६६६ और ८८८

“ज्ञान इसी में है, जिसे बुद्धि हो,
वह इस पशु का अंक जोड़ ले,
क्योंकि मनुष्य का अंक है,
और उसका अंक छः सौ छियासठ है”

प्रकाशित वाक्य १३:१८

Ι=10
η=8
σ=200
ο=70
υ=400
ς =200
888
Κ=20
υ=400
ρ=100
ι=10
ο=70
ς =200
800
Κ=20
ο=70
σ=200
μ=40
ο=70
ς=200
600

बुद्धि

अधिकांश व्यक्ति यह जानते हैं कि ६६६ पशु की संख्या है। वह पशु कौन है या क्या है और क्यों उसकी एक संख्या होनी चाहिये, यह बात वे नहीं जानते।

बहुतों ने ८८८ के विषय में नहीं सुना होगा। आश्चर्य की बात है कि बाइबल में ६६६ का उपरोक्त जिस पद में उल्लेख है, ८८८ ठीक उसके बाद वाले पद में आता है। लेकिन यह संख्या उस पद में स्पष्ट उल्लेख न होकर, छिपी हुई है, जो बाद में मैं व्याख्या करूंगा।

धर्मशास्त्र पवित्र आत्मा के प्रेरणा से लिखे गये हैं, और पवित्र आत्मा की सहायता के बिना हम उन्हें सिर्फ मानसिक रूप से बाहरी स्तर पर ही समझ सकेंगे। हम इनका नैतिक शिक्षा समझ सकते हैं, इनके कथाओं और कविताओं का आनन्द ले सकते हैं लेकिन इनका आत्मिक अर्थ समझने में असमर्थ रहते हैं ।

धर्मशास्त्र में कुछ बातें विशेष कर रहस्य ही रखी गयी हैं । नये नियम में बहुत से स्थानों पर हम ऐसा लिखा हुआ पाते हैं, “जिनके कान हैं वे सुनें” या “जो पढ़ते हैं वे समझें” अथवा “देखो, मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताता हूं”। प्रकाशित वाक्य १३:१८ (ऊपर उल्लेख किया गया) इन शब्दों के साथ आरम्भ होता है, “ज्ञान इसी में है”। ऐसे वाक्यांश यह दिखाते हैं कि यहां कुछ छुपा हुआ है, जो हमें प्रार्थना के साथ पवित्र आत्मा की सहायता से ढूंढ़ना आवश्यक है। हमारा विषय ६६६ और ८८८ ऐसा ही है।

प्रकाशित वाक्य १३: १८ समझने के लिये हमें इसके पहले के पदों का अध्ययन करना आवश्यक है। अधिकांश व्यक्ति स्वाभाविक रूप से इन पदों का अध्ययन करेंगे, क्योंकि ये पद नाटकीय हैं और एक ही विषय से सम्बन्धित हैं । इसके बाद के पदों का अध्ययन करना भी हमारे लिये आवश्यक है। अधिकांश व्यक्ति ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि वे दूसरे अध्याय में है और प्रथम दृष्टि में दोनों में कोई विशेष सम्बन्ध नहीं दिखता। १८ अध्याय के ही वे पद हैं जहां हमें पशु की संख्या को समझने की चाभी मिलती है।

हमें बाइबल में अंक के महत्त्व के विषय में भी कुछ जानकारी आवश्यक है, जिसके बिना हम ६६६ और ८८८ की विशेषता को नहीं समझ पायेंगे।

बाइबल के अंक

बाइबल में अंकों का बहुत महत्त्व है। उदाहरण के लिये सात का अंक आत्मिक सिद्धता और परमेश्वर की संख्या मानी जाती है। १३ प्रायः बागीपन और शैतान से जुड़ा है। ६ खासकर मनुष्य और उसके कामों का अंक है।

हम किसी विशेष अंक का अर्थ या उसकी विशेषता कैसे जानेंगे?

किसी भी अंक की विशेषता धर्म शास्त्र और प्रकृति दोनों में उसके उपयोग से स्थापित होती है। उत्पत्ति के वर्णन के अनुसार परमेश्वर ने छठे दिन मनुष्य की सृष्टि की और सातवें दिन उन्होंने अपने काम से विश्राम किया। उन्होंने मनुष्य के लिये छः दिन परिश्रम करने के लिए स्थापित किये। ६०० वर्षों के बाद नूह, जिसका अर्थ होता है विश्राम, अपना काम समाप्त कर जहाज में प्रवेश किया। ये, और अन्य पद ६ को परमेश्वर से अलग मनुष्य और मनुष्य के काम की संख्या बनाते हैं । सातवां दिन प्रभु का दिन है। धर्मशास्त्र, विशेषकर प्रकाशित वाक्य की पुस्तक, अधिकतर ७ की संख्या पर आधारित है। यह इस बात का संकेत है कि ७ परमेश्वर का अंक है।

अंकों के अर्थ जेमेट्रिया अथवा किस अक्षर का अंक में कितना मूल्य है, इसके अध्ययन से भी दर्शाया और स्थापित किया जा सकता है। यूनानी और हिब्रू दोनों भाषाओं में हमारे जैसे १,२ और ३ अंक नहीं होते थे। इसके बदले रोमियों जैसे इन लोगों ने भी अपने अक्षरों का उपयोग किया। यूनानी में α (अल्फा) का अर्थ १, β (बीटा) का अर्थ २, इसी प्रकार ι (आयोटा) तक जिसका अर्थ १० होता है। उसके बाद κ (कप्पा) २०, λ (लाम्डा) ३०, होते हुए ρ (रो) तक, जिसका अर्थ १०० होता है। फिर σ (सिग्मा) २००, τ (तौ) ३००, से लेकर ω (ओमेगा) तक, जो ८०० होता है। इन मूल्यों को नीचे टेबल में दिया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि आप किसी भी शब्द या नाम के अक्षरों को जोड़कर उसका पूर्ण मूल्य निकाल सकते हैं । उस मूल्य को जेमेट्रिया कहते हैं । यीशु (यूनानी भाषा में Ιησους) नाम का जोड़ ८८८ होता है।


अक्षरनाममूल्य अक्षरनाममूल्य अक्षरनाममूल्य
αalpha1ιiota10ρrho100
βbeta2κkappa20σsigma200
γgamma3λlambda30τtau300
δdelta4μmu40υupsilon400
εepsilon5νnu50φphi500
ζzeta7ξxi 60χchi600
ηeta8οomicron70ψpsi700
θtheta9πpi80ωomega800

यीशु के अधिकांश उपाधियों में ८ अंक का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

दूसरी ओर Κοσμος (कसमस = विश्व) का जेमेट्रिया ६०० है। विश्व परमेश्वर से अलग मनुष्य का कार्य क्षेत्र है। शैतान के बहुत से नाम और उपाधि, जैसे δρακων (ड्रागन ) और οφις (सर्प ) में गुणन खण्ड १३ है।

शताब्दियों से अंकों के अध्ययन में बहुत समय लगाया गया है। परमेश्वर के लोग और तन्त्र मन्त्र सीखने वाले, दोनों ही इस काम में लगे हैं । ६६६ की संख्या ने बहुतों के मन में जिज्ञासा उत्पन्न किया है और जो १५३ मछली जाल में आये थे, इसका १५३ से भी अधिक व्याख्या उपलब्ध है। इस विषय पर एक बहुत ही अच्छी पुस्तक Number in Scripture में इंटरनेट पर उपलब्ध १९ वीं शताब्दी के अन्त में Ethelbert Bullinger द्वारा लिखी गयी थी। धर्मशास्त्र, हिब्रू और यूनानी भाषा का उनका ज्ञान विद्वतापूर्ण है। स्वाभाविक रूप से विज्ञान से सम्बन्धित उनका ज्ञान अद्यावधिक नहीं है। लेकिन विभिन्न अंकों के धर्मशास्त्र से जो अर्थ वे सामने लाते हैं, वे सब विश्वसनीय होते हैं और इसीलिये जो लोग इस विषय पर अध्ययन करना चाहते हैं उनके लिये मैं इस पुस्तक को सिफारिश करता हूं।

बाइबल के अंक और जेमेट्रिया का अध्ययन सबों के लिए आसान नहीं है, इसलिये यदि आपको कठिन लगता है तो चिन्ता की कोई बात नहीं। लेकिन मेरा विश्वास है कि यदि आप प्रकाशित वाक्य को समझना चाहते हैं तो इस विषय का थोड़ा बहुत ज्ञान तो होना ही चाहिए। यह बात उन लोगों के लिये और भी आवश्यक है जो पशु के अंक ६६६ का अर्थ और इसके विपरीत यीशु के अंक ८८८ को समझना चाहते हैं।

पशु का चिह्न

इस पुस्तिका के आरम्भ में उल्लेखित पद के पूर्व दो पदों में पशु के चिह्न के विषय में हम पढ़ते हैं । “और उसने छोटे, बड़े, धनी, कंगाल, स्वतंत्र, दास सब के दाहिने हाथ या उन के माथे पर एक एक छाप करा दी। कि उसको छोड़ जिस पर छाप अर्थात उस पशु का नाम, या उसके नाम का अंक हो, और कोई लेन देन न कर सके” (प्रकाश १३:१६,१७)।

इन पदों ने बहुत से विचार और कल्पना को जन्म दिया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बहुत से लोग इन बातों को सुनकर या सिख कर चिंतित हुए हैं या डर गये हैं । इस चिह्न का प्रकृति क्या है? बहुत से लोगों का मानना है कि क्रेडिट कार्ड के बदले हाथ या माथे पर विद्युतीय चिह्न लगाये जायेंगे। आपका बैंक बैलेन्स आपके हाथ पर विद्युतीय माध्यम से लिखे जायेंगे और जब भी आप खरीद बिक्री करेंगे, उसे अद्यावधिक कर दिया जाएगा। मैंने तो यह भी सुना है कि इन सब का नियन्त्रण करने वाले केन्द्रीय कम्प्यूटर का डिजाइन अंक ६ पर आधारित था। (यह विचार अवास्तविक लगता है क्योंकि सभी कम्प्यूटर के जानकार लोग यह जानते हैं कि कम्प्यूटर खास कर संख्या २, ८ या १६ पर आधारित होते हैं न कि ६ पर।)

प्रकाशित वाक्य के १३ वे अध्याय का यह शाब्दिक दृष्टिकोण १४ अध्याय के १ पद से मेल नहीं खाता, “फिर मैं ने दृष्टि की, और देखो, वह मेम्ना सिय्योन पहाड़ पर खड़ा है, और उसके साथ एक लाख चौवालीस हजार जन हैं, जिन के माथे पर उसका और उसके पिता का नाम लिखा हुआ है”। इसके बाद के पदों का भी हमें सही अनुवाद करना पड़ेगा। यदि पशु का चिह्न लोगों के माथे पर विद्युतीय उपाय से लगाये गये हैं तो यीशु का नाम भी विद्युतीय उपाय से ही इन १४४००० के माथे पर लिखा जाना चाहिए। मैंने आज तक किसी से भी नहीं सुना है कि ऐसा ही होगा।

क्या हमारे शरीर पर बनाया गया कोई भौतिक चिह्न हमें परमेश्वर के सामने अच्छा या बुरा बनाता है? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। माथे के अन्दर प्रवेश करने वाली चीज महत्त्वपूर्ण है। आपके अन्दर दो भिन्न प्रकार के मन हो सकते हैं । आपके अन्दर पशु का मन हो सकता है या मसीह का मन। दोनों ही प्रकार के मन का विवरण धर्मशास्त्र में उल्लेख है और हम उन्हें एक एक कर देखेंगे।

पशु का मन

दानिय्येल के ४ अध्याय और उसके १६ पद में लिखा है, “उसका मन बदले और मनुष्य का न रहे, परन्तु पशु का सा बन जाए; और उस पर सात काल बीतें”। यह व्यक्ति कौन था? नबुकदनस्सेर, महान् राजा और बेबिलोन का पुनर्निमाता, जो प्राचीन इतिहास का एक बहुत शक्तिशाली व्यक्ति था।

बाइबल के पन्नों में दो परस्पर शत्रुता रखने वाले नगरों का उल्लेख है। हम सर्वप्रथम बेबिलोन के विषय में, जिसका नाम हिब्रू भाषा में बाबुल है, उत्पत्ति के ११ अध्याय के उस सर्वविदित कथा में देखते हैं । पुराने नियम के अन्तिम भाग में यह महत्त्वपूर्ण स्थान पाता है। यरूशलेम का पहली बार यहोशू की पुस्तक में उल्लेख किया गया है, लेकिन दाऊद राजा के समय से पहले इसका कोई महत्त्व नहीं था। यबूसियों से जीतकर उसने इसे अपना राजधानी बनाया। उसके बाद से धर्मशास्त्र में इसका लगातार उल्लेख होता रहा और आज भी समाचार में बना रहता है। प्रकाशित वाक्य की पुस्तक बेबिलोन के विनाश और नये येरूशलेम जो दुल्हन की तरह सज धज कर अपने पति के लिये स्वर्ग से उतरने की घटना के साथ समाप्त होती है।

मिश्र और बेबिलोन, प्राचीन इतिहास के दो महान् साम्राज्य थे। दोनों का गहरा आत्मिक महत्त्व है। धर्मशास्त्र में उल्लेखित सबसे बड़ा छुटकारा मिश्र से हुआ था। दूसरा बेबिलोन से। परमेश्वर के सब लोग इजराइल के रूप में मिश्र से आये थे। इनकी तुलना में बहुत थोड़े लोग बेबिलोन से आये थे।

ये दोनों देश क्या दर्शाते हैं? हरेक बाइबल पढ़ने वाला व्यक्ति मूसा और मिश्र से निर्गमन, दस विपत्ति, प्रथम फसह, लाल समुद्र में मिश्रियो का विनाश और परमेश्वर के लोगों के रूप में इजराइल का जन्म ईत्यादि बातों को जानता है। हरेक व्यक्ति यह बुनियादी बात भी जानता है कि यीशु नये फसह का मेमना हैं जिन्होंने हमें आत्मिक मिश्र से छुटकारा दिया है हमें एक नयी आत्मिक जाति के रूप में सृष्टि की है।

बेबिलोन से छुटकारा पाने की घटना बहुत कम लोग जानते हैं । बेबिलोन झूठी शिक्षा का गढ़ था। झूठी शिक्षा का सार यह है कि यह मनुष्य और उसके कामों पर आधारित होता है। इसमें परमेश्वर का कोई प्रावधान नहीं होता। यह मनुष्य को महिमित करता है।

जब यहूदी लोग बेबिलोन की बन्धुआई में थे, उस समय नबुकदनेस्सर वहां का राजा था। दानिय्येल की पुस्तक का ४ अध्याय उसके अपने ही शब्दों में नबुकदनेस्सर के अवनति और उसके पुनर्स्थापन की घटना का वर्णन करता है। उसकी समस्या उस समय आरम्भ हुई जब उसने यह कहा, “क्या यह बड़ा बाबुल नहीं है, जिसे मैं ही ने अपने बल और सामर्थ से राजनिवास होने को और अपने प्रताप की बड़ाई के लिये बसाया है”? (पद ३०) ये शब्द उन्हीं शब्दों को प्रतिध्वनित करते हैं जो शताब्दियों पूर्व बेबिलोन के प्रथम निर्माताओं ने परमेश्वर से अलग होकर पूर्ण आत्म निर्भरता के साथ गुम्मट निर्माण करते समय कहा था। “फिर उन्होंने कहा, आओ, हम एक नगर और एक गुम्मट बना लें, जिसकी चोटी आकाश से बातें करे, इस प्रकार से हम अपना नाम करें ऐसा न हो कि हम को सारी पृथ्वी पर फैलना पड़े।” उनके अन्दर भी वही आत्मा थी जो उस दिन से लेकर आज तक अनगिनत आत्मिक बेबिलोन निर्माण करने वालो के मन में है।

नबुकदनेस्सर के मुख से पूरी बात निकलने से पहले ही उस पर न्याय आ पड़ा। धर्मशास्त्र में उल्लेखित विवरण के अनुसार, उसे मनुष्यों के बीच से भगा दिया गया और वह बैलों की तरह घास खाता था। उसका शरीर ओस से भिगता रहा जब तक कि उसके शिर के बाल चील के पंख जैसे नहीं हो गये और उसके नाखून चिड़ियों के पंजों जैसे। और पूर्व उल्लेखित पद “उसका मन मनुष्य के मन से परिवर्तन हो जाय और उसे पशु का मन दिया जाय” पूरे हो गये।

कोई पशु (जानवर) परमेश्वर के विषय में विचार नहीं कर सकता। उसके आत्मिक या नैतिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है। छः का अंक परमेश्वर रहित मनुष्य को दर्शाता है। ६६६ की संख्या का अर्थ है मनुष्य, मनुष्य, मनुष्य, एक ऐसी व्यवस्था जो पूर्ण रूप से मनुष्य केन्द्रित और मनुष्य शासित है। सबकुछ मनुष्य के सोच और योजना और कार्य नीति पर आधारित है। इसमें परमेश्वर के लिये कोई स्थान नहीं है।

सात वर्षों तक वह पशु जैसा जीता रहा, और घास खाता रहा, जब तक कि उसकी समझ वापस नहीं आ गयी। उसकी अन्तिम बातें बिलकुल अलग प्रकार की हैं, “अब मैं नबूकदनेस्सर स्वर्ग के राजा को सराहता हूं, और उसकी स्तुति और महिमा करता हूं क्योंकि उसके सब काम सच्चे, और उसके सब व्यवहार न्याय के हैं; और जो लोग घमण्ड से चलते हैं, उन्हें वह नीचा कर सकता है”।

नबुकदनेस्सर का पूर्व शासन ६ की संख्या से छाप लगाया गया था। उसने एक मूर्ति का निर्माण कराया था जिसकी ऊंचाई ६० हाथ और चौड़ाई ६ हाथ थी। फिलिस्ती दैत्य गोलियथ अद्भुत रीति से नबुकदनेस्सर के समान था। उसने भी अपने विषय में घमण्ड पूर्ण बातें की थी और ६ की संख्या का छाप लगा था। उसकी ऊंचाई ६ हाथ थी और उसके भाले की लोहे से बनी नोक का वजन ६ सौ शेकेल था। उसके हथियारों की संख्या भी ६ थी। उसका भाग्य इतना अच्छा नहीं था क्योंकि ७ वर्षों तक पशु का मन पाने के बदले इसका शिर काट लिया गया था।

हम सब ऐसी आशा कर सकते थे कि पशु का अंक ६ न होकर १३ होना चाहिए था क्योंकि १३ अंक शैतान जुड़ा हुआ है जबकि ६ मनुष्य की संख्या है। सुसमाचार में उल्लेखित एक सर्वविदित घटना हमें यह बात समझने में सहायता करती है। पतरस के लिये यह प्रकाश का एक अद्भूत क्षण था जब उसने यीशु से कहा, “आप मसीह हैं, जीवित परमेश्वर के पुत्र। यीशु ने उत्तर दिया, “हे शमौन योना के पुत्र, तू धन्य है; क्योंकि मांस और लोहू ने नहीं, परन्तु मेरे पिता ने जो स्वर्ग में है, यह बात तुझ पर प्रगट की है”।

इस वार्तालाप के कुछ ही देर बाद, पतरस ने यीशु को क्रूस के मार्ग को छोड़ने के लिए मानवीय दृष्टिकोण से बुद्धिमत्ता पूर्ण सुझाव दिया था। यीशु ने उसकी ओर मुड़कर कहा, “हे शैतान, मेरे साम्हने से दूर हो: तू मेरे लिये ठोकर का कारण है; क्योंकि तू परमेश्वर की बातें नहीं, पर मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है”। ६६६ परमेश्वर रहित मनुष्य को दर्शाता है। पतरस का सुझाव ६६६ था परन्तु यीशु ने इसे सीधा शैतान की ओर से आता हुआ देखा। सत्यता यह है कि परमेश्वर रहित मनुष्य शैतान के साथ है।

आप तटस्थ नहीं रह सकते। आप न तो परमेश्वर के साथ और न ही शैतान के साथ जीने का निर्णय नहीं कर सकते। कोई भी व्यवस्था या कोई भी जीवन जो परमेश्वर को स्थान नहीं देता, वह वास्तव में शैतान द्वारा नियन्त्रित है, क्योंकि वह संसार का राजकुमार है।

खरीद बिक्री करना

हमारे लिये अब प्रकाशित वाक्य के १३ अध्याय और १७ पद विचार करना आवश्यक हो गया है, “उसको छोड़ जिस पर छाप अर्थात उस पशु का नाम, या उसके नाम का अंक हो, और कोई लेन देन न कर सके”।

यदि यह पद अक्षरशः सत्य है तो हमारे लिये जीवन यापन करना असम्भव लगता है। हम भोजन कहां से प्राप्त करेंगे? क्या परमेश्वर हमारे लिये भी एलिया के जैसा ही आश्चर्य कर्म करेंगे?

जिस समय ये शब्द लिखे गये थे, मुझे नहीं लगता कि इसे पढ़ने वालों के मन में कोई भय उत्पन्न हुआ होगा। कृषक समुदाय में अधिकांश व्यक्ति अपने लिये आवश्यक खाद्य और कपड़े भी उत्पादन करते हैं । लोगों को अपना जीवन यापन करने के लिये खरीद बिक्री करना आवश्यक नहीं था।

मैं यह नहीं कह सकता कि यह पद अक्षरशः, भौतिक रूप से पूरा नहीं होगा। पर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम इसके आत्मिक अर्थ पर भी विचार करें।

१७ पद में उल्लेखित पशु वही है जो पृथ्वी से बाहर निकला था (जैसा कि इस अध्याय के आरम्भ में हम पढ़ते हैं)। संसार, जिसे और विस्तार से मैं बाद में बताऊंगा, उन विश्वासियों या मण्डली के सदस्यों को दर्शाता है, जो स्वर्ग में वास नहीं करते। वे आत्मा के अनुसार नहीं चलकर पाप-स्वभाव के अनुसार चलते हैं। पृथ्वी समुद्र से भिन्न है और स्वर्ग से भी भिन्न है। समुद्र अनगिनत अविश्वासियों और विधर्मियों को दर्शाता है (प्रकाश १७:१५ देखें)। स्वर्ग उन लोगों को दर्शाता है जो मसीह के साथ स्वर्गीय स्थानों में बिठाये गये हैं। हम यह कह सकते हैं कि संसार शारीरिक मण्डली को दर्शाता है।

शारीरिक मण्डली खरीद बिक्री से भरपूर है। प्रकाशित वाक्य की पुस्तक में बाद में इसे वेश्या सम्बोधन किया गया है। सहवास पति पत्नी के बीच सम्पन्न होने वाला एक गहरा और अपनत्व भरा काम है। परमेश्वर के साथ हमारी होने वाली संगति का यह एक तस्वीर है। कोई भी वेश्या इस काम को गलत उद्देश्य से -विवाह के बाहर - पैसा कमाने के लिये - उपयोग करती है। इतिहास बताती है कि मण्डली ने भी ठीक इसी प्रकार का व्यवहार किया है। इसने परमेश्वर की चीजों को लेकर उन्हें पैसों के लिये बिक्री किया है। विगत के वर्षों में याजकों ने पापों की क्षमा के बदले पैसे लिये हैं। दिये गये सेवाओं और असूले गये करों के कारण मंडलियां अविश्वसनीय रूप से धनी हो गयीं। आधुनिक समय में प्रचारक अपने चङ्गाई के वरदान को धन के बदले पेश करते हैं । “परमेश्वर के काम के लिये अपने प्रेम भेंट भेजिए और हम आपकी चङ्गाई के लिये परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे।” कुछ विकासशील देशों में पास्टर इतने अधिक धनी हो जाते हैं, जितने वे सामान्य नौकरी में कभी नहीं हो सकते थे। अच्छे उद्देश्य वाली पश्चिमी मंडलियां भी सुसमाचार प्रचार के लिये और परमेश्वर के काम को सहयोग करने के लिये पैसा बहाती है। प्रत्यक्ष या कम प्रत्यक्ष झूठी बातें बतायी जाती हैं ताकि पैसा आता रहे।

मुझे ऐसा नहीं लगता कि परमेश्वर का वास्तविक काम कभी भी पैसा के अभाव में बाधित हुआ हो। परमेश्वर कभी भी ऐसा निर्माण योजना आरम्भ नहीं करते जिसे पूर्ण करने के लिये धन का अभाव हो।

जब भी कोई व्यक्ति खुले रूप में या ढके छुपे रूप में परमेश्वर की चीजों का उपयोग करके अपना पद, प्रतिष्ठा या बैङ्क बैलेन्स बढ़ाता है तो परमेश्वर की दृष्टि में वह वेश्या है।

प्रकाशित वाक्य का १८ अध्याय बेबिलोन के विनाश का वर्णन करता है। ३ पद में हम पढ़ते हैं, “क्योंकि उसके व्यभिचार के भयानक मदिरा के कारण सब जातियां गिर गई हैं, और पृथ्वी के राजाओं ने उसके साथ व्यभिचार किया है; और पृथ्वी के व्यापारी उसके सुख-विलास की बहुतायत के कारण धनवान हुए हैं।” इस अध्याय के बाकी भाग में पृथ्वी के राजाओं के अनैतिकता और पृथ्वी के व्यापारियों की अकूत सम्पत्ति और बेबिलोन के विनाश के बाद उनके महान् वेदना का वर्णन मिलता है।

बाइबल के युग में पैसा का उतना प्रभाव नहीं था जो आज के युग में है। आज कल खास कर पश्चिमी समाज में लोग पैसे के बिना नहीं जी सकते। अधिकांश व्यक्ति नगरों में रहते हैं और पारिश्रमिक पाते हैं जिससे वे भोजन, कपड़ा और आवश्यक दूसरी चीजें खरीदते हैं। प्राचीन काल में लोग अधिकतर अपना भोजन और कपड़ा स्वयं उत्पादन करते थे और पैसे का दरकार बहुत कम होता था। व्यापारी लोग खुद उत्पादन नहीं करते थे, बल्कि दूसरों के द्वारा उत्पादित वस्तु खरीदते थे और किसी दूसरी जगह ले जाकर मुनाफा के साथ बिक्री करते थे। प्रकाशित वाक्य में वर्णन की गयी वस्तुओं में बहुत सी विलासिता की वस्तुएं थी।

हम इसका एक आत्मिक समानान्तर उन प्रचारकों और शिक्षकों में देखते हैं जिनके पास परमेश्वर का वास्तविक वचन नहीं है। उन्होंने किताबों में जो कुछ पढ़ा है, या प्रवचनों और टेपों में जो कुछ सुना है, उसे लेते हैं । और फिर उसे इस ढङ्ग से पेश करते है, जैसा कि यह उनका अपना हो। ये अपना पद और अपनी प्रतिष्ठा निर्माण करने के लिये इन्हें उपयोग करते हैं । ऐसे लोगों पर ६६६ अङ्क का छाप लगा है। वे बेबिलोन में खरीद बिक्री करते हैं और बेबिलोन के विनाश पर बुरी तरह रोएंगे।

परमेश्वर का मार्ग बिलकुल अलग है। आत्मा और दुलहन दोनों “जीवन का जल मुफ्त में लेने के लिये” निमन्त्रण देते हैं (२२ अध्याय का १७ पद)। किसी ने कभी कहा था, “स्वर्ग देता है, पृथ्वी बिक्री करता है और नर्क चुरा लेता है”। परमेश्वर और उसके सच्चे सेवक सदा देते रहेंगे। यीशु ने कहा, “तुम्हें मुफ्त में मिला है, मुफ्त में दो”।

जिन्होंने मसीह के साथ स्वर्गीय स्थानों में रहना सिख लिया है वे परमेश्वर की चीजों से व्यापार नहीं करेंगे। उन्होंने अपने पिता से जो स्वर्ग में रहते हैं, मुफ्त में पाया है। वे उन सब को मुफ्त में देना चाहेंगे जो उनसे लेना चाहते हैं ।

मसीह का मन

हमने पशु के मन के विषय में विचार किया है, और अब आनन्द दायक विषय मसीह के मन के विषय में विचार करेंगे। १४ अध्याय के १ से लेकर ५ पदों में, १३ अध्याय के अन्त में उल्लेखित ६६६ वाले पद के ठीक बाद, यूहन्ना ने परमेश्वर के १४४००० दासों के विषय में एक दर्शन का वर्णन किया है। सर्व प्रथम इनसे हमारा परिचय ७ अध्याय में होता है, जहां इनका इजराइल के १२ गोत्रों में प्रत्येक गोत्र से १२००० लोगों के माथे पर छाप लगे व्यक्तियों के रूप में किया गया है।

इस झुण्ड की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये सब यीशु के समान हैं। उनका जन्म आदम की समानता में हुआ था लेकिन अब वे पूर्ण रूप से परिवर्तन हो गये हैं। उनका रूपान्तरण पूर्ण हो चुका है। ६६६ अब ८८८ हो चुका है। वे यीशु के जैसे हो चुके हैं। परमेश्वर ने अपने छाप से उन्हें छाप लगा कर पूर्ण रूप से अपना स्वीकार कर लिया है। ये ऐसे लोग हैं जिनमें मसीह का मन है।

आइये हम इन पदों को प्रार्थना के साथ धीरे धीरे पढ़ें, ताकि हम परमेश्वर की योजना का दर्शन पा सकें। मेरा विश्वास है कि हमारे समय में वे इन्हें पूरी कर रहे हैं। उनके १४४००० सेवक अभी तैयारी और तालीम की अवधि में हैं।

पद १: “फिर मैं ने दृष्टि की, और देखो, वह मेम्ना सिय्योन पहाड़ पर खड़ा है, और उसके साथ एक लाख चौवालीस हजार जन हैं, जिन के माथे पर उसका और उसके पिता का नाम लिखा हुआ है”।

इस पद और इसके पहले के पद में कितना बड़ा विरोधाभास है! पशु का मन एक नाम के अंक ६६६ से दर्शाया गया है। मसीह का मन एक ऐसे नाम से दर्शाया गया है जिसका अंक ८८८ है। कोई भी अंक का व्यक्तित्व नहीं होता, किसी कंप्यूटर के लिये ठीक हैं पर मनुष्य के लिये अस्वाभाविक! यदि आपके अन्दर पशु का मन है तो आप सिर्फ एक संख्या हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप किसी के तथ्याङ्क का एक हिस्सा हो सकते हैं। यदि आपमें मसीह का मन है तो आपका एक नाम होगा। आप परमेश्वर की नजर में एक व्यक्ति, दूसरों से अलग, हैं। आपका नाम मेम्ने की जीवन की पुस्तक में लिखा गया है।

ये १४४००० सियोन पर्वत पर खड़े हैं। यशायाह के दूसरे अध्याय पद २ और ३ से इसका महत्त्व स्पष्ट होता है, “ अन्त के दिनों में ऐसा होगा कि यहोवा के भवन का पर्वत सब पहाड़ों पर दृढ़ किया जाएगा, और सब पहाडिय़ों से अधिक ऊंचा किया जाएगा; और हर जाति के लागे धारा की नाईं उसकी ओर चलेंगें। और बहुत देशों के लोग आएंगे, और आपस में कहेंगे: आओ, हम यहोवा के पर्वत पर चढ़कर, याकूब के परमेश्वर के भवन में जाएं; तब वह हम को अपने मार्ग सिखाएगा, और हम उसके पथों पर चलेंगे। क्योंकि यहोवा की व्यवस्था सिय्योन से, और उसका वचन यरूशलेम से निकलेगा”। जो लोग सियोन पर्वत पर खड़े हैं, ये वही लोग हैं जो मसीह के साथ राज्य करेंगे। वे उनके साथ राज्य करने योग्य हैं क्योंकि उनका मन एक है। उनके पास मसीह का मन है। उनका मन ६६६ से परिवर्तन होकर ८८८ हो गया है।

मेरा मानना है कि १४४००० की संख्या को अक्षरशः नहीं लेना चाहिए (जैसा कि यहोवा साक्षी सम्प्रदाय के लोग करते हैं)। हमें ऐसी आशा नहीं करनी चाहिए कि ठीक १४४००० व्यक्ति वास्तविक सियोन पर्वत पर खड़े होंगे या किसी सांसारिक संस्था के सदस्य होंगे। अच्छा होगा कि हम फिर इस अंक के अर्थ के विषय में विचार करें। ये १४४००० इजराइल के १२ गोत्रों में प्रत्येक से १२००० की संख्या में हैं। १२ गोत्र के समान ही यीशु ने १२ प्रेरित नियुक्त किये। २० अध्याय में वर्णित नया यरुशलेम के १२ नींव और १२ फटक हैं। इजराइल, चेले और यरुशलेम नगर, ये सब विशेष रीति से परमेश्वर द्वारा चुने गये थे। बुलिन्गर का कहना है कि १२ शासन की सिद्धता की संख्या है। मेरा विश्वास यह है कि १४४००० उन लोगों की बड़ी संख्या है जिन्हें परमेश्वर ने मसीह के साथ राज्य करने के लिये चुना है।

पद २: “और स्वर्ग से मुझे एक ऐसा शब्द सुनाई दिया, जो जल की बहुत धाराओं और बड़े गर्जन का सा शब्द था, और जो शब्द मैं ने सुना; वह ऐसा था, मानो वीणा बजाने वाले वीणा बजाते हों।”

इस पद में हम पाते हैं कि १४४००० की आवाज का तीन तरह से वर्णन किया गया है। प्रथमतः यह बहुत सी धाराओं की आवाज की तरह है। यहेजकेल ४३:२ में परमेश्वर की आवाज का और प्रकाशित वाक्य १:१५ में यीशु की आवाज का ऐसा ही वर्णन मिलता है। पानी का अर्थ है जीवन। बहुत सी धाराओं का अर्थ है भरपूर जीवन। मनुष्य, पशु पक्षी या पेड़ पौधे, पानी के बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता। १४४००० के अन्दर भरपूर आत्मिक जीवन मिलेगा। यह आत्मिक जीवन वे दूसरों को प्रदान करेंगे। यीशु ने कहा था, “मैं इसीलिये आया कि वे जीवन पायें, भरपूर जीवन”। जो वचन उन्होंने बोला था, वे आत्मा और जीवन थे। १४४००० उन्हीं के समान होंगे। उनके द्वारा बोले गये शब्द सुनने वालों को जीवन देंगे। यीशु के पीछे चलने वाले लोगों के जीवन में यह बात कुछ हद तक आज भी सत्य है, लेकिन वह समय आ रहा है जब यह पूरी तरह सत्य होगा। अभी तक हमने जो देखा है उससे बहुत बड़े रूप में यह पूर्ण होगा।

दूसरी बात, उनकी आवाज गर्जन जैसी थी। गर्जन अधिकार और शक्ति दर्शाता है। सिनाई पर्वत पर परमेश्वर की आवाज गर्जन के समान थी जब उन्होंने उस अधिकार पूर्ण प्रकाश की घोषणा की जो पाने का सौभाग्य मनुष्य को मिला था। मूसा ने दस आज्ञा की घोषणा की और उसके साथ व्यवस्था जो परमेश्वर के अधिकार से भरपूर था। १४४००० के पीछे भी मूसा के समान ही परमेश्वर का अधिकार काम करेगा। वे परमेश्वर की सेना के नये सिपाही नहीं होंगे। वे ऐसे लोग होंगे जिन्हें परमेश्वर ने तालीम दी है, तैयार किया है, शुद्ध किया है और उनका अधिकार पाने के लिये तैयार किया है। वे अपने चरित्र के आधार पर इसे पाने के लिये पुरी तरह योग्य होंगे।

तीसरी बात, उनकी आवाज ऐसी थी मानो वीणा बजाने वाले वीणा बजा रहे हों। १४४००० की आवाज संगीत जैसी है। सबों में संगीत तैयार करने की योग्यता नहीं होती। सिर्फ वे ही ऐसा कर सकते है जिन्हें यह वरदान मिला है। कोई भी व्यक्ति तालीम लिये बिना अच्छा संगीत नहीं तैयार कर सकता। बच्चे गायक नहीं बन सकते। किसी भी संगीतज्ञ के लिये कोई भी साज बजाने से पहले अच्छी तरह सुनना आवश्यक है। उसके लिये मेजर और माइनर स्केल, आवाज मिश्रण, और सुर ताल का ज्ञान होना आवश्यक है। उसके बाद उसे अपनी आवाज को या अपने हाथों को अनुशासन में रखना आवश्यक है ताकि वह उस धुन को बजा सके। इन सब बातों के लिये बहुत समय और तालीम के साथ साथ स्वाभाविक क्षमता की भी आवश्यकता पड़ती है।

इसका फल दोतरफा होता है। संगीत बहुत आनन्ददायी होता है। यह अति सुन्दर भी हो सकता है। यह संवाद का एक उपाय भी बन सकता है। यह एक सन्देश प्रदान कर सकता है।

१४४००० की आवाज संगीत के समान होगा। संगीतज्ञों की तरह उनके पास भी परमेश्वर का दिया हुआ वरदान होगा। वे परमेश्वर की आवाज को लम्बे समय तक बड़े ध्यान से सुने होंगे। उस आवाज को दुहराने के लिये उन्हें लम्बे अनुशासन के साथ तालीम दिया जायेगा। इसका फल यह होगा कि वे परमेश्वर का सच्चा वचन प्रदान करेंगे और वह भी बड़ी सुन्दरता के साथ। इन्हीं कारणों से यीशु के पास भीड़ खिंची चली आती थी। उनका कहना था, “किसी ने भी आज तक इस व्यक्ति के समान बात नहीं की।”

सच्चे संगीतज्ञों की तरह वे लोग भी आपस में पूरी तरह सामंजस्य रखेंगे। बेचारे संगीतज्ञ, सब एक ही धुन गाने का प्रयास करते हैं, फिर भी धुन बिगाड़ सकते हैं और एक दूसरे के साथ सामंजस्य नहीं रख सकते। वे अपने संगीत का खुद आनन्द ले सकते हैं, पर दूसरे लोग सुनना नहीं चाहते। अच्छे संगीतज्ञ प्रत्येक अलग अलग धुन बजा सकते हैं, लेकिन सभी धुनें एक दूसरे के साथ ताल मेल बनाती हुई आपस में विलीन हो जायेंगी। वे जिनकी शिक्षा सिर्फ मनुष्यों के द्वारा हुई है, सब एक ही वचन बोलेंगे लेकिन आपस में न धुन का और न समय का सामंजस्य होगा। उनके बीच आपस में वास्तविक एकता का नितान्त अभाव है। १४४००० के समान जिन्होंने परमेश्वर से शिक्षा ली है, उनमें अद्भुत विभिन्नता होते हुए भी आपस में अच्छी तरह विलीन हो जाते हैं। वे आत्मा में एक हैं।

पद ३: “और वे सिंहासन के साम्हने और चारों प्राणियों और प्राचीनों के साम्हने मानो, यह नया गीत गा रहे थे, और उन एक लाख चौवालीस हजार जनो को छोड़ जो पृथ्वी पर से मोल लिये गए थे, कोई वह गीत न सीख सकता था।”

लोग अपने अनुभव को व्यक्त करने या वर्णन करने के लिये गीत गाते हैं। जो लोग इस तरह के अनुभव से अनभिज्ञ हैं या थोड़ा बहुत जानते हैं, गीत से नहीं जुड़ सकते। १४४००० का विशिष्ट अनुभव यह है कि उन्हें पृथ्वी से मोल लिया गया है।

यह पृथ्वी शारीरिक मनुष्य का राज्य है। यह स्वर्ग के विपरीत है जो परमेश्वर और आत्मा का राज्य है। प्रकाशित वाक्य में बार बार तीन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ हैः स्वर्ग, पृथ्वी और समुद्र। समुद्र उजाड़ है और लाभहीन। आप इसमें खेती नहीं कर सकते, कुछ निर्माण नहीं कर सकते या और किसी उपाय से इस पर नियन्त्रण नहीं कर सकते। इसमें आप एक ही उपयोगी काम कर सकते हैं, जैसे लोग प्राचीन काल में करते थे, मछली पकड़ सकते हैं। इसके बाद मछली को जमीन पर लाना आवश्यक है। यीशु ने इस बात को आरम्भिक परिवर्तन के अनुभव को दिखाने के लिये उपयोग किया था। उन्होंने पतरस से कहा था, “मैं तुम्हें मनुष्यों का जलाहारी बनाऊंगा।” चेलों का काम था लोगों को समुद्र की अवस्था से पृथ्वी की अवस्था में लाना।

प्रकाशित वाक्य की पुस्तक स्पष्ट रूप से पृथ्वी पर रहने वालों और स्वर्ग में रहने वालों के बीच अन्तर दिखाती हैः “इसलिये आनन्दित हो, हे स्वर्ग और उनमें रहने वाले! लेकिन पृथ्वी और समुद्र के लिये हाय, क्योंकि दुष्ट नीचे तुम्हारे पास गया है! वह क्रोध से भरा है, क्योंकि वह जानता है कि उसका समय बहुत कम है।” इस पद का पहला भाग उनके विषय में नहीं बताता जिनकी मृत्यु हो चुकी है और जो स्वर्ग जा चुके हैं, लेकिन उनके विषय में बताता है जो स्वर्गीय स्थानों में मसीह के साथ बिठाये गये हैं। नये नियम में स्वर्ग वर्तमान की वास्तविकता है, न कि भविष्य का घर। यह आत्मिक अवस्था है। हमारी मृत्यु के बाद क्या होता है, उसके लिये दूसरे प्रकार के शब्द उपयोग किये गये हैं। उदाहरण के लिये पौलुस कूच करने और मसीह के साथ रहने की बात करता है, पर स्वर्ग जाने की नहीं। यीशु पिता के पास जाने की बात करते हैं।

आदम के वंश के अन्य सदस्यों की तरह ही १४४००० भी आरम्भिक रूप से पृथ्वी के ही थे। वे स्वर्ग में रहने वाले हो गये हैं। उनकी नागरिकता परिवर्तन हो गयी है। अब उपरान्त वे संसार और इसकी व्यवस्था के अंग नहीं हैं, पर स्वर्गीय राज्य के हैं। छुटकारे की पूर्णता उनके अन्दर अपना काम कर चुकी है, और अब वे पूर्णरूप से परमेश्वर के हो चुके हैं।

पद ४: “ये वे हैं, जो स्त्रियों के साथ अशुद्ध नहीं हुए, पर कुंवारे हैं: ये वे ही हैं, कि जहां कहीं मेम्ना जाता है, वे उसके पीछे हो लेते हैं: ये तो परमेश्वर के निमित्त पहिले फल होने के लिये मनुष्यों में से मोल लिये गए हैं।”

“स्त्रियों के साथ अशुद्ध नहीं हुए” का क्या अर्थ हो सकता है? स्पष्ट रूप से हम बहु गमन और सब प्रकार के अनैतिकता के युग में जी रहे हैं। परमेश्वर के सेवकों के लिये शुद्ध और इस प्रकार के सब दोषों से रहित होना आवश्यक है। लेकिन यह सब बिना कहे होना चाहिए। यदि इस पद का सिर्फ यही अर्थ है तो यही लगता है कि यह पद सिर्फ पुरुषों के लिये है, १४४००० की संख्या में स्त्रियो को समावेश नहीं किया गया है।

मेरा विश्वास यह है कि यहां आत्मिक पवित्रता की गहरी समस्या का प्रश्न है। प्रकाशित वाक्य की पुस्तक में दो स्त्रियों का उल्लेख है, दोनों शायद एक ही चीज को दर्शाते हैं। २ अध्याय के २० पद में हम पढ़ते हैं: “पर मुझे तेरे विरुद्ध यह कहना है, कि तू उस स्त्री इजेबेल को रहने देता है जो अपने आप को भविष्यद्वक्तिन कहती है, और मेरे दासों को व्यभिचार करने, और मूरतों के आगे के बलिदान खाने को सिखला कर भरमाती है”। बाद मे प्रकाश १७:५ में हम पढ़ते हैं, “भेद – बड़ा बाबुल पृथ्वी की वेश्याओं और घृणित वस्तुओं की माता।”

ये वे स्त्रियां हैं जिनके साथ १४४००० अपने को अशुद्ध नहीं करेंगे। वे इजेबेल और बेबिलोन के अपवित्रता से अपने आप को पूर्ण रूप से अलग रखेंगे। परमेश्वर के प्रकाश के द्वारा वे बाबुल का भेद समझ जायेंगे और अपने हृदय से वे इस पुकार के प्रति आज्ञाकारी बनेंगे, “हे मेरे लोगों, उस में से निकल आओ; कि तुम उसके पापों में भागी न हो, और उस की विपत्तियों में से कोई तुम पर आ न पड़े।”

इसका अर्थ ४ पद के दूसरे और गहरे महत्त्वपूर्ण भाग में स्पष्ट किया गया हैः “मेमना जहां जहां जाता है वे उसके पिछे पिछे चलते हैं”। यीशु उनके समय के बेबिलोन से पूरी तरह बाहर थे। वे इसके भ्रष्ट मानव निर्मित धार्मिक व्यवस्था से अलग थे। उन्हीं की तरह ये भी पूर्ण रूप से पवित्र आत्मा की अगुवाई में चलेंगे।

मेमना जहां जहां जाता है उसके पिछे पिछे चलने का अर्थ क्या है? यीशु कहां गये थे? इस पृथ्वी पर वे गर्भ धारण से लेकर जन्म तक (परमेश्वर के वचन द्वारा) गये थे। उसके बाद बचपन से लेकर किशोरावस्था और फिर प्रौढ़ावस्था तक गये थे। वे आज्ञाकारिता, तिरस्कार, वेदना और मृत्यु के मार्ग पर चले। कब्र से वे विजयी होकर जी उठे और पिता के दाहिने हाथ को जा बैठे। परमेश्वर के मेम्ने के मार्ग का सारांश यही था। उसके पिछे चलने वालों का मार्ग भी ऐसा ही है। कुछ भी अन्तर नहीं होगा।

उसके पिछे चलने वाले भी परमेश्वर के वचन के द्वारा गर्भ धारण कर जन्म लेना आवश्यक है। उन्हें भी बचपन से होकर किशोरावस्था और परिपक्वता तक पहुंचना आवश्यक है। उन्हें भी अपने आज्ञाकारिता के क्रम में तिरस्कार, वेदना और मृत्यु का अनुभव करना आवश्यक है। बहुतों के लिये यह शारीरिक मृत्यु नहीं भी हो सकता है, लेकिन मृत्यु के समान अनुभव। वे भी, यदि उनके साथ कष्ट सहते हैं तो उनके साथ राज्य भी करेंगे। उन्हें भी पहले फल के रूप में परमेश्वर के आगे और मेमना के आगे अर्पण किया जायेगा, जिस प्रकार यीशु को पहले फल के पहिलौठा के रूप में अर्पण किया गया था।

यीशु के ३ वर्षों के छोटे समय के सेवकाई में हजारों हजार व्यक्तियों ने आशीष पायी थी। उनके साथ हर समय सिर्फ १२ लोग थे जो जहां जहां वे जाते थे, उनके साथ साथ जाते थे। १४४००० भी मेमने के पिछे चलने वाले व्यक्तियों से मिलकर बना एक छोटा समूह है। इनके अलावा, जैसा कि प्रकाश ७ में वर्णन किया गया है, सफेद वस्त्र धारण कर परमेश्वर के सिंहासन के आगे खड़े लोगों का एक विशाल समूह भी होगा।

पद ५: “और उन के मुंह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं।”

१४४००० का अन्तिम गुण उनकी सच्चाई और उनकी शुद्धता हैं। झूठ बोलना आजकल आम बात है। प्रत्यक्ष झूठ, अप्रत्यक्ष झूठ, सफेद झूठ, काला झूठ, ये सब राजनीतिक, व्यावसायिक और सामाजिक जीवन के भाग हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि ये पारिवारिक जीवन और मण्डली के जीवन का भी भाग बनते जा रहे हैं। इससे और भी बुरी बात यह है कि इसका स्रोत हमारे अपने हृदय के अन्दर है।

यीशु पूर्ण रूप से भिन्न थे और हैं। उन्होंने जो कुछ कहा और किया वे सब सत्य थे। वे स्वयं सत्य थे और हैं। पवित्र आत्मा सत्यता के आत्मा हैं। दूसरी तरफ शैतान को झूठों का पिता कहा गया है।

सबसे बड़ा झूठ क्या है? मेरा मानना है कि सबसे बड़ा झूठ परमेश्वर की झूठी साक्षी है। यीशु को विश्वास योग्य और सत्य साक्षी कहा गया है। वे परमेश्वर के सिद्ध प्रतिरूप और विवरण थे और हैं। उन्होंने न सिर्फ सत्य बातें कीं, वरन वे सत्य थे। इसके विपरीत फरिसी लोग अति झूठे साक्षी थे। उन्होंने परमेश्वर के विषय में बातें कीं और लोगों को परमेश्वर के विषय में शिक्षा दी, लेकिन उनका जीवन पूरी तरह परमेश्वर रहित था। मानव निर्मित धर्म आधुनिक बेबिलोन ऐसा ही है। इसका परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने का दावा अति झूठ है और परमेश्वर के चरित्र का अपमान। सांसारिक चीजों के विषय में भी झूठ बोलना पापपूर्ण और गलत है, और वहां भी हमें सत्यता पूर्ण धारणा विकसित करना आवश्यक है। परमेश्वर की झूठी साक्षी बनकर झूठी आत्मिक बातें बोलना इससे भी बुरी बात है।

शताब्दियों से अपने आप को मण्डली के रूप में जो सम्बोधन करते आये हैं, वे एक सबसे बड़ा झूठ हैं। यह अपने आप को पृथ्वी पर परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते आया है और आम आदमी ने इसका विश्वास किया है। जब वह परमेश्वर के विषय में विचार करता है, तब वह जो कुछ उसने मण्डली में सुना और सिखा है वही सोचता है।

१४४००० हम सब मण्डली के विषय में जो कुछ जानते हैं इससे पूरी तरह भिन्न होंगे। यीशु की तरह ही वे विश्वास योग्य और सत्य साक्षी होंगे, जिनके मुख में और जिनके जीवन में कोई झूठ नहीं होगा। विश्व उनसे मिलने को आतुर है।

सारांश

इस अध्ययन में हमने दो तरह के व्यक्तियों के विषय में देखा है। हम उन्हें ६६६ व्यक्ति और ८८८ व्यक्ति सम्बोधन कर सकते हैं। ६६६ अपना जीवन परमेश्वर रहित, पूरी तरह आदम के पापी मानव स्वभाव में जीते हैं। ऐसा करते हुए, जाने अनजाने वे शैतान के पकड़ में रहते हैं। ८८८ व्यक्ति पूरी तरह इसके विपरीत होते हैं। वे मेमना जहां जहां जाता है, उसके पिछे चलते हैं। वे पूरी तरह पवित्र आत्मा की अगुवाई में चलते हैं, और पुत्रत्त्व की पूर्णता में प्रवेश कर चुके हैं। पृथ्वी से उनका छुटकारा हो चुका है।

क्या हम उन १४४००० में समावेश हो सकते हैं? क्या ऐसे स्तर की सिद्धता सम्भव है? क्या हम यीशु की उस आज्ञा का पालन कर सकते हैं- सिद्ध बनो जैसे तुम्हारे स्वर्ग में रहने वाले पिता सिद्ध हैं? पतमस टापू पर यूहन्ना ने जो दर्शन देखा था, क्या वास्तव में परमेश्वर से आया था? इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिये मानवीय शब्द पर्याप्त नहीं हैं। जब तक हमारे हृदय की गहराई में पवित्र आत्मा के प्रकाश से परमेश्वर से कोई उत्तर प्राप्त नहीं होता, हमारे जीवन को प्रभावित करने योग्य कोई उत्तर नहीं है। उनके वचन के प्रवेश से प्रकाश मिलता है। आइये हम उनके आगे प्रतीक्षा करें कि यह हम पा सकें।

अन्त में

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अन्त में हम एक अद्भुत बात पर विचार करेंगे। w हिब्रू वर्णमाला का छठा अक्षर है। दूसरे शब्दों में w ६ अंक को दर्शाता है। इस लिये हिब्रू भाषा में आप ६६६ कैसे लिखेंगे? आपने अनुमान लगाया होगा! www! www या विश्वव्यापी वेब किसी भी विषय जिसकी कल्पना की जा सकती है, अच्छा, बुरा या तटस्थ, से सम्बन्धित मानवीय ज्ञान और बुद्धि का बहुत बड़ा उपलब्धि है। माउस के दो चार क्लिक से आप अपनी इच्छा के किसी भी विषय पर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। हम मानवीय ज्ञान के असीमित स्रोत का मार्ग पा चुके हैं।

धर्मशास्त्र में इसी के समान बात पाते हैं। पतरस ने यीशु से कहा, “आप सर्वज्ञानी हैं” (यूहन्ना २१:१७)। यूहन्ना उस वक्त वहीं था और उसने ये बाते सुनी थी और बाद मे उसने ऐसे ही शब्द अपने पत्र मे लिखाः “और तुम्हारा तो उस पवित्र से अभिषेक हुआ है, और तुम सब कुछ जानते हो” (१ यूहन्ना २:२०)।

न ही यीशु और न ही यूहन्ना के पत्र के पाठक इन्टरनेट चलाना जानते थे। उनके ज्ञान का स्रोत ६६६ नहीं वरन् ८८८ था। उनमें मसीह का मन था, पशु का मन नहीं।

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