तने से बिलकुल भिन्न होती हैं। दाख लता डालियों से मिलकर बनी होती है और इसका अलग तना नहीं होता। दूसरे शब्दों में इसकी डालियां ही दाख लता हैं।

हम आसानी से यह विचार कर सकते हैं कि खजूर का पेड़ यीशु और उनके चेलों की अच्छी तस्वीर हो सकता था। लम्बा और मजबूत तना यीशु को दर्शाता और ऊपर बड़ी पत्तियों का गुच्छा उनके अनुयायियों को। लेकिन यीशु ने अपने आप को और हमें दर्शाने के लिये इस तस्वीर को नहीं चुना। उन्होंने इसकी जगह दाख लता को चुना, ऐसा पौधा जो पूरी तरह डालियों से बना होता है। हम सब पूरी तरह उनमें मिल गये हैं। वह दाख लता हैं और हम सब भी दाख लता हैं। हम उनमें हैं और उनके एक अंश भी हैं।

दाख लता यीशु की कही बात को पूरी तरह दिखाती है, “मुझमें रहो और मैं तुम में” (यूहन्ना १५:४)। उनसे अलग हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। यदि हम उनमें हैं और वह हममें हैं तो वह जो भी हैं, हम भी वही हैं। यदि वह परमेश्वर के पुत्र हैं तो हम भी परमेश्वर के पुत्र हैं। यदि वह जीवन की रोटी हैं तो हम भी जीवन की रोटी हैं। यदि वह जगत की ज्योति हैं तो हम भी जगत की ज्योति हैं। यदि वह मार्ग, सच्चाई और जीवन हैं तो हम भी मार्ग, सच्चाई और जीवन हैं।

परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है कि ये सारी चीजें हममें महिमीत वास्तविकता हो जायें।

इब्राहिम से पहले मैं हूं

अन्त में हम इन शब्दों पर विचार करेंगे जो यहूदियों को क्रोधित कर दिया था। इस पृथ्वी पर इब्राहिम के प्रादुर्भाव से पहले यीशु थे, और उन पर किसी भी रूप में विश्वास करने वालो में कोई भी इस बात पर शंका नहीं करता।

इब्राहिम के पृथ्वी पर आने से पहले क्या हमारा भी अस्तित्व था? आजकल बहुतों का विश्वास है कि हमारा अस्तित्व था।

धर्मशास्त्र का क्या कथन है?

सभोपदेशक की पुस्तक में स्पष्ट उल्लेख मिलता है, “जब मिट्टी ज्यों की त्यों मिट्टी में मिल जाएगी, और आत्मा परमेश्वर के पास जिसने उसे दिया लौट जाएगी” (१२:७)। “लौट जाना” शब्द का एक ही अर्थ है कि जहां से आये हैं, फिर उसी स्थान को जाना।

इस विषय पर बाइबल के अन्य भागों में भी मजबूत आधार मिलते हैं।

पौलुस ने अविश्वासियों की अवस्था का वर्णन करते हुए लिखा है, “जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया” (इफिसियो २:५)। यूहन्ना ने भी ऐसी ही भाषा उपयोग की है, “हम जानते हैं, कि हम मृत्यु से पार हो कर जीवन में पहुंचे हैं” (१ यूहन्ना ३:१४)। अविश्वासी, पौलुस और यूहन्ना दोनों के अनुसार मृत्यु की अवस्था में हैं। मृत शब्द (मेरे दोनों शब्दकोषों के अनुसार) का अर्थ होता है “अब जीवित नहीं”। दूसरे शब्दों में मरने से पहले आपको जीवित रहना होगा। जब भी आप मृत जानवर, पक्षी या पेड़ देखते हैं, तो आप जानते हैं कि मरने से पहले वह जीवित था। धर्मशास्त्र की यह शिक्षा कि सांसारिक व्यक्ति मृत अवस्था में है, यह दिखाता है कि इसके पूर्व वह किसी दूसरी अवस्था में जीवित था।

पौलुस ने भी लिखा है, “जैसा उसने हमें जगत की उत्पति से पहिले उस में (मसीह में)चुन लिया, कि हम उसके निकट प्रेम में पवित्र और निर्दोष हों” (इफिसियो १:४)। क्या हमारे अस्तित्व में आने से पहले ही हमें चुन लिया गया था? ऐसा सम्भव है, लेकिन यह तभी सम्भव होता जब जगत की उत्पत्ति से पहले ही हमारे चुने जाने के समय यदि हमारा अस्तित्व रहता। हमारे इस जगत में आने से पहले से हमारा अस्तित्व था, इस पद का अर्थ यह भी दिखाता है।

दो अनन्त के बीच यह जीवन एक छोटा सा विश्राम स्थल है। इस विषय को मैंने Pre-existence में विस्तार से वर्णन किया है।

सारांश

यूहन्ना और यहेजकेल ने दर्शन देखे। आत्मा में उन्होंने मसीह के निष्कलंक शरीर का पूर्व अवलोकन किया। उन्होंने भविष्य के महिमित वास्तविकता का परमेश्वर के योजना और नक्शे की तस्वीर देखी थी। परमेश्वर जो आरम्भ में ही अन्त देख लेते हैं, उनके लिये सारी चीजें पूर्ण हो गयी है। उनकी आंखों से देख पाने का उन्हें सुअवसर मिला।

यीशु के चेले जो होने जा रहे थे, यीशु ने अपनी विश्वास की आंखों से देखा था। “तुम जगत की ज्योति हो” सिर्फ वही उनसे कह सकते थे, जब वे विश्वास की यात्रा में कुछ कदम ही बढ़ पाये थे, और बहुत सारी असफलताओं से भरे थे, जो हम अपने जीवन में भी पाते हैं। यीशु ने उनमें विश्वास किया और उनके भविष्य के विषय में विश्वास में बातें कीं, जो परमेश्वर की दृष्टि में वे बन चुके थे।

हम अब तक मसीह का पूर्ण तैयार शरीर नहीं देख पाये हैं। हम एक निर्माणाधीन भवन देखते हैं जिसका अधिकांश भाग स्केफोल्डीङग से ढका हुआ है। भवन निर्माण स्थल के चारों ओर हम कीचड़ और कचरा बिखरा हुआ देखते हैं। हम अपनी असफलताओं, पापों और अपूर्णता की ओर देखते हैं और सोचते हैं कि हम कभी भी जगत की ज्योति, जीवन की रोटी, मार्ग, सच्चाई और जीवन नहीं बन सकते। लेकिन परमेश्वर ऐसा नहीं सोचते हैं। वह पूर्ण और निष्कलंक भवन को देखते हैं। वह हमारी ओर देखते हैं जिस प्रकार यीशु ने चेलों की और देखा था और हम जो होने जा रहे हैं वह उसे देखते हैं। विश्वास में यीशु हमसे कहते हैं, “इसलिये चाहिये कि तुम सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है” (मत्ती ५:४८)। और हम यीशु मसीह में परमेश्वर के उच्च बुलाहट के लिये पुरस्कार पाने को आगे बढ़ते जाते हैं।

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